समंदर - कविता
समंदर
मैं समंदर के किनारे बैठ कर यह सोचता हूँ
क्या समंदर बीच अंतस में तुम्हारे बस चुका है
शाम के साये उतरते हैं समंदर की सतह पर
आग़ोश में लेता है उन्हें जैसे तुम किया करती हो
और समंदर मेल खाता है तुम्हारे उच्छास से
जितने गहरे मैं उतरता हूँ उससे गहरा है पास से
इसकी लहरें चूमना चाहतीं तनिक आकाश को
धड़कनें भी तुम्हारी अयां करती है अनेकों राज को
मैं समंदर के किनारे बैठ कर देखता हूँ जब कभी
इसकी लहरों में बनती बिगड़ती है तुम्हारी छवि
चाँदनी जब बिखरती हैं समंदर की सतह पर
नाम लेती है तुम्हारा कान में धीरे से आ कर
और मैं तुमको बता दूँ मेरा राज़दार है समंदर
भीड़ कितनी हो मगर निरपेक्ष रहता है समंदर
इस समंदर का किनारा दूर तलक़ दिखता नहीं
और तुम्हारे प्यार का सिरा भी कहीं मिलता नहीं
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