गीतांजलि बुकर प्राप्त करने वाली हिंदी की पहली कथाकार बनी
हिंदी उपन्यास रेत की समाधि को मिला बुकर सम्मान
पहले तो मैनपुरी में जन्मी 64 वर्षीय गीतांजलि श्री को बधाई जिनके कारण हिंदी अंतरराष्ट्रीय पटल पर सम्मानित हुई है . किसी भी हिंदी लेखक की कृति को मिलने वाला यह पहला बुकर सम्मान है . कल ही भाई राकेश माथुर से इस सम्बंध में बातचीत चल रही थी .
ऐसा नहीं है कि हिंदी में पहले से या फिर अब अच्छा लेखन नहीं हो रहा है , लेकिन उसको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचने का कार्य तो प्रकाशकों का ही है . इस लिए कथाकार गीतांजलि श्री के साथ ही साथ बधाई राजकमल प्रकाशन के भाई अशोक माहेश्वरी के लिए भी बनती है जिन्होंने डेज़ी राक्वेल से इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया और इसे हिंदी इतर पाठकों के लिए उपलब्ध कराया .
पुस्तक के बारे में अपने साइटेशन में बुकर के निर्णायक प्रमुख फ़्रैंक वायने ने लिखा है ,” यह उपन्यास भारत और विभाजन पर है लेकिन चमत्कृत करने वाले ताने बाने में युवा , पुरुष, स्त्री , परिवार और राष्ट्र शामिल हैं जो एक कैलाइडिस्कोप की शक्ल अख़्तियार कर लेता है .
गीतांजलि श्री के अलावा इस साल की बुकर स्पर्धा में विश्व भर से 12 अन्य जाने माने कथाकारों की पुस्तकों को छाँटा गया था. बुकर पुरस्कार की राशि लगभग सैंतालिस लाख रुपए है जो कथाकार और अनुवादक दोनों में बंट जाएगी .
पुस्तक का सार कुछ इस प्रकार से है -
एक बूढ़ी औरत है सब अम्मा कह कर बुलाते हैं . उसका जिक्र आने के काफी देर बाद पता चलता है उसका पूरा नाम तो चंद्रप्रभा देवी है. वरना उपन्यास में ज्यादातर तो उसे अम्मा ही कहा गया है. तो होता ये है कि अम्मा ने अपने पति के निधन के बाद बरसों से पलंग पकड़ रखा है. पूरा घर लगा रहता है कि अम्मा पलंग से उठे, थोड़ा घूमे फिरे. लेकिन अम्मा ने तो जैसे प्रतिज्ञा ले रखी है कि वो नहीं उठेगी.
हां, तो अम्मा ने लंबे वक्त से पलंग पकड़ रखा है और बेटा, बहू, बेटी, पोते- सब कहते रहते हैं कि अम्मा उठ. मगर ना जी ना. वो नहीं उठती है. गठरी की तरह पड़ी रहती हैं. फिर अचानक एक दिन वो होता है जिसकी कल्पना घर के किसी सदस्य ने नहीं की थी. अम्मा उठती है और बिना किसी को बताए एक छड़ी के सहारे घर से बाहर निकल जाती है. पूरा परिवार सकते में. खोज खबर होती है. फिर अम्मा मिलती है एक थाने में. अम्मा घर लौटती है और उसके बाद बेटी के पास रहने चली जाती है. बेटी जो शादीशुदा नहीं है किंतु किसी के साथ सहजीवन बिताती है. उसके बाद तो अम्मा में कायाकल्प होने लगता है. और ये होता है रोज़ी नाम की ट्रांसजेंडर के कारण , जिसे आम बोलचाल में हिजड़ा कहा जाता है,. रोज़ी कभी कभी वेश बदलकर रज़ा मास्टर हो जाती है. दो अदाओं में एक ही शख्स. (अर्थात तीसरे लिंग या थर्ड जेंडर की चर्चा है यहां.) रोज़ी के सानिध्य में अम्मा अपने पहनावे ओढ़ावे से लेकर हर दैनिक दिनचर्या में बिल्कुल बदल जाती है. ऊर्जा से लबालब हो जाती है. उसमें नई हसरतें जागने लगती हैं. `कौऩ से बदन वाली रोज़ी के संग मां भी नई नवेली बदन हो गई.’ बेटी को भी समझ में ना आए कि ऐसा कैसे हो रहा है. वो थोड़ी घबराती भी है. लेकिन अम्मा तो आत्मविश्वास की जीवित मूर्ति बनती जाती है.
और उसके बाद जो होता है वो तो सबके लिए अकल्पनीय है. होता ये है कि ये अम्मा अपनी बेटी के साथ पाकिस्तान जाती है. बाक़ायदा पासपोर्ट वीसा के साथ. बेटे, बहू-पोतों की सहमति है लेकिन उनको मालूम नहीं कि अम्मा के मंसूबे क्या हैं. पाकिस्तान जाने के बाद ये राज़ खुलता है अम्मा यानी चंद्रप्रभा देवी का अतीत तो ये रहा है कि वो कभी चंदा हुआ करती थी और अनवर नाम के एक मुस्लिम शख्स के साथ अविभाजित भारत में उसकी शादी हुई थी. अम्मा यानी चंदा का जन्म पाकिस्तान में एक हिंदू परिवार में हुआ था लेकिन भारत-विभाजन के बाद मचे हफड़ धफड़ में कई अन्य हिंदू औरतों के साथ वो भी सरहद के इस पार चली आई. यानी हिंदुस्तान में. और हिंदुस्तान आकर यही चंदा चंद्रप्रभा देवी नाम से नई और दूसरी जिंदगी शुरू करती है.
धीरे-धीरे ये रहस्य खुलता है कि वो अपने पहले पति अनवर की खोज में पाकिस्तान गई थी. और वहीं मरने भी. और खास तरीके से मरने. पाकिस्तान जाकर और वहां सुरक्षाकर्मियों द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद वो अपनी बेटी और पुलिस वाले से कहती है कि उसे पीछे से दौड़ते हुए आएं और जोर से धक्का दें. क्यों? इसलिए कि वो धक्का खाकर पीठ के बल गिरने का अभ्यास करना चाहती है. और आखिर में जब वो गोली खाकर मरती है तो मुंह के बल नहीं बल्कि पीठ के बल ही गिरती है.
चंदा-अनवर की शादी किस तरह की थी? क्या ये प्रेम विवाह था या अदालती. ऐसे जिज्ञासुओं को बता देना जरूरी होगा कि ये दोनों की परिवारों की सहमति से हुआ अरेंज्ड मैरिज था क्योंकि तब अविभाजित भारत में 1870 में बना एक कानून इसकी इजाजत देता था. इस कानून के तहत ऐसी शादी हो सकती थी बशर्ते परिवार रजामंद हों
भारत-पाक विभाजन के प्रसंग और त्रासदी को और अधिक रेखांकित करने के लिए गीतांजलि श्री ने इस उपन्यास में इस विषय पर लिखनेवाले लेखकों और उनकी रचनाओं और चरित्रों पर आधारित एक फैंटेसीनुमा नाटकीय वृतांत भी रचा है जो दोनों देशों के वाघा-अटारी बॉर्डर पर खेला जा रहा है और जिसमें मंटो, भीष्म साहनी, इंतजार हुसैन, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, मंजूर एहतेशाम, राजिंदर सिंह बेदी, जोगिंदर पाल, बलवंत सिंह जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी के कई लेखक मौजूद हैं . अम्मा पाकिस्तानी सुरक्षाकर्मियों से सरहद की अवधारणा को लेकर बातें करती हैं. यह प्रसंग थोड़ा लम्बा खिंच गया है . यहां चंद सरहद की संकल्पना की व्याप्ति बताती है. भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने सरहद का अर्थ-संकोच कर दिया और उसे एक देश से दो दुश्मनों में तबदील कर दिया. `रेत-समाधि’ की ताना बाना यही त्रासदी है. और 1947 में हुआ भारत का बंटवारा ही नहीं, दुनिया में जब और जहां भी किसी तरह का भौगोलिक बंटवारा होता है वह मानवीय सरोकारों से रहित होता है- ये उस उपन्यास की व्यंजना है.
#Geetashri #Ashokmaheshwari #alindmaheshwari#ashokanjum#bookerprize
Comments
Post a Comment