मुरादाबाद थिएटर का एक मुसलमान सितारा जिसे हिंदुस्तान नरसी के नाम से जानता था

मुरादाबाद का एक  मुसलमान थिएटर सितारा :जिसे पूरा हिंदुस्तान  नरसी के नाम से जानता था 
         - प्रदीप गुप्ता 
मेरी उम्र 1968 में यही कोई सोलह साल साल रही थी , एक शाम  हमारे स्टेडियम रोड वाले घर में एक शानदार  शख़्सियत नमूदार हुई . बाबूजी ने उनसे परिचय कराया ,”ये मास्टर फ़िदा हुसैन हैं हिंदुस्तान के सबसे बेहतरीन थिएटर आर्टिस्ट लेकिन पूरा हिंदुस्तान इन्हें नरसी के नाम से जानता है.” 
कुछ ही दिनों पहले वे अपने सक्रिय थिएटर और फ़िल्मी कैरियर से रिटायर हो कर अपने वतन मुरादाबाद वापस आ गये थे. बाबूजी से पुरानी दोस्ती थी . उस समय उनकी उम्र यही कोई सत्तर साल थी लेकिन उन्होंने अपने कई नाटकों के डायलॉग जिस प्रभावशाली ढंग से सुनाए सचमुच ऐसा लगा मानो सामने पारसी थिएटर का स्वर्णिम युग एक शो रील  की तरह से आँखों के सामने गुज़र गया .
मास्टर फ़िदा हुसैन ने उस दिन यह भी बताया कि वे किस तरह से  थिएटर की दुनिया में पहुँचे. उनकी पैदाइश और परवरिश मुरादाबाद के एक कट्टर मुस्लिम परिवार में हुई. लेकिन उन्हें बचपन से ही गाने का शौक़ था . गाने में रुचि संभवतः शहर में समय समय पर आने वाले नौटंकी ग्रुप या फिर टूरिंग थिएटर को देख कर जागी होगी. घर का वातावरण काफ़ी परम्परावादी था , उनके पिता और ताया जी को यह गाना बजाना क़तई पसंद नहीं था , वे बताते हैं कि ताया जी से तो उन्हें गाने की वजह से बेंत से मार खानी पड़ती थी , अब्बा भी गाने के शौक़ को क़तई ना-पसंद करते थे फिर भी कभी हाथ नहीं उठाया. लेकिन उन्होंने बताया कि गाने को लेकर उनकी जितनी पिटाई की गई हो उतना ही उनकी गाने की इच्छा और बलवती हो गई. बात यहीं तक होती तो ग़नीमत होती , उन्हें नौटंकी देखते देखते अभिनय का शौक़ भी लग गया. उनके बड़े भाई ने यह देख कर अपनी पत्नी से कहा कि कुछ ऐसा किया जाये कि यह बंदा गाने की कोशिश ही न कर पाए. सो एक दिन उनकी भावी  ने उन्हें पान के बीड़े में सिंदूर रख के खिला दिया , जिससे उनकी आवाज़ ही बैठ गई जिसे वापस आने में पूरे छै महीने लगे.
उन्होंने यह भी बताया कि उनकी  आवाज़ भी एक साधु द्वारा दी गई किसी जड़ी बूटी के द्वारा रिस्टोर होना संभव हुआ. 1917 में मुरादाबाद में रामदयाल ड्रेमेटिक क्लब हुआ करता था फ़िदा हुसैन 18 वर्ष जी उम्र में इससे जुड़ गए  , पहला नाटक “शाही फ़क़ीर” था जिसमें उन्हें एक महिला कलाकार की भूमिका मिली. अपने क्लब के अध्यक्ष की संस्तुति पर उन्हें न्यू अल्फ़्रेड थिएट्रिकल में काम मिल गया , बस मौक़ा देख कर वे घर छोड़ कर भाग गये पीछे अपनी नवविवाहिता पत्नी को मुरादाबाद ही छोड़ गए , उन दिनों न्यू अल्फ़्रेड दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में “”वीर अभिमन्यु” की मंचन प्रस्तुति कर रही थी .यह थिएटर कंपनी महिला के रोल के लिए किसी महिला को नहीं रखती थी , यह काम किसी पुरुष कलाकार से कराती थी. सो प्रारंभिक दौर में फ़िदा हुसैन को महिला का रोल करना पड़ा. हुआ यूँ , मेरठ में शो  चल रहा था , दर्शकों  में एक लड़का उनके पड़ोस का था उन्हें पहचान लिया और जा कर उनके पिता को खबर दी. फ़िदा हुसैन के ससुर तो इतने नाराज़ हुए कि उनके ख़िलाफ़ एफ़आई आर दर्ज करा दी, और उनके ख़िलाफ़ वारंट जारी हो गए.
मामला उनके पिता ने इस शर्त पर रफ़ा दफ़ा किया कि फ़िदा हुसैन किसी भी क़िस्म का  नशा नहीं करेंगे , जुआ नहीं खेलेंगे , अपना आचरण ठीक रखेंगे और हमेशा अपने परिवार के संपर्क में रहेंगे. बस इस तरह उन्हें सशर्त अभिनय की अनुमति मिल गई. इसके बाद वे पूरी तरह न्यू अल्फ़्रेड कंपनी के साथ जुड़ गए. 
बातचीत काफ़ी लंबी चली बाद में वे खाना खा कर विदा ले कर चले गए. और काफ़ी सारे प्रश्न ज़ेहन में रह गए थे. अगले महीने फिर फ़िदा हुसैन घर तशरीफ़ लाए . मौक़ा पा कर मैंने उनसे कुछ और सवाल किए और वे यादों में खो गये और एक एक करके उन सवालों के उत्तर देते गए .
मेरा सवाल था कि उन्हें नरसी क्यों कहा जाता था. उन्होंने बताया ,”पण्डित राधेश्याम कथावाचक के साथ अगले बारह सालों तक ज़बरदस्त जुगलबन्दी हुई  और कम्पनी ने एक से एक सफल नाटक किए. 'नरसी मेहता' में लीड किरदार निभाने के कारण मेरे  नाम के आगे नरसी उपनाम जुड़ गया.”
उन्होंने बताया कि 1932 में फ़िल्मों में भी काम करना शुरू कर दिया - 'रामायण', 'मस्ताना', 'डाकू का लड़का' जैसी फ़िल्मों में अभिनय किया और गाने भी गाए. “मस्ताना”का एक गीत बहुत मशहूर हुआ:
जिधर उनकी तिरछी नज़र हो गई
क़यामत ही बर्पा उधर हो गई
वो फिर-फिर के देखें मुझे जाते-जाते
मुहब्बत मेरी पुर-असर हो गई
किया राज़ अफ़शाँ निगाहों ने दिल का
छुपाते-छुपाते ख़बर हो गई
किया क़त्ल चुटकी में 'आज़ाद' को भी
निगाह उनकी कैसी निडर हो गई
शब-ए-वस्ल भी दिल के अरमाँ न निकले
मनाते-मनाते सहर हो गई
फ़िदा हुसैन ने बताया कि सन्‌ 1948 में कलकत्ता आए , एचएमवी के लिए गीत रेकार्ड किए . फिर मूनलाइट जॉइन किया . उस समय मूनलाइट को चालू हुए कई साल हो चुके थे. 20 वर्षों तक मूनलाइट थिएटर, कलकत्ता में काम किया और सन्‌ 1968 में जब छोड़ा तो मालिकों ने थिएटर ही बन्द कर दिया.
दिल्ली में “नरसी मेहता” नाटक के त्तीन सौ शो हुए . शंकराचार्य जी ने भी इस नाटक को देखा और इतने प्रभावित हुए कि उन्हें नरसी का उपनाम ही दे दिया . फ़िदा हुसैन जी ने बताया , “इस नाटक को देखने डी.पी.श्रीवास्तव, सर जगदीश और जुगल किशोरजी बिड़लाभी आए थे. कितने ही लोगों ने बीस-बीस॑ मर्तबा देखा, डेढ़ सौ मेडल मिले मुझे, सोने के जो थे उन्हें लड़कियों ने निकाल लिया, पहन लिया. चांदी के पड़े रह गए. चाँदी के मेडल का मुझे क्या करना था. मैंने उन्हें गलवा दिया. चौदह सौ रुपये की चाँदी निकली. मैं कह रहा हूं, छोटी सी बात है. मेडल काम के नहीं थे. मुझे ये शौक़ नहीं था कि मेडल लगाऊं. चाँदी के कप वग़ैरह हमको मिले थे. हाँ, भरतपुर रियासत का मेडल, पटियाला महाराज का कप, बावन टौंक का मेडल और जैपुर का मेडल वो सब रखे हुए हूँ.”
अपने लंबे थिएटर केरियर में उन्होंने 300 से भी अधिक प्रोडक्शन किए जिनमें सर्वाधिक लोकप्रिय “नरसी मेहता” के अलावा  “नल दमयंती”, “यहूदी की लड़की”, “सीता वनवास”, “वीर अभिमन्यु” , “चलता पुरज़ा”, “परिवर्तन” भी बेहद लोक प्रिय हुए. 
1968 में बेशक फ़िदा हुसैन जी ने सक्रिय रंगमंच को अलविदा किया और मुरादाबाद आ कर अपने बेटों के ब्रास मैन्यूफ़ैक्चरिंग व्यवसाय से जोड़ लिया लेकिन थिएटर ने उन्हें कभी नहीं छोड़ा. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में नियमित रूप से लेक्चर, वर्कशॉप के लिए बुलाया जाता रहा . यही नहीं जब नैनीताल में रंगमंच स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी उन्हें   सक्रिय रूप से जोड़ा गया.
मास्टर साहब पूरे सौ वर्ष के हो कर दुनिया से रूखसत हुए और अंतिम दिनों तक सक्रिय रहे . संयोग से उनकी पुण्य तिथि अभी ग्यारह मार्च को बीती है.
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