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Showing posts from January, 2025

ब्रिटेन के स्टोनहेंज का सहोदर एले’ज स्टेनर स्वीडन में है

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ब्रिटेन के स्टोनहेंज का सहोदर एले’ज स्टेनर स्वीडन में है  लंदन से नब्बे मील की दूरी पर विशालकाय पत्थरों की एक पाँच हज़ार साल से भी पुरानी संरचना स्टोनहेंज  है जो अपने आप में काफ़ी रहस्य समेटे हुए है, कुछ लोगों का मानना है कि यह संरचना आकाशीय अध्ययन के लिए बनाई गई थी , साथ ही शमन मिस्टिक यहाँ  उपासना और साधना करते रहे हैं . इसका एक सहोदर एले’ज स्टेनर स्वीडन के ऑस्टरलेन समुद्री किनारे के फिशिंग गांव Kåseberga के क़रीब ऊँची पहाड़ी पर अवस्थित है , विशाल आकार प्रकार के 59 बोल्डरों से समुद्री जहाज़ की रूप रेखा बनी हुई है , लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष पहले यह संरचना किसने और क्यों बनाई और इसके लिए विशाल आकार के बोल्डर किस तरह से समुद्री पहाड़ी के शिखर पर ले जाए गए होंगे इसका सही सही उत्तर नहीं मिल सका है , पर इतना अवश्य है कि यह पर्यटकों को खूब आकर्षित करता है .  खगोलशास्त्रियों ने यहाँ शोध करना प्रारंभ किया तो पाया कि उत्तरायण के प्रथम दिन और दक्षिणायन के प्रथम दिन सूर्योदय और सूर्यास्त निर्धारित बिंदु पर होता है तब यह बात समझ में आई कि एले’ज स्टेनर संरचना खगोल विज्ञान के अध्ययन ...

भारतीय उप महाद्वीप के विभाजन पर किताब आग का दरिया

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विभाजन के दंश पर महत्वपूर्ण किताब  “आग का दरिया “ और उसकी लेखिका की बात  भारतीय उपमहाद्वीप का बँटवारा एक ऐसी त्रासदी है    जिसकी विश्व इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं है . इसके कारण एक करोड़ से अधिक आबादी को अपना घर-बार छोड़कर एक    नक़ली    लकीर खींच कर किए गए विभाजन की यातनाएँ सहने पर विवश होना पड़ा. हज़ारों मासूमों को जान से हाथ धोना पड़ा,    निर्दोप व्यक्तियों को धार्मिक पक्षपात का शिकार होकर ज़िंदगी से हाथ के निर्मम हाथों से लुट जाने का सदमा बर्दाश्त    करना पड़ा. इस आग को किस किस ने हवा दी ये तो आगे चल कर इतिहास ही तय करेगा लेकिन इन लज्जाजनक घटनाओं को संवेदनशील साहित्यकारों    की आत्मा ने जरूर    हिलाया , कई जाने माने लेखकों ने    इन रक्तरंजित घटनाओं को अपनी-अपनी भाषा में कहानी और उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया . इसमें हिंदी में अमृत लाल नागर का    “बूँद और समुद्र”,    यशपाल का    ‘झूठा सच’, भीष्म साहनी का    ‘तमस’, द्रोणवीर कोहली का    ‘वाह...

हर सप्ताह एक यादगार फ़िल्म : इस बार कासाब्लैंका

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कैसाब्लांका : विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी अद्भुत प्रेम कथा  एक कल अपने अंदर बैठा फ़िल्म समीक्षक एक लंबे अरसे एक बाद जाग गया और तय किया कि हर सप्ताह एक यादगार फ़िल्म देखी  जाए और फिर उसके बारे में कुछ लिखा भी जाए. इस क्रम में 1942 में रिलीज़ हुई फ़िल्म कैसाब्लांका देखी . सबसे पहली बार मैंने इसे दिल्ली के संभवत: शीला सिनेमा में 1973 देखा  था , सच कहूँ तो उस समय यह फ़िल्म पूरी तरह समझ में नहीं आई थी लेकिन इंग्रिडबर्गमैन का अभिनय विशेषकर आँखों से बहुत कुछ कह देना दिल को छू गया था . उसके बाद यह फ़िल्म कम से कम सात  या आठ बार देखी .धीरे धीरे विश्व युद्ध के संभावित ख़तरों की आहट और बाद की विभीषिका की समझ पैदा हुई साथ ही पाश्चात्य कथानक में यूनिवर्सल संवेदनाएं और उदात्त मानवीकरण इसे बार बार देखने को उकसाता रहा . एक और ख़ास बात यह कि यह फ़िल्म श्वेत श्याम फ़िल्मांकित हुई थी.  पुरानी रंगीन फ़िल्मों के प्रिंट फेड होने के कारण उनके वो गहराई और ताज़गी नहीं लगती जो आज भी इसे देख कर लगती है .  मिशेल कर्टिस का निर्देशन इतना चुस्त है कि  पाल भर को भी स्क्रीन से आँख...

एक ऐसे स्वामी के बारे में जरूर जानना चाहिए : स्वामी प्रणवानंद

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इन दिनों प्रयाग में महाकुंभ का मेला चल रहा है जिसमें दूर दूर से साधु सन्यासी आए हुए हैं , रोचक बात यह है कि इंस्टाग्राम और ह्वाट्सऐप ऐसी रीलों की भरमार है जिसमें सड़कों पर तरह तरह से स्वांग रच कर बहुत सारे साधु संन्यासी अपने करतब दिखाते हुए दिख रहे हैं . बहुत सारे अपने अपने एजेंडा भी सेट करने में लगे हुए हैं जब कि सच्चे साधु सन्यासी प्रचार और प्रदर्शन से दूर रह कर चुपचाप अपने सकारात्मक  काम और विलक्षण आचरण से समाज को नई दिशा प्रदान करते रहते हैं  .ऐसे में 1982 में एक विलक्षण स्वामी से हुए परिचय की याद आ रही है  . हुआ यूँ कि सुदूर हिमालय के छोटे से क़स्बे पिथौरागढ़ में मुझे पुनेठा बुक स्टोर पर जाड़ों  के कड़क मौसम में दोपहर को एक धवल सफेद वस्त्रों में एक सज्जन बैठे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पन्नों में व्यस्त दिखा करते थे , कद यही कोई पाँच तीन रहा होगा  लेकिन उम्र के साथ कमर झुकने  के कारण मुश्किल से चार ग्यारह दिखते थे. एक दिन उत्सुकतावश पुनेठा जी से उनके बारे में पूछा , कहने लगे, अरे आप नहीं जानते ये स्वामी प्रणवानंद हैं , ये कैलाश मानसरोवर के इलाक़े में रहते है...

दबे पांव आया और बीत गया : विश्व हिंदी दिवस

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हिंदी भाषा को बोलने और समझने वाले लोग दुनिया में तीसरे नंबर पर हैं , उसके वावज़ूद दुनिया में ही नहीं अपने देश में भी अपने स्थान का सम्मान हासिल करने के लिए यह संघर्ष कर रही है . हर साल देश और विदेश में विश्व हिंदी दिवस दस जनवरी को मनाया  जाता है . कल विश्व हिंदी दिवस  आया बड़े बड़े नेताओं , कार्यपालकों , हिंदी एक्टिविस्ट ने डिजिटल मीडिया पर बधाई संदेश भेजे , शहर शहर में कवि सम्मेलन भी हुए जिनमे अधिकांश सीएसआर से प्रायोजित थे इसलिए हिंदी कवियों को लिफाफे भी मिले , हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने के कड़े संकल्प भी लिए गए. लेकिन आज से फिर वही गुड मॉर्निंग , गुडनाइट, कार्यालयों में बदस्तूर अंग्रेजी में कामकाज वापस लौट आया और अगले संकल्पों और अंतर राष्ट्रीय हिंदी दिवस कवि सम्मेलनों के लिए अगली दस जनवरी का इंतज़ार करना पड़ेगा.  किसी भी देश की पहचान उसकी अपनी भाषा से भी होती है , भारत में हिंदी ही नहीं अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ भी सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से समृद्ध हैं और उनके बोलने वालों को लगता है कि अगर हिंदी देश भर में प्रतिष्ठित हो गई तो उनके लिए लेवल प्लेइंग फील...

लंदन में जाड़ों के मौसम में लगती है सालना नुमाइश - विंटर वंडरलैंड में बवेरिया का एहसास

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लंदन में जाड़ों  के मौसम में लगती है सालाना नुमाइश - विंटर वंडरलैंड में  बवेरिया का एहसास    हमारे बचपन के दिनों में  ट्रांसपोर्ट की सुविधाएं सीमित थीं और ऑनलाइन ऑर्डर करके किसी भी शहर के पकवान या फिर सामान ऑर्डर करके मंगा लेने के कल्पना तक भी नहीं थी उस दौर में हर बड़े शहर में एक सालाना मेला हुआ करता था  जिसमें देश भर के प्रमुख शहरों के खाने पीने , पहनने ओढ़ने की चीजों से ले कर, मौत का कुंआ , सर्कस, नौटंकी, टूरिंग सिनेमा ,जादू के शो ,  मुशायरा और कवि सम्मेलन सब कुछ रहता था  . आस पास के कस्बों के लोग साल भर बड़ी बेसब्री से इस मेले  या नुमाइश का इंतज़ार करते थे . बचपन में हमारे  घर के पास मेरठ का नौचंदी मेला और रामपुर की नुमाइश ऐसी ही अद्भुत इवेंट थीं , समय बदला ये अभी भी होती हैं लेकिन  जोश खरोश बाक़ी नहीं रह गया है . लेकिन  लंदन शहर के बीचों बीच हाइड पार्क में हर साल  नवंबर के अंतिम सप्ताह से ले कर जनवरी के प्रथम सप्ताह के बीच अभी भी ऐसी नुमाइश आयोजित होती है , इसे  नाम दिया गया है विंटर वंडरलैंड. शरद ऋतु में ठंड के ...