दबे पांव आया और बीत गया : विश्व हिंदी दिवस
हिंदी भाषा को बोलने और समझने वाले लोग दुनिया में तीसरे नंबर पर हैं , उसके वावज़ूद दुनिया में ही नहीं अपने देश में भी अपने स्थान का सम्मान हासिल करने के लिए यह संघर्ष कर रही है . हर साल देश और विदेश में विश्व हिंदी दिवस दस जनवरी को मनाया जाता है . कल विश्व हिंदी दिवस आया बड़े बड़े नेताओं , कार्यपालकों , हिंदी एक्टिविस्ट ने डिजिटल मीडिया पर बधाई संदेश भेजे , शहर शहर में कवि सम्मेलन भी हुए जिनमे अधिकांश सीएसआर से प्रायोजित थे इसलिए हिंदी कवियों को लिफाफे भी मिले , हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने के कड़े संकल्प भी लिए गए. लेकिन आज से फिर वही गुड मॉर्निंग , गुडनाइट, कार्यालयों में बदस्तूर अंग्रेजी में कामकाज वापस लौट आया और अगले संकल्पों और अंतर राष्ट्रीय हिंदी दिवस कवि सम्मेलनों के लिए अगली दस जनवरी का इंतज़ार करना पड़ेगा.
किसी भी देश की पहचान उसकी अपनी भाषा से भी होती है , भारत में हिंदी ही नहीं अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ भी सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से समृद्ध हैं और उनके बोलने वालों को लगता है कि अगर हिंदी देश भर में प्रतिष्ठित हो गई तो उनके लिए लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं रहेगा . इसके लिए त्रिभाषा फार्मूला अपनाया गया था. साथ ही हिंदी को विश्व स्तर पर आगे बढ़ाने की कोशिशें आज़ादी के बाद से की जाने लगी थीं , 10 जनवरी 1949 में पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि ने हिंदी में भाषण दिया था उसी ऐतिहासिक क्षण को याद करने और वैश्विक स्तर पर हिंदी को स्थापित करने के लिए यह दिन मनाया जाता है. हिंदी भाषियों की जिम्मेवारी बहुत बड़ी है , उन्हें ग़ैर हिंदी भाषियों को साथ ले कर चलना होगा , हर हिंदी भाषी को भी कम से कम एक या दो क्षेत्रीय भाषा सीखना चाहिए ताकि उन्हें भी लगे कि उन पर कुछ थोपा नहीं जा रहा है , देश की एक समान भाषा दुनिया में हमारे राष्ट्र की पहचान है .
अंग्रेजी दुनिया भर में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है (145 करोड़ )जबकि इंग्लैंड की जनसंख्या मुश्किल से पाँच करोड़ है जबकि भारत की अनुमानित कुल जनसंख्या 145 करोड़ है और हिंदी बोलने वाले 66 करोड़ हैं . तो पहला प्रयास तो यही होना चाहिए कि देश भर के लोग इसे बोलने और समझने लगें . सचाई यह है कि जिनकी मातृ भाषा हिंदी है वे भी अपने बच्चों को अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाते हैं धीरे धीरे हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ने वालों की तादाद हाल ही के वर्षों में खूब बढ़ी है . भला हो हिंदी फिल्मों का जिनके कारण देश के अहिन्दी प्रांतों में भी काफ़ी लोग हिंदी समझने लगे हैं . कुछ और कारणों पर भी चर्चा कर लें जो हिंदी को विश्व भाषा बनने के रास्ते में बाधक हैं . विश्व की किसी भी भाषा में कोई अच्छी साहित्यिक कृति प्रकाशित होती है वह अंग्रेज़ी में जल्दी उपलब्ध हो जाती है हिंदी वालों को या तो उसके अनुवाद के लिए वर्षों बरस इंतज़ार करना पड़ता है , नहीं तो अंग्रेज़ी में पढ़ना पड़ता है . यही नहीं दुनिया भर में केवल इंग्लैंड और अमेरिका ही नहीं काफ़ी देशों में मौलिक शोध अंग्रेजी में की जाती हैं और अगर किसी दूसरी भाषा में हुई हो उसके अनुवाद अंग्रेज़ी में तत्काल उपलब्ध हो जाते हैं . यह गुण भी हिंदी को समाहित करना होगा. हिंदी में विभिन्न विषयों पर मौलिक चिंतन और शोध ( असली वाला , ख़ाली डॉक्टर डिग्री हासिल करने वाला नहीं ) भी इतना ही ज़रूरी है . दुनिया भर के जिन विश्व विद्यालयों में लोग हिंदी में डिग्री हासिल कर रहे हैं अगर उन्हें तत्काल नौकरियाँ मिलना शुरू हो जाये तो विदेशों में हिंदी के पठन पाठन में गुणात्मक परिवर्तन आयेगा. यही नहीं विदेशों में हिंदी सीखने वालों के सर्टिफिकेट प्रोग्राम के लिए मानकीकरण भी होना चाहिए जैसे अभी इंग्लैंड में जहाँ भारतीय मूल के लोगों की बड़ी संख्या है ऐसा मानक सिलेबस ही तैयार नहीं है .
हिंदी में इस समय कोई ऐसी आवर्ती पत्रिका नहीं है जिसकी प्रसार संख्या पाँच लाख से ऊपर हो बड़े प्रकाशन समूहों ने एक एक करके अपनी हिंदी पत्रिकाएं बंद कर दीं क्योंकि उन्हें विज्ञापन नहीं मिलते थे इसलिए जो कुछ भी साहित्य रचा जा रहा है वह आम पाठक तक नहीं पहुँच पा रहा है इस दिशा में भी बहुत कुछ करना बाक़ी है .
हिंदी को कविता और मंच से ऊपर उठ कर व्यवसाय , तकनीक, विज्ञान की भाषा बनना होगा मूल काम इसमें करने होंगे तभी इसकी सर्व ग्राह्यता बढ़ेगी और बिना किसी दिवस समारोह के यह उस स्थान की अधिकारिणी बनेगी जो इसका है.
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