आख़िर ग़ैर फ़िल्मी संगीत वेंटीलेटर पर क्यों है
आख़िर ग़ैर फ़िल्मी संगीत वेंटीलेटर पर क्यों है
याद कीजिए सातवें , आठवें और नौवें दशक में ग़ैर फ़िल्मी संगीत ने फ़िल्मी संगीत के समानांतर एक अलग ही साम्राज्य स्थापित कर लिया था . इसके चलते अनूप जलोटा भजन सम्राट बन गए , जगजीत सिंह , मेंहदी हसन, ग़ुलाम अली , राजेंद्र नीना मेहता , पंकज उधास, चंदन दास , घनश्याम वासवानी, भूपेन्द्र मिताली ग़ज़ल की दुनिया के चमकते सितारे बने , उषा उत्थूप , अलिशा चिनॉय , अनाइडा, प्रीति सागर , शिल्पा शेट्टी , कोलोनियल कज़िन(शंकर एहसान लोय) , बाबा सहगल पॉप जगत पर छा गए . आख़िर क्या बात है अब ग़ज़ल, भजन , पॉप संगीत के ऐसे संग्रह क्यों नहीं आते जिन्हें सुन कर हम झूम उठें , अच्छी ग़ज़लें सुने जमाना हो गया , कुछ फड़कता हुआ पॉप संगीत सुनने को नहीं मिलता . या यूँ कह लीजिए कि ग़ैर फ़िल्मी संगीत वेंटीलेटर पर है . आख़िर ऐसा क्यों हुआ जैसे हुआ यह जानना ज़रूरी है , संगीत कंपनियाँ भी या तो आख़िरी सांसे ले रही हैं या फिर संगीत से इतर ही कुछ बेच रही हैं .
जहां इंटरनेट ने पूरी दुनिया मुट्ठी में ला दी वहीं संगीत का बड़ा अहित भी किया है आज हर संगीत प्रेमी को सब कुछ मुफ़्त में मिल जाता है तो ख़रीद कर क्यों सुनें .
संगीत बेचने के सारे परम्परागत चैनल ख़त्म होते चले गए हैं. जिस चीज को बना कर बेचने में कुछ मिलने वाला नहीं हो तो फिर उसमें भला निवेश कौन करेगा . नए सितारों को बनाने में पैसा कौन लगाएगा . फ़िल्म में संगीत इसलिए ज़िंदा है क्योंकि वह फ़िल्म के बजट का हिस्सा है. इसी लिए हाल ही के वर्षों में कोई नये जगजीत सिंह, अलिशा चिनॉय या फिर अनूप जलोटा लाइम लाइट में नहीं आ सके हैं , प्रतिभा की कोई कमी नहीं लेकिन उसे बढ़ाने और और उसकी मार्केटिंग के लिए मोटी रक़म चाहिए वो तो वही लगा सकता है जिसे निवेश की गई रक़म मय लाभ के साथ वापस आने की गारंटी हो जो अब परंपरागत चैनल से उपलब्ध नहीं है.
ऐसे में ग़ैर फ़िल्मी संगीत अब वही बनता है जो नये प्रतिभाशाली गायकों , शायरों, संगीतकारों को प्रोडक्शन हाउस तक ले जाने के लिये के लिए शो रील का काम करे . यदि साफ़ साफ़ कहा जाए जो नवोदित गीतकार , शायर , संगीतकार या फिर गायक के पैसे से बनता है , उसका कोई बड़ा मार्केटिंग नहीं हो सकता , बस ले दे कर यूट्यूब पर अगर वाइरल हो जाए तो थोड़ा बहुत पैसा बन सकता है लेकिन ऐसा चमत्कार हर दिन नहीं होता है .
ऐसे में कल मशहूर क़व्वाल साबरी घराने के स्व फ़रीद साबरी द्वारा गाये और लक्ष्मी नारायण द्वारा लिखे और संगीतबद्ध किए केशरिया गीत के वीडियो को देखा और सुना , सुन कर बहुत अच्छा लगा लेकिन मुझे देख कर यही ख़्याल आया कि अगर यह तीन दशक पूर्व आता तो इससे जुड़े लोग शायद सेलिब्रिटी बन सकते थे मगर आज के दौर में यह संभव नहीं है .
जहां इंटरनेट ने पूरी दुनिया मुट्ठी में ला दी वहीं संगीत का बड़ा अहित भी किया है आज हर संगीत प्रेमी मुफ़्त में सब कुछ सुनना चाहता है , संगीत बेचने के सारे परम्परागत चैनल ख़त्म होते चले गए हैं. जिस चीज को बना कर बेचने में कुछ मिलने वाला नहीं हो तो फिर उसमें भला निवेश कौन करेगा . नए सितारों को बनाने में पैसा कौन लगाएगा . फ़िल्म में संगीत इसलिए ज़िंदा है क्योंकि वह फ़िल्म के बजट का हिस्सा है.
ऐसे में ग़ैर फ़िल्मी संगीत अब वही बनता है जो नये प्रतिभाशाली गायकों , शायरों, संगीतकारों को प्रोडक्शन हाउस तक ले जाने के लिये के लिए शो रील का काम करे यदि साफ़ साफ़ कहा जाए जो नवोदित गीतकार , शायर , संगीतकार या फिर गायक के पैसे से बनता है , उसका कोई बड़ा मार्केटिंग नहीं हो सकता , बस ले दे कर यूट्यूब पर अगर वाइरल हो जाए तो कुछ पैसा बन सकता है लेकिन ऐसा चमत्कार हर दिन नहीं होता है .
ऐसे में कल मशहूर क़व्वाल साबरी घराने के स्व फ़रीद साबरी द्वारा गाये और लक्ष्मी नारायण द्वारा लिखे और संगीतबद्ध किए केशरिया गीत के वीडियो को देखा और सुना , सुन कर बहुत अच्छा लगा लेकिन मुझे देख कर यही ख़्याल आया कि अगर यह तीन दशक पूर्व आता तो इससे जुड़े सभी लोग सेलिब्रिटी बन सकते थे मगर अब यह संभव नहीं है .
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