हिंदी फ़िल्मों को गरियाना बंद कीजिए

हिंदी फ़िल्में और उनके प्रति नफरती माहौल 
इन दिनों आप हिंदी फ़िल्मों के प्रति जो नफ़रत भरा माहौल देख रहे हैं वो कोई नया नहीं है . यह दंश हिंदी फ़िल्में यही कोई साठ वर्षों से देश के भिन्न भिन्न प्रांतों में झेलती आ रही हैं . मैंने कलकत्ता में वो दौर देखा है जब हिंदी फ़िल्मों का बाक़ायदा बायकाट होता था , प्रदर्शन नहीं होने दिया जाता था . बंगाली फ़िल्म वालों को लगता था अगर हिंदी फ़िल्में प्रदर्शित करने दी गईं तो वे बंगाली संस्कृति  को बिगाड़ देंगी और बंगाली फ़िल्म उद्योग को लील जायेंगी . यही भाव चेन्नई ( भूतकाल के मद्रास) का था. क्या मजाल कि वहाँ हिंदी फ़िल्मों का प्रदर्शन हो और अगर जुर्रत की तो हिंदी फ़िल्मों के पोस्टर फाड़ने से लेकर जुलूस और धरने तक हुआ करते थे . इन्ही नफ़रतों के बीच हिंदी फ़िल्मों ने देश में और देश के बाहर बसे  भारतीय उप-महाद्वीप के प्रवासियों ( जो अपने आप को भारतीय , पाकिस्तानी, बांग्लादेशी , अफ़ग़ानी की जगह देसी कहलाना पसंद करते हैं ) के बीच अपनी जगह बनाई . सही बात तो यह है कि यूरोप और अमेरिका के रहने वाले देसी लोग हिंदी फ़िल्मों से ही अपनी पहचान करते हैं . उनके बर्थडे , एनीवर्सरी , होली - दीवाली , डांडिया सब हिंदी फ़िल्मों पर आधारित रहता है . बंगाल और दक्षिण में भी माहौल बदला है वहाँ मल्टीप्लेक्स में हिंदी फ़िल्में लगने लगी हैं. यह भी समझना होगा कि 
हिंदी फ़िल्में सिर्फ़ हिंदी भाषियों की बपौती नहीं हैं , न ही इन्हें हिंदी या उर्दू वाले चला रहे हैं . इनसे मोटा पैसा कमाने का आकर्षण  देश के कोने कोने के लोगों को चुंबक की तरह खींच कर बम्बई लाता  है , यही वजह है कि हिंदी फ़िल्मों से जुड़े स्टार, लेखक, गीतकार, संगीतकार, तकनीशियन, कामगार हिंदी भाषी कम ग़ैर हिंदी भाषी ज्यादा हैं . याद कीजिए पचासवें दशक में कलकत्ता और साठ  और सत्तर के दशक में मद्रास हिंदी फ़िल्मों के निर्माण का बड़ा केंद्र थे. हिंदी फ़िल्मों को गरियाना  दअसल भारत की अवधारणा और देश को जोड़ने के विचार को गरियाना है . हिंदी फ़िल्म उद्योग कोई उर्दूवुड या पाकिस्तानीवुड नहीं है यह अपने आप में मिनी भारत है. 
रही बात कमर्शियल फ़िल्मों के स्तर की , इस पर दुनिया भर में बहस चलती रही है और होनी भी चाहिए . लेकिन इसके लिए केवल हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को ही गरियाना ठीक नहीं है . लेकिन दक्षिण भारत की मसाला फ़िल्मों की तुलना में हिंदी फ़िल्मों को कमतर आंकना भी एक शैतानी सोच का नतीजा है . 
यही नहीं, हिंदी फ़िल्मों की देश के बाहर लोकप्रियता को लेकर इन दिनों ट्विटर और व्हाट्सऐप पर मज़ाक़ बनाए जा रहे हैं. देश के बाहर हिंदी फ़िल्मों के जुनून का मैं अनेकों बार प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ . एक क़िस्सा इंडोनेशिया के सुदूर प्रांत के वेन्युबांगी शहर का बताता हूँ , वहाँ जब मैं फ्लाइट से उतरा हैरान रह गया एयरपोर्ट का भवन नासिक के ST Bus Station से भी छोटा था , कोई खाने पीने की दुकान तक नहीं, विश्वविद्यालय से मुझे लेने के लिए आने वाले प्रोफ़ेसर और विद्यार्थी लेट हो गये थे , सड़क के पार एक मात्र चाय की टपड़ी दिखी , मैंने सोचा एक कप चाय पी जाए , चाय टपड़ी की मालकिन एक पैंसठ वर्ष की महिला थी मुझे देखते ही बोली अमिताभ बच्चन मैं कुछ समझ नहीं पाया अगला शब्द था शाहरुख़ ख़ान , मुझे समझ नहीं आया वह क्या कहना चाह रही  है , उसने शोले, ज़ंजीर, अमर अकबर एंथोनी , शहंशाह , पा, डान, कुछ कुछ होता है , स्वदेश, वीर जारा , कभी ख़ुशी कभी ग़म एक ही साँस में बोल दिए . समझ में यह आया कि वह कहना चाह रही है कि क्या  आप अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ ख़ान के देश के हो , मैं उनकी फ़ैन हूँ और उनकी ये सारी फ़िल्में देख चुकी हूँ . उसकी आँखों की चमक में देख सकता था . मैंने उससे हिंदी और फिर अंग्रेज़ी में बात करनी चाही उसे ये दोनों ही भाषा नहीं आती थीं. चलते हुए  काफ़ी के पैसे भी नहीं लिए , यह क़िस्सा किसी विदेशी महानगर का नहीं भारत से हज़ारों किलोमीटर दूर इंडोनेशिया के सुदूर प्रांत के छोटे से शहर का है . 
भारत को जोड़ने के सूत्रों पर एक एक करके नकारात्मक प्रहार करने वालों को पहचानिए उनका एजेंडा समझिए , उन्हें शर्मिंदा करिए , गणतंत्र दिवस पर एक हिंदी फ़िल्म देख कर आइये , नहीं पसंद आये तो अपने दोस्तों को यह बात ज़रूर बताइए . लेकिन किसी के कहने से नफ़रत की नाली का हिस्सा मत बनिए.




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