Recent book read - दर्द अभी सोये हैं : अजय अनुपम
अजय अनुपम की किताब - दर्द अभी सोये हैं
-प्रदीप गुप्ता
जब मैं बारहवीं कक्षा का छात्र था , भाई अजय अनुपम हमारे हीरो होते थे . वे संभवतः एम ए में थे , वे उत्कृष्ट वक्ता हुआ करते थे , हम क्योंकि भाषण कला का कहकरा सीख रहे थे उन्हें अपना रोल मॉडल मान चुके थे , जब वाद विवाद प्रतियोगिता में बोलने खड़े होते निर्णायक अंक देने की जगह उनके विचारों के प्रवाह में खो जाते थे . कालेज़ से निकले हम सब रोटी रोज़ी के सिलसिले में इधर उधर हो गये . भाई अजय को अपनी रुचि और सिद्धहस्त कला का जॉब मिला यानि वे प्रवक्ता बन गए , मुझे पूरा भरोसा है कि वे अपने छात्रों को भी रोल मॉडल रहे होंगे .
उड़ते उड़ते खबर आती थी कि भाई अजय अच्छी कविताएँ भी लिखते हैं लेकिन सच्ची बात यह कि उन्हें सुनने और पढ़ने का अवसर नहीं मिला .
आज डाक से यहाँ अमेरिका में उनके नये संग्रह का पार्सल मिला बहुत ही अच्छा लगा , सब काम छोड़ कर एक एक करके उनके गीत पढ़ना शुरू किया , तब लगा कि उन्हें अब तक सही सही जाना ही नहीं था .
अजय जी के गीत दरअसल गीत नहीं हैं ये एक संवेदनशील बुद्धिजीवी द्वारा समाज को समझ कर उसके दुख दर्द के दस्तावेज तैयार करने की कोशिश है . इसमें टूटते परिवार हैं, राजनीतिक दुराभीसंधियाँ हैं भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबे गाँव है , महंगाई और बेरोज़गारी का दर्द भी है .
अजय भाई के इन गीतों में नैतिक मूल्यों के क्षरण, गाँव क़स्बे के परंपरागत ढाँचे में बदलाव को लेकर जो दर्द उभर कर आया है वह हैरान और परेशान दोनों करता है , ठाकुरद्वारा में लम्बे समय तक पढ़ाने के कारण उनका आस पास के गाँव से जो रिश्ता बना , वहाँ के देशज शब्द उनकी रचनाओं में स्वाभाविक रूप से आ गये हैं .
विशेष बात यह कि उनकी अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता है ज़रूर लेकिन उसे अपने साहित्य पर तनिक हावी नहीं होने दिया है . इसीलिए उनके भीतर बैठा कवि सत्ता से बार बार कड़े सवाल कर लेता है . वैसे तो मैं यही चाहूँगा कि उनकी सभी रचनाओं को ध्यान दे कर पढ़ा जाए फिर भी कुछ कुछ पंक्तियाँ नीचे दे रहा हूँ :
“जब तक पलक पलक में छिड़ता जन संग्राम नहीं
डगर डगर पर लिखा मिलेगा रस्ता आम नहीं “
“भूखे पशुओं का भी चारा मिल ने निगल लिया
सूदखोर ने आलू की खेती पर दखल किया
पंचायत का हुकुम उठाना हमको सर माथे
ताल फट गये, आग लगी गन्ने की खोई में “
“अखर रही है उस्तादों को नीम तले खटिया
चौड़ी होगी इसी महीने पैदल की बटिया”
“नई तरक़्क़ी की लहरों में जिनसे घर छूटा
आँख भिगोता बहना का रूमाल टंका बूटा”
“जब से मानवता के प्रहरी हुए राज नेता
कड़ी सज़ा केवल पर्दे पर पाते अभिनेता “
लेकिन इस सब के बीच कहीं न कहीं एक ऐसा कवि भी है जिसके मन में रोमानी कल्पनाएँ भी कुलबुलाती रहती हैं -
“तुमसे मिलना ख़ुद से मिलने भर का एक बहाना है “
“कहना चाहा जब जब कुछ भी
वाणी ने बढ़ कर होंठ सिले “
“मैं शब्द बनूँ तू स्वर लहरी संगीत समाये जीवन में
मन के सूरज की किरणों का तन की धारा में दीप जले
फूलों की महक लिए कोमल खिल जाएँ रूप उनके उजले “
इस संग्रह का संपादन बेहतरीन शाइर भाई कृष्ण कुमार नाज़ ने किया है .
प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन , हिमगिरि कालोनी, मुरादाबाद .
Comments
Post a Comment