विलुप्त होते व्यंग्यकार
एक नई विलुप्तप्राय प्रजाति - व्यंग्यकार
किसी भी वंचित , शोषित वर्ग या फिर किसी बड़े जाति समूह को खुश करने का सबसे सरल उपाय उनके किसी महान नेता के नाम पर किसी शहर , रोड, रेलवे स्टेशन , गली , मोहल्ले का नामकरण कर दीजिए. इसमें कोई ख़ास पैसा या श्रम नहीं लगता , रंग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा . अगर कोई व्यंग्यकार ऐसे स्थापित और खोज खोज के प्रकाश में लाये हुए उन महापुरुषों के नाम उजागर करने की रिस्क ले ले जिनके नाम पर यह महती प्रयास किए जा रहे है तो इससे असम, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र ही नहीं मणिपुर या मेघालय तक के सचेतन और संवेदन-शील लोगों की भावनाएँ इतनी आहत हो सकती हैं कि व्यंग्यकार के ख़िलाफ़ देशद्रोह जैसी गंभीर धाराओं में एफ़आईआर तत्काल दायर हो सकती हैं .
इसी लिए इन दिनों व्यंग लेख लिखने वालों की संख्या में इतनी कमी आ गई है कि अब अधिकांश समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में से व्यंग लेख के स्तंभ ही हटा लिए गए हैं. ठीक ही तो है , न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी . वैसे भी व्यंग लिखने या पढ़ने की ज़रूरत भी क्या है जब कि व्यंग का एक अलग ही क़िस्म का विद्रूप चेहरा सोशल मीडिया पर स्थापित हो गया है , जहां किसी को भी रातों रात पप्पू या गप्पू साबित करने के लिए पूरी की पूरी ट्रोल आर्मी लगी रहती है .
अब से कुछ ही वर्ष पहले तक व्यंग्यकार खरी खरी लिखते थे और मज़ा यह होता था कि व्यंग का केंद्र बिंदु व्यक्ति भी आनंदित होता था . देश की आज़ादी के अमृत काल में देश में इतनी तरक़्क़ी हुई है कि अब व्यंग्यात्मक के आलेख केंद्र बिंदु व्यक्ति की भावनाएँ आहत होती हैं या नहीं मगर सैकड़ों अन्य महापुरुषों की भावनाएँ उग्र रूप से आहत हो जाती हैं .
इन दिनों चीते , शेर या फिर अन्य जीव जंतु के लुप्त होने की भनक मिलते ही सरकारी और ग़ैर सरकारी स्तर पर उनके संरक्षण के इतने व्यापक प्रयास होने लगते हैं कि वे वापस फलने फूलने लगते हैं . लेकिन साहित्य से व्यंग लेखकों की प्रजाति तेज़ी से लुप्त होने की खबर कहीं छपी दिखाई नहीं देती है . जहां कुछ वर्ष पहले तक हर गली और मोहल्ले में व्यंगकार पाये जाते थे , जिस हिसाब से वे साहित्यिक परिदृश्य से ग़ायब होते जा रहे हैं , उस हिसाब से तो कुछ वर्षों बाद किसी कोने में इक्का दुक्का ही मिलेंगे और उनकी लेखनी की धार तेज़ करने के लिए कुछ ख़ास क़िस्म की दवा और खाद्य पदार्थ आयातित करने पड़ेंगे .
एक विनम्र सुझाव है जिस तरह संरक्षित जानवरों को बचाने के लिए उन्हें गोद लेने की मुहिम चल रही है ऐसे ही कुछ लोग व्यंग्यकारों के संरक्षण के लिए उन को गोद लेने के लिए आगे आ सकते हैं. बस इसमें एक ही जोखिम दिख रहा है व्यंग्यकार को गोद लेने वालों को भी जेल और कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पड़ सकते हैं .
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