Ghazal अक्स
अक्स - ग़ज़ल
मैं छूना चाहता था जिनको वो अब साँसें पराई हैं
मैं जिनके साथ जीता था वो अब बातें पराई हैं
क्यों तनहा सा रहा अक्सर समझ मुझको नहीं आया
मैं बैठा जब भी महफ़िल में जो अपनों ने सजाई हैं
तुम्हारा अक्स ख़्वाबों में कभी आता था जाता था
भुलाने को तुम्हें इस तरह हमने कई रातें बिताई हैं
कुछ अपने दोस्त मिल पाए बहुत दिन बाद में हमको
गले मिल के वो रोए सब और अपनी आहें सुनाई हैं
जिन्हें उँगली पकड़ कर कभी चलना सिखाया था
वक्त आया सहारे का तो सिरफ़ आँखें दिखाई हैं
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