एक ऐसे स्वामी के बारे में जरूर जानना चाहिए : स्वामी प्रणवानंद
इन दिनों प्रयाग में महाकुंभ का मेला चल रहा है जिसमें दूर दूर से साधु सन्यासी आए हुए हैं , रोचक बात यह है कि इंस्टाग्राम और ह्वाट्सऐप ऐसी रीलों की भरमार है जिसमें सड़कों पर तरह तरह से स्वांग रच कर बहुत सारे साधु संन्यासी अपने करतब दिखाते हुए दिख रहे हैं . बहुत सारे अपने अपने एजेंडा भी सेट करने में लगे हुए हैं जब कि सच्चे साधु सन्यासी प्रचार और प्रदर्शन से दूर रह कर चुपचाप अपने सकारात्मक काम और विलक्षण आचरण से समाज को नई दिशा प्रदान करते रहते हैं .ऐसे में 1982 में एक विलक्षण स्वामी से हुए परिचय की याद आ रही है .
हुआ यूँ कि सुदूर हिमालय के छोटे से क़स्बे पिथौरागढ़ में मुझे पुनेठा बुक स्टोर पर जाड़ों के कड़क मौसम में दोपहर को एक धवल सफेद वस्त्रों में एक सज्जन बैठे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पन्नों में व्यस्त दिखा करते थे , कद यही कोई पाँच तीन रहा होगा लेकिन उम्र के साथ कमर झुकने के कारण मुश्किल से चार ग्यारह दिखते थे. एक दिन उत्सुकतावश पुनेठा जी से उनके बारे में पूछा , कहने लगे, अरे आप नहीं जानते ये स्वामी प्रणवानंद हैं , ये कैलाश मानसरोवर के इलाक़े में रहते हैं जब जाड़े का प्रतिकूल मौसम हो जाता है तो कुछ महीने के लिए उतर कर यहाँ या फिर अल्मोड़ा आ जाते हैं. बात हज़म नहीं हुई क्योंकि कैलाश का पूरा इलाक़ा तो चीन के क़ब्ज़े में था और बॉर्डर पर दोनों ओर की एजेंसियों और फौज का पहरा तो फिर स्वामी जी कैसे आते जाते हैं . उत्तर था, स्वामी जी को तिब्बत और भारत के बीच के वो रास्ते भी पता हैं जो दोनों ओर की फ़ौजों को भी पता नहीं हैं .
अगले दिन , स्वामी जी मेरे ऑफिस से सटे हुए हमारे मित्र रामरक्ष पाल शर्मा जी के ऑफिस में बैठे मिले. शर्मा जी ने जो उनका परिचय दिया मैं हैरान रह गया , पता चला स्वामी जी एमएससी, पीएचडी, डीलिट किए हुए हैं और रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी के सदस्य भी है , यही नहीं कलकत्ता विश्वविद्यालय के रंगून कैंपस में ज्योग्राफी विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं , उनकी खोजी प्रवृति उन्हें धर्म और आध्यात्म के रास्ते और अंतोगत्वा सन्यास की ओर ले गई और बस इसी के साथ उन्होंने हिंदुओं , जैन और बौद्ध धर्म के सबसे पवित्र स्थल कैलाश मानसरोवर की यात्रा करनी शुरू की. पहली यात्रा में श्रीनगर से , ग्यारटोक, ज्ञानमंडी के रास्ते गए और वहाँ से कैलाश मानसरोवर की परिक्रमा करके तकलाकोट, कोछड़नाथ, चक्रमण्डी से ग्यारकोट से गुरना निति पास के रास्ते ऋषिकेश होकर वापस आए . यह उस दौर की बात है जब न तो पूरे रास्ते में सड़कें ही थीं न ही रास्ते में कोई होटल. कैलाश मानसरोवर की दूसरी यात्रा 1935 में गौमुख के रास्ते से शुरू की और इस बार जेलुखा पास,दापा, डोंगपू, सिबचिलिम, ज्ञानमंडी के रास्ते मानसरोवर झील की परिक्रमा करके चक्रमण्डी होते हुए दमजन-निति पास से गंगोत्री के रास्ते वापस आए . इन दो यात्राओं से कैलाश मानसरोवर के बारे में सुनी सुनाई भ्रांतियां दूर हुईं , अब स्वामी जी ने तय किया कि हिमालय के उन सभी रास्तों को एक एक करके खोज निकालेंगे जहाँ जहाँ से कैलाश की यात्रा संभव है . अगला रास्ता 1936-37 और 1938 में अल्मोड़ा से धारचूला , लीपू लेख पास होते हुए तय किया, इन दोनों बार वापसी भी इसी रास्ते से की. ख़ास बात यह थी कि मानसरोवर झील के दक्षिणी छोर पर अवस्थित थुग्लो मोनेस्ट्री में एक वर्ष रह कर साधना भी की.
जिस वर्ष मेरी स्वामी जी से पहली बार मुलाकात हुई तब तक वे मानसरोवर की 25 और कैलाश पर्वत की 27 प्रदक्षिणाएँ कर चुके थे , 15000 फिट की ऊँचाई पर अवस्थित दुनिया की सबसे ऊँची विशालतम मानसरोवर झील के आस पास पूरे साल जबरदस्त ठंड रहती है , लेकिन जाड़ों में तापमान शून्य से 15 डिग्री नीचे चला जाता है और स्वामी जी ने ऐसे कड़कड़ाती जाड़ों की ठंड में सात बार प्रदक्षिणाएँ भी कीं.
स्वामी जी ने आध्यात्मिक ज्ञान , तप और साधना के साथ ही इस क्षेत्र में वहाँ की वनस्पतियों , खनिजों , जीवाश्मों की सिलसिलेवार जानकारी एकत्रित की , झील की परिधि सही सही नापी सोनार किरणों से गहराई भी पता की , यही नहीं उन्होंने यह भी पता लगाया कि भारतीय उपमहाद्वीप की जिन चार नदियों का जल सबसे पवित्र माना जाता है उनका उद्गम कैलाश मानसरोवर रीजन ही है .
स्वामी जी ने जगह जगह आश्रम या मठ नहीं स्थापित किए न ही कोई चेले चपाटों की फौज तैयार की , अपनी खोजबीन को 1949 में कैलाश मानसरोवर पुस्तक में समाहित किया जो अपने समय में इस भू क्षेत्र पर लिखी गई पहली प्रामाणिक जानकारी वाली पुस्तक थी. एक रोचक तथ्य यह है कि इस पुस्तक की भूमिका जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी.
मैंने स्वामी जी से आध्यात्म के रास्ते पर आगे बढ़ने की कुछ टिप्स देने का कई बार अनुरोध किया , वे टाल देते थे , फिर एक दिन बोले इस रास्ते में किसी को गुरु बनाने का कोई लाभ नहीं है क्योंकि गुरु का अनुसरण रेत पर बने पद चिन्हों का अनुसरण करने जैसा है कुछ दूर तक उन्हें देख आगे बढ़ सकते हैं आगे जा कर हवा से वे निशान लुप्त हो जाते हैं और भ्रम की स्थिति आ जाएगी . इसलिए इस रास्ते पर अपने आप चलना बेहतर है .
स्वामी जी का निधन 107 वर्ष की आयु में हुआ लेकिन वे अपने काम से इतनी बड़ी लकीर खींच गए हैं जिसके आगे बढ़ना सहज नहीं है .
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