सच यह कहता हूँ : ग़ज़ल Ghazal
सच ये कहता हूँ
सच ये कहता हूँ सच कहे बिना रहा जाए नहीं
मैं क़लमकार हूँ धारा के साथ बहा जाए नहीं
अपनी बेरुख़ी अपने पास ही सम्भाल के रखना
अपनों का यह रुख़ मुझ से तो सहा जाए नहीं
किसी को दर्द मैं देखूँ तो उसकी मदद ज़रूर करूँ
अपने दर्द सहा करता हूँ किसी से कहा जाए नहीं
यह तो मानूँ हूँ मैं कि हर बात अदब से की जाए
किसी को खुश करने को मुझ से झुका जाए नहीं
इक अजनबी ने मिरी ज़िन्दगी बदल के रख दी है
तब से न जाने क्यों मिरा हाथ दुआ में उठा जाए नहीं
हालात कुछ ऐसे हैं कि लोग सिल के मुँह बैठ गए
मगर चंद लोग हैं जिनसे चुप हो के बैठा जाए नहीं
तमाम कोशिशें साज़िशें करके लोग हार गए
मगर मेरे ख्यालों से उसका नाम मिटा जाए नहीं
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