यादें - हुल्लड़ मुरादाबादी

हुल्लड़ भाई 
कैसे शुरू करूँ हुल्लड़ भाई की यादों का सफ़र ?
बाबूजी के जी के कालेज की वार्षिक पत्रिका लाए थे मुझ से बोले इसमें ढोलवती एंड पोलवती पढ़ना , ये जिसने भी लिखी है वह बहुत सम्भावना वाला नौजवान है. बात यही कोई 68-69 की रही होगी . 
कट टू 1973 
 मेरे साथ आज़ाद नूरपुरी साहब अर्थशास्त्र में एम ए कर रहे थे,  वे अच्छे शायर थे और मुरादाबाद के स्टेशन रोड स्थित  सरकारी इंडस्ट्रीयल डिज़ाइन गैलरी के निदेशक थे , शाम को गैलरी साहित्यिक अड्डा बन जाती थी . वहाँ शहर के साहित्यकार जमा हो जाते थे , हुल्लड़ भाई भी उनमें से एक थे . तब तक वे हास्य कवि के रूप में स्थापित हो चुके थे , वहीं से उनसे दोस्ती हुई और वे मेरे लिए भाई साहब बन गए .उन्होंने  हास्य व्यंग जी एक पत्रिका हास परिहास भी निकाली थी जिसमें  मेरा कालम “पी जी विवेक की पेन्सिल से “ हुआ करता था  . हास परिहास ने हिंदी हास्य व्यंग के ख़ाली स्पेस को भरने के लिए  बहुत काम किया और नए प्रतिमान स्थापित किए . हास परिहास बंद हुई और यहअपने आप में  किसी दुर्घटना से कम नहीं था . 
बाद में हुल्लड़ भाई  मुंबई चले गए क्योंकि यह शहर प्रतिभाओं को चुम्बक की तरह आकर्षित करता था.  वहाँ के साहित्य जगत में उन्होंने जल्दी ही सम्मानजनक स्थान बना लिया , आइ एस जौहर की फ़िल्म नसबंदी में हुल्लड़ भाई में गाना लिखा था “क्या मिल गया भगवान एमरजेंसी लगा के हमारी नसबंदी करा के” जिसे प्रोडयूसर ने स्क्रीन मैगज़ीन के पूरे पेज में बतौर विज्ञापन छपवाया था , शायद हिंदी सिनेमा के इतिहास में इतना बड़ा सम्मान किसी गीत या किसी कवि को मिला हो . हुल्लड़ भाई की कविताओं का रिकार्ड  hmv ने जारी किया था वो भी देखा जाए तो ऐतिहासिक घटना थी उससे पूर्व किसी हिंदी कवि को यह गौरव हासिल नहीं हुआ था . रोचक बात यह कि उनके घर में रिकार्ड प्लयेर नहीं था उसे सुनने के लिए भाई कमलेश अग्रवाल की दुकान के बाजू वाली रिकार्ड्स की दुकान में जाना पड़ता था ! 
मुंबई ने उन्हें खूब शोहरत दी,  पैसा दिया , घर ख़रीदा बच्चों की परवरिश अच्छी तरह से की . उनका बेटा नवनीत उनके नक़्शे कदम पर कवि बना , अभिनय भी किया , दुर्भाग्य से हुल्लड़ भाई की मृत्यु के बाद ज़्यादा जीवित नहीं रहा. 
हुल्लड़ भाई से जुड़ी हुई बहुत सारी साझी घटनायें हैं ,  लेकिन पीछे एक कवि के बारे में एक सच्ची घटना इसी मंच पर साझा की थी तो उनके परिवार के एक सदस्य इतने आहत हुए कि  बस कुछ पूछिए नहीं . फिर भी हुल्लड़ भाई को लेकर दो घटनाएँ ज़रूर साझा करना चाहूँगा .
मैं एक बार किसी आफ़िशियल काम से ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहा था , उसी कूपे में हुल्लड़ भाई और उर्दू के एक मज़ाहिया शायर भी थे हम लोगों की खूब हंसी मज़ाक़ चल रही थी इसी बीच टिकट चेकर महोदय ने कूपे में प्रवेश किया , मैंने टिकट आगे बढ़ाया , हुल्लड़ भाई ने उससे कहा आप इन शायर साहब को जानते हैं बहुत बड़ा नाम हैं , उसने कहा नहीं . मजाहिया शायर की अब बारी थी उन्होंने चेकर को  कहा अरे आप हुल्लड़ मुरादाबादी साहब जैसे नामी कवि से परिचित नहीं हैं उसने ना की मुद्रा में सिर हिलाया , दोनों ने उसे अपने बीच में बिठा लिया , एक शेर इधर से और दूसरा उधर से दे दनादन , चेकर घबरा गया , बोला साहब आप माफ़ कीजिए मुझे गाड़ी चेक करनी है और अगले कूपे की तरफ़ निकल लिया , टिकट की सचाई बताने की मुझे ज़रूरत नहीं है !
मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात उनकी बेटी की शादी के रिसेप्शन में लैंडमार्क गोरेगाँव में संभवतः 2013 या 14 में हुई थी . उसके बाद क्या हुआ यह रहस्य  है उनके लैंडलाइन पर मैं जब भी फ़ोन करता था उधर से जो भी आवाज़ आती थी वह कोई अलग ही होती थी , वे कैसे हैं यह बात पता ही नहीं लग पायी , आयी तो बस उनकी मौत की ही ख़बर आयी . और दोस्तों का भी यही अनुभव रहा.

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