Ghazal : गिरगिट
गिरगिट
गिरगिटें भी शर्म खाती हैं तमाशे देख कर
आस्थाओं को बदल डाला है आपने जिस पेस पर
वो हमें मामू बना के रास्ते में ही कट लिए
शर्म ज़रा दीखे नहीं है फिर भी उनके फ़ेस पर
कितनी तारीख़ें पड़ी हैं याद है हम को नहीं
फ़ीस मोटी ले रहे हैं लॉयर अब तक केस पर
बहुत सारे दिन बिताए उसने अपने जेल में
यह पता अब तक नहीं है वो गया किस बेस पर
कितनी सरदी लग रही लन्दन में आ के दोस्तों
इक रज़ाई चार कम्बल ओढ़ रखे हैं पुराने खेस पर
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