ग़ज़ल - फ़क़ीर
फ़क़ीर
जिस लज्जते आमेज से घबरा के कई लोग बन गए थे फ़क़ीर
उसी ऐशो-आराम की चाहत में कुछ लोग बन रहे हैं फ़क़ीर
किस तरह हम ओढ़ लें , बिछा लें , खा लें या पी लें इनको
आप के झोले में तो हमारे लिए अब केवल बची हैं तक़रीर
नगद माल , बंगला , इम्पाला जुटा लिया हाल ही के वर्षों में
अगर नहीं बचा है पास में केवल और केवल अपना ज़मीर
बनना चाहते हो राजा , बहुत ही आसान सी है मेरी
तदबीर
दूसरों से अलग हो जाओ और अपने इर्द गिर्द खींच लो लकीर
अपने भाषण में बहुत कहते थे बदलने को समाज की तस्वीर
समाज की तस्वीर धुंधली हुई है, हाँ, बदल गयी है उनकी
तक़दीर
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