नव-गीत के सुकुमार माहेश्वर तिवारी
बात यही कोई 1979 की है , माहेश्वर तिवारी को मुरादाबाद आकर बसे हुए चंद वर्ष ही हुए थे और वे अपने नव गीतों की ख़ुशबू से जिगर साहब के वतन को सुवासित करने में लगे थे . उनका गोकुलदास कॉलेज रॉड स्थित आवास हम सभी के लिए खुला रहता था , वे बसंत पंचमी पर जब अपने घर सरस्वती पूजा रखते तो नगर के छोटे बड़े सभी साहित्यकार जमा होते , भाभी बाल सुंदरी अपने मधुर गायन के साथ ही सुरुचिपूर्ण व्यंजन भी परोसतीं .
उन्हीं दिनों हमने स्टेट बैंक में एक बड़ी काव्य गोष्ठी रखी थी जिसमें देश के जाने माने कवि आमंत्रित थे , इसके संचालन का दायित्व भाई माहेश्वर जी को सौंपा था. बैंक के स्टाफ सदस्य ही नहीं तमाम गणमान्य व्यवसायी भी इसमें आमंत्रित थे . बिना बताए माहेश्वर भाई ने सबसे पहले मुझे ही मंच पर पढ़ने के लिए आमंत्रित कर लिया , मैं मंच के लटके झटकों से तब तक परिचित नहीं था , कवि गण काव्य पाठ से पूर्व लंबी भूमिका बांधते हैं , मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया सीधे कविता पढ़नी शुरू कर दी . उत्सव जैसा माहौल था और मेरे काफ़ी सारे सहयोगी हाई स्पिरिटेड हो कर बैठे थे , ऐसे में कविता सर के ऊपर से गुज़र रही थी मेरे साथियों ने ही मुझे हूट कर दिया. एक नवोदित कवि के लिए इससे बड़ा झटका और कोई हो नहीं सकता. माहेश्वर भाई ने बाद में मुझे समझाया जब तक हूट नहीं होगे तब तक हिट होना नहीं आएगा . फिर उसके बाद से मेरे स्थानांतरण का सिलसिला शुरू हो गया. इस कारण माहेश्वर भाई से मिलने का सिलसिला टूट गया. ठीक 41 वर्ष बाद पिछली दिसंबर में मुरादाबाद में मेरे ही सम्मान में आयोजित कार्यक्रम में उनसे वापस मुलाक़ात हुई. वही सरल और निश्चल स्वभाव , सरल और रोमानी प्रतीकों से माध्यम से वर्तमान परिस्थितियों पर धारदार व्यंग , उनके नवगीतों की हाला समय के साथ और शबाब पर है , अस्सी साल से ऊपर की उम्र में भी गीतों को लेकर वही समर्पण , बहुत अच्छा लगा . ऐसा लगा जैसे वे अपने शब्दों में बांसुरी की फूँक भर देते हैं , गीतों में बिम्बों की सर्वथा नई और अछूती बात नजर आती है. उनका सतासीवाँ जन्मदिन दो तीन दिन पहले बीता है , चाहता था उन्हें जाकर और मिल कर बधाई दूँ लेकिन इस समय मुरादाबाद से साढ़े आठ हज़ार किलोमीटर की दूरी पर हूँ इस लिए संभव नहीं हो पा रहा है . उनके ही शब्दों में :
मन का वृन्दावन हो जाना
कितना अच्छा है,
तुममें ही मिलकर खो जाना
कितना अच्छा है.
उनकी दो रचनाओं का ज़िक्र करके अपनी बात समाप्त करूँगा. ये बताती हैं कि रोमानी कवि भी अगर अपने आसपास के हालत को लेकर संवेदनशील है तो वह क्या लिखेगा :
‘बर्फ होकर
जी रहे हम तुम
मोम की जलती इमारत में
इस तरह
वातावरण कुहरिल
धूप होना
हो रहा मुश्किल
जूझने को
हम अकेले हैं
एक अंधे महाभारत में'
और यह भी :
‘आसपास
जंगली हवाएँ हैं
मैं हूँ
पोर-पोर
जलती समिधाएँ हैं
मैं हूँ
आड़े-तिरछे
लगाव बनते जाते स्वभाव
सिर धुनती
होठ की ऋचाएँ हैं
मैं हूँ
अगले घुटने मोड़े
झाग उगलते घोड़े
जबड़ों में कसती बल्गाएँ हैं
मैं हूँ. ‘
इंसान की कई चेहरे लगा कर रहने की प्रवृति पर एक गहरा व्यंग :
‘जिन्हें पहन कर
बाहर निकले
वे चेहरे भारी लगते हैं
थम से गए
गीत के टुकड़े
होठों से जारी लगते हैं
लगता सब छिलके उतार के
अपने में,
अपने को पाना’.
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