लिटफेस्ट * लिटफेस्ट * लिटफेस्ट

* लिटफेस्ट * लिटफेस्ट * लिटफेस्ट 
आजकल लिटफेस्ट की बहार ही बहार है जिधर देखो उधर लिटफेस्ट . मुंबई , दिल्ली , लखनऊ जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित रहते तो ग़नीमत थी , भौगाँव , डुमरियागंज जैसे क़स्बों में भी आयोजित होने लगे हैं. 
साहित्यिक कार्यक्रमों की पहुँच महानगरों तक ही नहीं छोटे शहरों तक हो बहुत अच्छी बात है उसका स्वागत किया ही जाना चाहिए लेकिन वे क्या डिलीवर कर रहे हैं और किसे डिलीवर कर रहे हैं यह तो देखना ही पड़ेगा . 
पहली बात तो यह है कि अधिकांश के आयोजक का साहित्य से कोई ख़ास लेना देना नहीं है वे आत्मा और शरीर दोनों से इवेंट मैनेजर हैं उनके लिए फ़िल्मी सितारों के रंगारंग कार्यक्रम और  लिटफेस्ट  में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है . यही नहीं पूरे कार्यक्रम का बिज़नेस माडल सार्वजनिक उपक्रमों के पब्लिसिटी और सीएसआर बजट से कुछ कुछ हिस्सा बटोर लेना है , इस लिए इन लिटफ़ेस्ट में  शाल , दोशाले साहित्यकारों से अधिक उन उपक्रमों के प्रमुखों को ओढ़ाने पर अधिक बल रहता है जिनमें से ज़्यादातर के लिए इब्ने सफ़ी के जासूसी उपन्यास, सत्यकथाएँ और साहित्यिक किताबों में कोई ख़ास भेद नहीं होता है , सचमुच ग़ज़ब का साहित्यिक यज्ञ हैं ये लिटफेस्ट . 
यही नहीं कुछ लिटफेस्ट सत्ता पक्ष के एजेंडे को भी सेट करने के लिए भी आयोजित होने लगे हैं उनसे साहित्य की ख़ुशबू नहीं राजनीतिक दुर्गंध महसूस होती है,  उन्हें तो ख़ैर जाने ही दीजिए . 
अपवाद हर चीज के होते हैं अगर जानकारी में आएँ तो साझा कीजिएगा. 
अब एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि क्या इस क़िस्म के फ़ेस्ट से हमारे पाठकों की संख्या में इजाफा हो रहा है ? क्या साहित्यिक किताबों की बिक्री  बढ़ रही है ? क्या हम पाठकों की अपेक्षाओं पर खरे उतर पा रहे हैं ? अधिकतर जगहों से मंचस्थ कई सारे  साहित्यकारों की तस्वीरें तो खूब दिखाई जाती है, जिनमें से अधिकांश को साहित्यकार को साहित्यकार तो छोड़िये , गली मोहल्ले के लोग भी साहित्यकार नहीं मानते , जिनकी इन मंचों से विमोचित पुस्तकों की केवल पच्चीस या पचास प्रतियाँ छपती हैं और उनकी क्या कोई प्रति किसी बुक स्टोर तक  पहुँच  पाती  हैं जब यह प्रश्न विक्रम बेताल से पूछता है बेचारा बेताल निरुत्तर वापस पेड़ पर लटक जाता है .  
एक और बात, इन लिटफेस्ट में कितने  साहित्य प्रेमी या फिर जिज्ञासु पहुँचते हैं इस यक्ष प्रश्न का उत्तर युधिष्ठिर को छोड़िये ख़ुद यक्ष के पास भी नहीं है .
साहित्य को लोगों तक ले जाने का एक तरीक़ा यह भी है कि साहित्यकार स्वयं  जा कर स्कूल कालेज में बच्चों को अपनी रचनाएँ सुनाएँ उन्हें व्हाट्सअप के सेसपूल से बाहर निकालें . मेरे मित्र तेजेंद्र शर्मा लन्दन से हर बार विभिन्न शहरों में आ कर यही करते हैं . कई और साहित्यकार ऐसी पहल कर रहे हैं . सचमुच यही एक तरीक़ा अपनी रचनाओं की ताक़त को परखने का भी है साथ ही पाठकों की सिकुड़ती संख्या को फैलाने का भी .


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