हर सप्ताह एक यादगार फ़िल्म : इस बार कासाब्लैंका

कैसाब्लांका : विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी अद्भुत प्रेम कथा 

एक कल अपने अंदर बैठा फ़िल्म समीक्षक एक लंबे अरसे एक बाद जाग गया और तय किया कि हर सप्ताह एक यादगार फ़िल्म देखी  जाए और फिर उसके बारे में कुछ लिखा भी जाए. इस क्रम में 1942 में रिलीज़ हुई फ़िल्म कैसाब्लांका देखी . सबसे पहली बार मैंने इसे दिल्ली के संभवत: शीला सिनेमा में 1973 देखा  था , सच कहूँ तो उस समय यह फ़िल्म पूरी तरह समझ में नहीं आई थी लेकिन इंग्रिडबर्गमैन का अभिनय विशेषकर आँखों से बहुत कुछ कह देना दिल को छू गया था . उसके बाद यह फ़िल्म कम से कम सात  या आठ बार देखी .धीरे धीरे विश्व युद्ध के संभावित ख़तरों की आहट और बाद की विभीषिका की समझ पैदा हुई साथ ही पाश्चात्य कथानक में यूनिवर्सल संवेदनाएं और उदात्त मानवीकरण इसे बार बार देखने को उकसाता रहा . एक और ख़ास बात यह कि यह फ़िल्म श्वेत श्याम फ़िल्मांकित हुई थी.  पुरानी रंगीन फ़िल्मों के प्रिंट फेड होने के कारण उनके वो गहराई और ताज़गी नहीं लगती जो आज भी इसे देख कर लगती है . 
मिशेल कर्टिस का निर्देशन इतना चुस्त है कि  पाल भर को भी स्क्रीन से आँख उठाने की इच्छा नहीं करती है , फ्रांस की कॉलोनी रहे देश मोरक्को  का  बेहद ख़ूबसूरत शहर कैसाब्लांका इस फ़िल्म का चरित्र ही महसूस होता है . अमेरिकी प्रवासी रिक ब्लेन ( हंफरी बोगर्ट) , यहाँ पर नाईट क्लब  चलाता है , इल्सा लुंड ( इंग्रिड बर्गमैन ) उसका अतीत का हिस्सा रह चुकी है अचानक उसकी ज़िंदगी  में दाखिल होती है और उसे तत्काल मदद चाहिए . रिक अजीब से संकट में पड़ जाता है : क्या वह इला और उसके पति विक्टर लस्ज़लो (पॉल हेनरिड) जो चेक बागी नेता है की नाज़ियों से भागने में  मदद करे या फिर टिक अपने व्यक्तिगत हितों को सुरक्षित रखें और अपने टूटे हुए दिल की सुने. फ़िल्म में  बोगर्ट के अभिनय को इतनी सराहना मिली कि  वह रातों रात अमेरिकी सिनेमा का पोस्टर बॉय बन गया . इंग्रिड बर्गमैन इल्सा के ऐसे रोल में  काफ़ी चर्चित हुई जो अपने प्यार और कर्तव्य के बीच फँसी हुई है. फ़िल्म में रोमांस ,साज़िश और नैतिक संघर्ष को बड़ी खूबी से गूँथ कर प्रस्तुत किया गया है . यह फ़िल्म अब तक की बेहतरीन रोमानी फ़िल्म मानी जाती है लेकिन यह विश्व युद्ध का दस्तावेज भी है , हालाँकि इसमें युद्ध का कोई दृश्य नहीं है लेकिन यह उस समय फ़िल्मांकित की गई थी जब विश्व युद्ध चल रहा था और तब तक यह भी पता नहीं था कि कौन पक्ष जीतेगा , फासिज्म पराजित होगा भी या नहीं. यही नहीं यह अब  तक की सबसे शक्तिशाली प्रेम कथा भी है जिसमे लेना कम और देना ज़्यादा कुछ है . अपने समय के हिसाब से यह फ़िल्म तकनीक की दृष्टि से इतनी अच्छी बनी थी कि उसे सहज ही आज की बनी फ़िल्मों से किसी भी मामले में कमतर नहीं दिखती , विश्वयुद्ध की बैकड्रॉप में  क्षण प्रति क्षण बदलते. माहौल और साज़िशों को बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया है . 
इस फ़िल्म का एक और सबल पक्ष इसका संगीत है जो कहीं कहानी पर चिपका या थोपा हुआ नहीं लगता बल्कि कहानी को गति प्रदान करता है . ख़ास तौर तौर पर फ़िल्म का गीत "As Time Goes By," न सिर्फ़ फ़िल्म बल्कि उस सुनहरी हॉलीवुड इरा  का गीत है , 83 साल का लंबा समय गुज़र गया लेकिन आज भी यह गीत लोगों का सबसे पसंदीदा गीत है . 
अगली बार फिर किसी ऐसी ही यादगार फ़िल्म के बारे में बात करेंगे.


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