Hindi Poetry बिल्डिंग के क़द

जैसे जैसे बिल्डिंगों के क़द ऊँचे होते गए 

रहने वाले लोगों के दिल छोटे छोटे होते गए 


जब तलक रहते थे हम इक चाल में 

अभाव थे फिर भी  बहुत खुशहाल थे 

छोटी छोटी ख़ुशियाँ मिलती थीं वहाँ 

उनसे ही हम बहुत मालामाल थे 

दरवाज़ा सब के लिए खुला रहता था 

रहने वालों के चाहे जैसे भी हाल थे 

छिपाने के लिए वहाँ कुछ नहीं था 

 ही वहाँ झूठ या कोई जंजाल थे 


चालों में रहे तो ज़िन्दगी को क़रीब से देख लिया 

नफ़ासत  आई हो भले अस्सल ज़िन्दगी जीते गए 


साथ में सब खेलते और साथ में पढ़ते थे 

हरेक दिन वहाँ कुछ ख़ास हुआ करता था 

थक के जम जाते थे जिस भी घर में

खाना उसी घर में साथ हुआ करता था

समझ वहीं आए मौसीचाचीताई के रिश्ते 

सर पे उन पड़ोसनों का हाथ रहा करता था

ऐसा भी नहीं सब कुछ सामान्य वहाँ पे था 

लड़ते थे झगड़ते थे पर मनमुटाव नहीं होता था 


फ़्लैट में जब से आए हैं बस निजता में खोते गए 

पता नहीं क्यों यहाँ लोगों के दिल छोटे होते गए 


फ़्लैटों  के दरवाजे तो हमेशा  बंद दिखे हैं 

चेहरा कोई मुश्किल से ही  नज़र आए 

बातें करना तो सच में बहुत दूर की बातें हैं 

हाय हेलो में भी कंजूसी सी नज़र आए 

हर एक की ईगो यहाँ आकाश चढ़ी है 

फिर किस तरह आपस में संवाद नज़र आए 

फ़्लैट तो पैसे से ख़रीद लिया है लेकिन 

पैसे से लोग संस्कार  ख़रीद नहीं पाए 


मेरे  फ़्लैट में तो आज भी मेरी चाल ही बसती है 

खुला दरवाज़ा है पड़ोसी कैसी भी टिप्पणी करके गए 



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