भीड़ में कविता

भीड़ में 


भीड़ में जब कभी भी रिल जाता हूँ 

उन पलों में मैं मैं नहीं  रह पाता हूँ . 


भीड़ के बीच ऐसा  लगने लगता है 

जैसे अपनी पहचान पिघल गयी हो  

 धर्म और भाषा की अपनी बंधी गठरी 

चन्द पलों  के लिए  खुल गयी हो 


यही वो वक़्त होता है जब अपने भीतर 

एक अलग क़िस्म की ऊर्जा  पाता हूँ 


सच पूछिए  तो मुझे लगता है 

भीड़ में होने का अन्दाज़ जुदा है 

दूसरों के जीने को  देख के 

खुश होने का अपना ही मज़ा है 


सारा  तिलिस्म उस समय छँट जाता है 

जब मैं  भीड़ से अलग हो जाता हूँ 


भीड़ यह भी एहसास दिलाती है 

मैं एक विराट स्वरूप का हिस्सा हूँ 

एक गतिशील महाकाव्य के सम्मुख 

एक अकिंचन  सा क़िस्सा हूँ 


जितनी देर भीड़ में टिका रहता हूँ 

अजब सुरूर महसूस कर पाता  हूँ 


सदियों से भीड़ समाज की शक्ति है 

ये उत्सव है ये ज़िंदगी का मेला है 

इन दिनों समाज पे भीड़ तंत्र हावी है 

वो  बहकावे से जुटाया हुआ रेला  है 


कोई भीड़ कहीं पे भीड़ तंत्र  बन जाए 

ये सोच के आपकी ही तरह घबराता हूँ 

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