लुप्त प्राय होती क्राप : देसी अमियाँ

देसी अमियाँ बहुत कम बची हैं 
आज से यही कोई पचास साठ वर्ष पूर्व गर्मियां आते आते पूरा सब्ज़ी बाज़ार देसी अमियों से पट जाता था , दशहरी, लंगड़ा, सफ़ेदा, चौसा , फजरी, बम्बइया आते थे लेकिन आम आदमी का फ़ोकस देसी अमियों पर होता था, जो मजा दो तीन  अमियों को  चूसने  में  आता  था  उसका  अंदाज़ा आज माज़ा आम के  टेट्रा पैक से आधा  सिंथेटिक  आधा  पल्प से  बना  जूस पीने वालों को नहीं हो सकता है.
हापुस , दशहरी, केशर उगाने से जो मोटा मुनाफा होता है उसके चलते आम की यह बेहतरीन वैरायटी लगभग एक्सटिंट होने के कगार पर पहुँच चुकी है.
भारत में आम के इतिहास को बात करें तो  यह बहुत पुराना है. अंदाज़ा यह  है  कि तकरीबन 5000 साल पहले यहाँ आम उगाए गए थे. ये  आज़  की  लुप्त प्राय होती  देसी  वैरायटी ही  रही  थी . इसके बाद कलम से  नई किस्में  विकसित  हुईं . प्राचीन  ट्रेड  रूट  से धीरे-धीरे आम एक जगह से दूसरी , दूसरी से  तीसरी जगह पहुंचते गए. 300-400 ईस्वी में आम एशिया से पूर्वी अफ्रीका और मध्य अफ्रीका के  रास्ते दक्षिण अमेरिका तक पहुंचे. और  इस  प्रक्रिया  में  आम  की  नई  नई  किस्में  विकसित  हो  गईं .
आम के पत्ते  और उसकी छाल , लकड़ी  मारत में  मांगलिक कार्यों में  लंबे  समय  से  प्रयुक्त  हो रहे  हैं . लोक कथाओं में यह भी कहा जाता है कि गौतम बुद्ध को आम का एक का बड़ा बगीचा भेंट किया गया था. जहां वह आम के पेड़ों की छांव में आराम से साधना कर सकें.
आज हम इस फल को आम कहते हैं , यह संस्कृत भाषा के आम्र शब्द से आया है. दुनिया इसे मैंगो के नाम से जानती है. वह शब्द मलयालम भाषा के शब्द मन्ना से बना है .दूर  दराज देशों  के व्यापारी मसाला व्यापार के लिए केरल के  तटों पर सैकड़ों  हज़ारों  साल  से  आ  रहे हैं वे  यहाँ  से  आम  की  पौध  ले  कर  गए , उन्होंने मन्ना शब्द को मंगा में बदल दिया. और फिर धीरे-धीरे या मंगा शब्द मैंगों में बदल गया. इसीलिए आज यूरोप और यूरोप  से  दुनिया भर  में  गया आम अब मैंगो बन  चुका है .
ऐसा नहीं  मुंबई  में  देसी आम  नहीं  मिलता , लेकिन बहुत तलाश 
के बाद हाथ  लगता  है , हमारे  इलाके  में  सुफ़ाले  गांव  से  एक  महिला  रोज़  गांवठी  सब्ज़ी  और  फल ले कर आती  है , उसके पास आज हमें दो तीन  ढेरियाँ  देसी अमियों की दिखाई दीं  , हमने  भी लपक  ली सच  अपना रसीला  दिन बन  गया 😃


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