लन्दन में बांग्ला देश
लन्दन में बसा है बांग्ला देश
पिछले दिनों लन्दन के पूर्वी इलाक़े में आल्डगेट के क़रीब ट्रूमैन ब्रेवरी में एक कार्यक्रम के सिलसिले में जाना हुआ .यह इमारत ब्रिक लेनमें है . ब्रिक लेन की एक किलोमीटर की सड़क को देख कर लगा लन्दन परत दर परत बहुत गहरा है , दरअसल यह संस्कृतियों के मेलमिलाप का अद्भुत संगम है . इस लेन में आ कर सच में ऐसा लगता है कि जैसे बांग्लादेश में पहुँच गये हों , काफ़ी सारी दुकानों के होर्डिंगपर अंग्रेज़ी के साथ साथ बांग्ला में भी नाम लिखे हुए हैं . इस सड़क पर सिलसिलेवार रेस्टोरेंट ही रेस्टोरेंट हैं उन से निकलने वाली महकबता रही थी कि अंदर करी पक रही है . एक हेरिटेज इमारत अब जामा मस्जिद भी बन चुकी है . साफ़ सफ़ाई की कमी भी वही भारतीयउप-महाद्वीप की मानसिकता का एहसास कराती है . लेकिन बांग्ला कला और संस्कृति की छाप यहाँ की दीवारों पर ग्रेफाटी के रूप मेंजगह जगह नज़र आती है . इस इलाक़े में कुल आबादी का एक तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा अब बांग्लादेशी मूल का है .
ब्रिक लेन धीरे धीरे करके कैसे मिनी बांग्लादेश बन गई इसके पीछे रोचक इतिहास है. कई सौ वर्षों से यहाँ ईंट और टाइल बनाने काकाम हुआ करता था इसी लिए इसका नाम ब्रिक लेन पड़ा था . विश्व युद्ध के बाद नगर में ज़बरदस्त विनाश हुआ था अर्थव्यवस्था भीकाफ़ी नीचे आ गई थी . सन् पचास के आस पास ब्रिटिश सरकार को ध्वस्त अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए बड़े स्तर पर कामगारों कीज़रूरत पड़ी , ऐसे में उसने कामनवेल्थ देशों और ख़ासतौर पर अपेक्षाकृत ग़रीब अर्थव्यवस्था के देशों के लोगों को आने के लिएप्रोत्साहित किया. यही वो समय था जब तब के पाकिस्तान के पूर्वी भाग के सिलहट इलाक़े के बेनीबाज़ार , जगननाथपुर, बिश्वनाथक़स्बों के लोग काफ़ी लोग मज़दूरी के लिए लन्दन आ गए . उन दिनों पूर्वी लंदन के डॉक्स में पुनर्निर्माण का ज़बरदस्त काम चल रहा था, और टावर हैमलेट्स का इलाक़ा डॉक्स के क़रीब था . ये प्रवासी कम पगार पर काम करते थे और यहाँ के एक एक छोटे घर में पंदरहसे बीस मज़दूर रह लेते थे . सन् सत्तर में अचानक बांग्ला लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ी , यह वो समय था जब पाकिस्तान ने अपने पूर्वीइलाक़े में जब बांग्ला लोगों पर जुल्म करने शुरू किए उस दौरान सिलहट से बहुत सारे लोग अपनी जान बचा कर अपने रिश्तेदरों और संपर्कों के कारण पूर्वी लन्दन के इस टावर हैमलेट्स में शरण लेकर आ गए. यहाँ उन्हें पनाह भी मिली और काम भी मिला , क्योंकि उनदिनों यहाँ की गारमेंट फ़ैक्टरियों में मज़दूरों की ज़बरदस्त माँग थी . बाद में भी बांग्लादेश से प्रवासियों के यहाँ आने का सिलसिला जारीरहा , आठवें और नवें दशक में भी वहाँ से कुशल और पढ़े लिखे लोग आये .
इसी के साथ धीरे धीरे टावर हैमलेट्स और विशेषकर ब्रिक लेन का सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य बदलना शुरू हो गया . इसइलाक़े में मज़दूरों के लिए जो छोटी छोटी खाने पीने की दुकानें खुली थीं उनकी शोहरत फैलनी शुरू हो गई, इन्हें करी हाउस कहा जानेलगा. आज वही करी हाउस अच्छे रेस्टोरेंट में बदल चुके हैं , इनका वाजिब दाम और अच्छा स्वाद दूर दूर के शौक़ीनों को आकर्षितकरता है .
ब्रिक लेन को विषय बना कर लेखक मोनिका अली ने 2003 में एक पुस्तक “ब्रिक लेन” लिखी थी , जिस पर 2007 में इसी नाम सेफ़िल्म भी बनी, पुस्तक को ले कर काफ़ी बवाल भी हुआ , इसकी प्रतियाँ जलाने की धमकी भी दे गई थी क्योंकि स्थानीय बांग्लासमुदाय ने आरोप लगाया था कि उनका नकारात्मक चित्रण हुआ है , यहाँ तक कि समुदाय ने ब्रिक लेन में इस फ़िल्म की शूटिंग नहींहोने दी, फ़िल्म कई अन्य लोकेशन पर शूट करके पूरी की गई. पुस्तक की नायिका नाज़नीन अट्ठारह वर्ष की उम्र में बांग्लादेश से आई हैजिसकी शादी अपने से बहुत ज्यादा उम्र के छानू के साथ हुई है , प्रारंभ में नायिका की अंग्रेज़ी थैंक यू और सॉरी तक सीमित थी , पुस्तक उस युवती के जीवन के संघर्ष और स्थानीय बांग्ला मुस्लिम समुदाय के रहाँ सहन की पड़ताल करती है. यह पुस्तक देखा जाए तोब्रिक लेन के प्रवासी जीवन का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ भी है.
ब्रिक लेन के ज़्यादातर रेस्टॉरेंट्स का संचालन और स्वामित्व बांग्लादेश मूल के लोगों का है लेकिन वे इन्हें इंडियन कहना पसंद करते हैं.
हमें अपनी ब्रिक लेन की रोचक यात्रा में जाने तक़रीबन पच्चीस ऐसे रेस्टोरेंट देखने को मिले . इनकी संख्या इतनी होने के कारणक्वालिटी और रेट को लेकर काफ़ी प्रतियोगिता रहती है . इनमें चार पाँच का विशेष ज़िक्र करना चाहूँगा . इनमें पहला नंबर निस्संदेह बंगाल विलेज का है , इसे जुबार अहमद और दो अन्य पार्टनर मिल कर चलाते हैं , यहाँ का माहौल बिलकुल पारिवारिक क़िस्म का है , ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचार पत्र गारजियन और डेली टेलीग्राफ में इसके बारे में काफ़ी तारीफ़ निकलती रहती है ख़ासतौर पर इनकीशतकारा लैंब डिश बहुत मशहूर है , इसमें मीट को ग्रेपफ़्रूट से मिलते झुलते फल शतकारा के साथ पकाया जाता है , जो सिलहट सेआता है स्वाद में खट्टा और थोड़ा कड़वापन लिए होता है .
अन्य रेस्टोरेंट में उल्लेखनीय शेबा , अलादीन, द फेमस करी बाज़ार और मानसून हैं इनके भी काफ़ी प्रशंसक हैं. अलादीन को बीबीसी नेदुनिया का सबसे बढ़िया करी हाउस बताया है.
ब्रिक लेन में बांग्ला मुक्ति आंदोलन के पितामह शेख़ मुजीबुर रहमान की स्मृति में स्मारक भी है .
बांग्लादेश के प्रवासियों की राजनीतिक ताक़त का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि टावर हैमलेट्स के मेयर लुत्फ़ुर रहमानहैं यही नहीं कौंसिल के 24 सदस्य भी प्रवासी बंगाली मूल के हैं .
ब्रिक लेन में बांग्ला समुदाय के लिए सामुदायिक केंद्र , बांग्ला एथनिक खानपान , पहनावे और संस्कृति के लिए कम्युनिटी ट्रस्ट बनानेकी योजना भी विचाराधीन है.
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