An Ugly Truth Book Review in Hindi
हाल में पढ़ी एक ज़रूरी किताब - एन अगली ट्रूथ
-शीरा फ़्रेंकेल और सिसिलिया काँग
इस समय फ़ेसबुक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म बन चुका है जिसके ज़रिए आप अपने अनगिनत रिश्तेदारों और मित्रों से जुड़े हुए हैं , उन्हें अपनी और उनसे उनकी खबर लेते रहते हैं , अपनी ख़ुशी बाँटते हैं , अपनी रचनात्मक प्रतिभा को लोगों तक पहुँचाते हैं . कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि मानो इसके बिना आपकी ज़िंदगी कुछ बेमज़ा होती. मज़े की बात यह कि यह पूरी तरह मुफ़्त है . कभी सोच के देखिए आख़िर कोई यह सब मुफ़्त में क्यों प्रदान कर रहा है . ठहरिए आपको ज़्यादा कुछ मेहनत करने की ज़रूरत नहीं , शीरा फ़्रेंकेल और सिसिलिया काँग की पुस्तक “एन अगली ट्रूथ “ पढ़िए आपको अंदाज़ा होगा कि इस सेवा के बदले आपसे क्या कुछ लिया जा रहा है , आपकी उम्र, सेक्स, नौकरी-व्यवसाय , पहनने की आदतें , पढ़ने के शौक़ , आपकी सामाजिक और राजनीतिक विचार पूँजी सब का विश्लेषण करके विज्ञापनदाताओं , ब्रांड को बेच दिया जाता है . यही नहीं कम्पनी की सटीक एल्गोरिदम के ज़रिए आपके ऐसे पोस्ट दिखाए जाते हैं जिनमें एक ख़ास नैरटिव गढ़ा हुआ होता है जो आपके राजनीतिक सोच को बदलने की सामर्थ्य रखता है. ज़ाहिर सी बात है आपको यह सब दिखाने के लिए कंपनी विज्ञापनदाताओं से भर भर के पैसा लेती है .
आप ने अपना हैट पहने फ़ोटो डाला है तो अचानक भाँति भाँति के हैट के विज्ञापन दिखने शुरू हो जाएँगे , आपने अपने फ़ेसबुक मित्रों को अपनी शादी तय होने की ख़ुशी साझा की है तो अचानक शादी की पोशाकों , ज़ेवर , wedding - destinations, हनीमून पैकेज से लेकर गर्भ निरोधकों तक के पोस्ट दिखने शुरू हो जाएँगे . अगर आपने अपनी वैवाहिक ज़िंदगी में कुछ अवसाद के क्षण किसी दोस्त के साथ साझा किए तो मनोवैज्ञानिक सलाहकार , एडवोकेट के विज्ञापन आपकी पोस्ट के बीच में दिखेंगे , हो सकता है कुछ सलाहकारों के फ़ोन भी आ जाएँ . यहाँ तक तो ग़नीमत है , इस समय दुनिया की एक चौथाई आबादी फ़ेसबुक पर है , कोई आश्चर्य नहीं दुनिया भर के देशों में सरकार चुनने की प्रक्रिया को भी यह प्रभावित करती हो . यही नहीं अमेरिकी चुनाव में तो रूसी सरकार द्वारा समर्थित हैकर ने इस प्लेटफ़ार्म के माध्यम से अपनी तरह से दखलअन्दाज़ी करने की कोशिश की है यह अलग बात है कि जाँच में उसके सही सही प्रभाव का अंदाज़ा नहीं हो पाया .
लेखिका द्व्य ने यह पुस्तक की शोध और लिखने के दौरान में कंपनी के बहुत सारे कर्मचारियों से भी बातचीत की है , उन कर्मचारियों न्यू अपनी नौकरी को दांव पर रख कर बहुत सारे ऐसे तथ्य उजागर किए जो अभी तक ज्ञात नहीं थे. लेखिका द्व्य ने कंपनी खड़े करने वाले दुनिया के शीर्ष रईसों की क़तार में शामिल नौजवान और फ़ेसबुक के स्वामी मार्क ज़ुक़रबर्ग से भी बातचीत करने और उनका पक्ष भी जानने का प्रयास किया लेकिन उसमें वे कामयाब नहीं हुईं.
लेखिका द्व्य ने बताया है कि मार्क को कुछ नया करने की ललक थी , शुरुआत फ़ेसमेश से हुई . उसने अपने कालेज के विद्यार्थियों की आन लाइन डाइरेक्टरी और संवाद मंच बनाने से की थी जिसके लिये आइडिया उसके तीन सहपाठी दिव्य नरेंद्र , और जुड़वां भाई कैमरून तथा टेलर विंकलेवास ने दिया था . हॉर्वर्ड के विद्यार्थियों के लिए इसे विकसित करते करते ज़ुक़रबर्ग को यह प्रॉडक्ट इतना संभावना भरा लगने लगा कि अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर पूरी तरह से इसी में लग गया और ऐसा प्लेटफ़ार्म फ़ेसबुक खड़ा किया जिसमें ivy league कॉलेजों के छात्र भी जुड़ते चले गये . यह प्रयोग इतना सफल हुआ कि 2004 के अंत तक इस साइट के 10 लाख उपयोगकर्ता हो गए . इस अप्रत्याशित ग्रोथ और संभावना को देख कर 2005 में Accel ने 12 बिलियन डालर का निवेश किया , उस समय तक फ़ेसबुक का इस्तेमाल ivy league विद्यालयों से जुड़े लोग ही कर रहे थे. ज़ुक़रबर्ग का सोच इसे ऐसी आनलाइन साइट बनाने का था जिस पर लोग अपने जीवन , उम्मीदें , पसंदीदा चीजें और समाचारों को साझा कर सकें. लेकिन उस समय तक न तो ज़ुक़रबर्ग को न ही किसी और को अंदाज़ा था कि फ़ेसबुक और उससे मिलते जुलते आन लाइन प्लेटफ़ार्म अफ़वाहें और दुष्प्रचार का भी माध्यम बन जाएँगे .
लेखिका द्व्य ने लिखा है कि कम्पनी ने आपदाओं से भी पैसा बनाया है . कंपनी ने वृद्धि और लाभ को सभी चीजों से ऊपर रखा है , यहाँ तक कि उसे यह बात पता थी कि इस प्लेटफ़ार्म पर ग़लत सूचनाएँ और नफ़रती स्पीच फैल रही हैं और कंपनी उपयोगकर्ताओं की निजता का उल्लंघन कर रही है. यह सब मुद्दे पहली बार केवल इस किताब ने नहीं उठाये हैं , समय समय पर सार्वजनिक रूप से उठते रहे हैं , 2009 में बेन मेज़रिच की पुस्तक accidental billionaires आयी थी , जिसको आधार बना कर 2010 में एरोन सोरकिन की फ़िल्म the social network आई थी . लेकिन इस पुस्तक में ऐसे बहुत सारे विवरण हैं जो लोकतंत्र और समाज में सोशल मीडिया के संभावित प्रभावों का आकलन करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं . लेखिका द्व्य न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए तकनीकी विषयों की रिपोर्टर हैं और उन्होंने इस कंपनी के 17 वर्ष के पूरे इतिहास को और ख़ासकर 2016 से 2020 लेकर अमेरिकी चुनावों को लेकर खंगाला है.
पुस्तक में कंपनी पर दायर किए केसों और अमेरिका के लॉ मेकर्स के सामने ज़ुक़रबर्ग की पेशी के घटनाक्रम को भी काफ़ी रोचक तरीक़े से उजागर किया है . कम्पनी की अप्रत्याशित ग्रोथ में कंपनी की नम्बर 2 शेरिल सैंडबर्ग की भूमिका , उसके राजनैतिक और अन्य प्रभावशाली क्षेत्र में कम्पनी के लिए अवसर तलाशने को ले कर किए गए काम का विवरण भी है जो बताता है कि केवल प्रॉडक्ट का मज़बूत होना ही काफ़ी नहीं है बल्कि व्यवसाय को साधने की कला भी ज़रूरी है .
बरहाल यह किताब फ़ेसबुक के उन उपयोगकर्ताओं के लिए बहुत ज़रूरी है जो अपने जीवन से जुड़ी हर चीज को बिना कुछ सोचे समझे साझा करते रहते हैं.
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