भारतीय उप महाद्वीप के विभाजन पर किताब आग का दरिया

विभाजन के दंश पर महत्वपूर्ण किताब 

“आग का दरिया “ और उसकी लेखिका की बात 

भारतीय उपमहाद्वीप का बँटवारा एक ऐसी त्रासदी है  जिसकी विश्व इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं है . इसके कारण एक करोड़ से अधिक आबादी को अपना घर-बार छोड़कर एक  नक़ली  लकीर खींच कर किए गए विभाजन की यातनाएँ सहने पर विवश होना पड़ा. हज़ारों मासूमों को जान से हाथ धोना पड़ा,  निर्दोप व्यक्तियों को धार्मिक पक्षपात का शिकार होकर ज़िंदगी से हाथ के निर्मम हाथों से लुट जाने का सदमा बर्दाश्त  करना पड़ा. इस आग को किस किस ने हवा दी ये तो आगे चल कर इतिहास ही तय करेगा लेकिन इन लज्जाजनक घटनाओं को संवेदनशील साहित्यकारों  की आत्मा ने जरूर  हिलाया , कई जाने माने लेखकों ने  इन रक्तरंजित घटनाओं को अपनी-अपनी भाषा में कहानी और उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया . इसमें हिंदी में अमृत लाल नागर का  “बूँद और समुद्र”,  यशपाल का  ‘झूठा सच’, भीष्म साहनी का  ‘तमस’, द्रोणवीर कोहली का  ‘वाह कैंप’, हरदर्शन सहगल का  ‘टूटी हुई ज़मीन’, कमलेश्वर का  ‘लूटे हुए मुसाफिर’, राही मासूम रज़ा का  ‘आधा गाँव’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इधर पंजाबी में करतार सिंह दुग्गल का  ‘आंद्रां’, ‘नाहून ते मास’ और ‘चोली दामन’, अमृता प्रीतम का  ‘डाक्टर देव’, ‘आल्हना’ और ‘पिंजर ‘, सुरेन्द्र सिंह जरूला का‘दीन ते दुनिया’और ‘दिल दरिया’, नरेंद्र पाल सिंह का  ‘अमन ते राह’,‘जदों स्वेर होई’और बंगला में प्रबोध कुमार सान्याल का  ‘आशो बानो’, प्रतिमा बसु का  ‘आलो’, अंग्रेजी में चमन लाल का  ‘आजादी’, गुरुचरन दास का  “ए फ़ाईन फैमिली’ उल्लेखनीय है . उर्दू में अब्दुल्ला  हुसैन का ‘उदास नसलें, शौकत सिद्दीकी का ‘खुदा की बस्ती, खतीजा मस्तूर का ‘आँगन’और जमीला हाशमी का “तलाश-ए-बहारॉ’ इसी विभीषिका पर है. इनके अतिरिक्त सिंधी और अन्य भाषाओं में भी इन विभाजन से जुड़ी  लोमहर्षक घटनाओं को प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है . 

विभाजन को आधार बना कर कुर्रतुलऐन हैदर का  उपन्यास  ‘आग का दरिया’ 1958 उर्दू में प्रकाशित हुआ उसे जो प्रसिद्धि  मिली वह इस कथानक पर लिखी किसी अन्य साहित्यिक कृति को नसीब  नहीं हुई. लेकिन विश्व पटल पर इसकी शोहरत लेखिका द्वारा इसके प्रकाशन के ठीक चालीस साल बाद अपने आप अंग्रेजी में किए भावानुवाद River of Fire से ही मिली . 

इस उपन्यास में लगभग भारतीय उपमहाद्वीप के ढाई हजार वर्ष के लम्बे समय की पृष्ठ-भूमि को  उपन्यास के विस्तृत कैनवास पर फैलाकर यहाँ  की हजारों वर्ष की सभ्यता-संस्कृति, इतिहास, दर्शन और रीति-रिवाज के विभिन्न रंगों से एक ऐसी तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत की गई जो हमारी चेतना और अंतरात्मा को झंझोड़ कर रख देती है.

‘आग का दरिया’ की कहानी बौद्धमत के उत्यान और ब्राह्मणमत के पतन से शुरू होती है और यह तीन काल खंड में बँटी हुई है इसके कुछ चरित्र गौतम, चम्पा, हरिशंकर और निर्मला तीनों कालों में मौजूद हैं और वही इन तीनों कालों में संपर्क और क्रमबद्धता स्थापित करने के सूत्र हैं.  तीनों काल एक अलग-अलग फानी हैं जो बौद्धमत और ब्राह्मण मत के टकराव से शुरू होकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के टकराव तक पहुँचते हैं और अंततः बँटवारे जैसी त्रासदी पर समाप्त होते हैं. लेखिका ने इस महान त्रासदी को इस प्रकार से  प्रस्तुत किया है कि ये किसी व्यक्ति, राष्ट्र या देश की त्रासदी बनने की बजाय एक मानव-त्रासदी का रूप धारण कर लेती है. गौतम बुद्ध के जन्म से 1947  तक के लंबे काल खंड  तक फैले इस उपन्यास में धर्म के अंतर्द्वंद के साथ ही उपमहाद्वीप के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन को बड़ी सुंदर और रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है.

इस उपन्यास के आरंभिक हिस्से  में गौतम नीलाम्बर और उसके अतीत के भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक काल और विचारधारा से परिचित होते हैं, गौतम एक चिंतक और प्रतिभाशाली कलाकार ही नहीं बल्कि एक मानव प्रेमी भी है, और उसका मित्र हरिशंकर अपनी यथार्थवादी प्रकृति का मालिक युवा है,  तीसरा चरित्र चम्पा का है जो गौतम की तरह हर युग में मौजूद है, यह एक प्रतीकात्मक नारी है जो हर युग में मौजूद पहले काल में वह चम्पक, दूसरे में चम्पा फिर थम्पा बाई और अतिम युग में चम्पा अहमद की सूरत में हमारे सामने प्रकट होती है. यह बहुत सशक्त और ज़ोरदार चरित्र हे जो असाधारण रूप से प्रभावित करता है. चम्पा में इतनी शक्ति और वल है कि कष्टों और विपत्तियो की प्रचंडता से टूटने और विखरने की बजाय वह हर स्थिति में अपने अस्तित्व को जीवित और संपूर्ण रखने का प्रयत्न करती है और प्रतिकूल हालात का मुकावला वड़े साहस और हिम्मत से करती है, जिसका मुकावना करने की हिम्मत न जुटा पाने पर कमाल रज़ा जैसा राष्ट्रवादी युवक निराशा और मायूसी में न चाहते हुए भी अंतत: पाकिस्तान में शरण ढूंढ़ता है. जबकि चम्पा अपने देश में ही रहने का निश्चय करती है और नए बने पाकिस्तान जाने से इंकार कर देती हैं हालाँकि वह लंदन से  पढ़ी-लिखी लड़की है और उसे वहाँ जा कर  अच्छी नौकरी मिल सकती है . जैसा कि उसने पाकिस्तान प्रवारा करने वाले कमाल रज़ा को वताया था–“मैं आखिरकार बनारस वापस जा रही हूँ. मैंने एक बार लंदन में गौतम से कहा था-‘‘मैं वापस जाना चाहती हूँ.कोई साथ ले जाने वाला नहीं मिलता.अब मैंने देखा कि किसी दूसरे का सहारा ढूँढना किस कदर ज़बरदस्त हिमाकत थी ! मैं खुद ही बनारस लौटती हूँ. जानते हो, मेरे पुरखों के शहर का नाम क्या है -“शिवपुरी” “हाँ-आनन्द नगर। वह भी एक न एक दिन सचमुच आनन्द नगर बनेगा, देश के सारे नगरों की तरह. इस देश को दु:ख का गढ़ या आनन्द का घर बनाना मेरे हाथ में है. मुझे दूसरों से क्या मतलब?” उसने अपने हाथ खोल कर गौर से उन्हें देखा-“डांसर के हाथ -लेखक या कलाकार के हाथ -नहीं-ये सिर्फ एक साधारण, औसत दरजे की समझदार लड़की के हाथ हैं, जो अब काम करना चाहती है” इसके बाद वह खामोश हो जाती है ,  कुछ देर बाद मस्जिद से जोहर (तीसरा पहर) की अज़ान की आवाज़ ऊँची हुई. चम्पा अनजाने ही  दुपट्टे से सिर ढंक लेती है  “कमाल !” कुछ देर बाद उसने कहा, ‘मुसलमानों को यहाँ से नहीं जाना चाहिए. तुम क्यों नहीं देखते कि यह तुम्हारा अपना वतन है” फिर वह  विवशता से उँगलियाँ मरोड़ती है “और तुम क्यों चले गए? मैं तुम्हारे यहाँ आ जाऊँ तो क्या मुझे एक से एक बढ़िया ओहदा न मिल जाएगा? देखो मैं पेरिस और केम्ब्रिज और लंदन से कितनी डिग्रियाँ लाई हूँ” चम्पा का हिन्दुस्तान में रहने का निर्णय एक बहुत ही सराहनीय कदम है जो उसकी दृढ़ता और साहस का प्रदर्शन करता है। 

कुर्रतुलऐन हैदर ने अपने इस उपन्यास में जिन शहरों को शामिल

किया है उनमें एक शहर मुरादाबाद भी है , जहाँ  के नबाबपुरा मोहल्ले में कुर्रतुलऐन की ननसाल थी. उनके  इस उपन्यास के बारे में निदा फ़ाज़ली ने यहाँ तक कहा है - मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दुस्तान के साढ़े चार हज़ार सालों की तारीख़ में से मुसलमानों के 1200 सालों की तारीख़ को अलग करके पाकिस्तान बनाया था, क़ुर्रतुल ऎन हैदर ने नॉवल 'आग़ का दरिया' लिख कर उन अलग किए गए 1200  सालों को हिन्दुस्तान में जोड़ कर हिन्दुस्तान को फिर से एक कर दिया. 

कुर्रतुलऐन हैदर का जन्म बीस जनवरी 1928 को उत्तर प्रदेश के शहर अलीगढ़ में हुआ था, पिता सज्जाद हैदर ब्रिटिश शासन की विदेश सेवा में थे और राजदूत की हैसियत से अफगानिस्तान, तुर्की इत्यादि देशों में तैनात रहे थे , इसी के साथ उर्दू के जाने-माने लेखक भी थे ,  मां 'नजर' बिन्ते-बाकिर भी उर्दू की लेखिका थीं. 

कुर्रतुलऐन बचपन से रईसी व पाश्चात्य संस्कृति में पली-बढ़ीं, प्रारंभिक शिक्षा  लखनऊ में हुई , अलीगढ़ से हाईस्कूल फिर वापस लखनऊ के आई.टी. कालेज से बी.ए. , और वहीं   विश्वविद्यालय से एम.ए. करके लन्दन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल में गईं.

कुर्रतुलऐन की  पढ़ाई के दौरान गर्मियों की छुट्टियां मुरादाबाद के   नबाबपुरा मोहल्ले में बीतती थीं   इसलिए उनके आग का दरिया उपन्यास में यह शहर भी महत्वपूर्ण किरदार बन कर उभरा है  . विभाजन के समय 1947  में कुर्रतुलऐन के परिवार के कई सदस्य पाकिस्तान चले  गए. वे लखनऊ में ही रहीं लेकिन पिता की मौत के बाद अपने बड़े भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान चली गईं गयीं. कुछ साल वहाँ रहीं , वहाँ मन नहीं लगा तो वहाँ से लन्दन जा कर स्वतंत्र लेखक व पत्रकार के रूप में वह बीबीसी लन्दन से जुड़ गईं , बाद में तथा दि टेलीग्राफ की रिपोर्टर व इम्प्रिंट पत्रिका की प्रबन्ध सम्पादक भी रहीं. 

लंदन से भारत आ गईं और यहीं की हो कर रह गईं , ख़ुशवंत सिंह से अच्छा परिचय था उन्होंने इलेस्ट्रेड वीकली की सम्पादकीय टीम में शामिल किया .  साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की वे दो बार सदस्य भी रहीं. विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में वे जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय व अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अतिथि प्रोफेसर के रूप में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से भी जुड़ी रहीं. 

आज राष्ट्रीय पर्व के दिन 

 के उपन्यास आग का दरिया के बहाने विभाजन की विभीषिका के बारे में समझना  और भविष्य में दुनिया में कहीं ऐसी त्रासदी न दोहराई जाए इस सोच के साथ इस लेखिका को याद करना उनको सही श्रद्धांजलि होगी 

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