हिंदी साहित्य में शोध (?) Research In Hindi Literature

हिंदी साहित्य में शोध (?)
जब से उच्च कक्षाओं में अध्यापन के लिए एम फिल और डाक्टरेट की अनिवार्यता हुई है तब से लेकर यदि स्वीकृत शोध प्रबंधों की गुणवत्ता पर एक सरसरी निगाह डालेंगे तो पाएँगे कि इनका स्तर गटर नहीं रसातल की ओर जा रहा है क्योंकि न तो शोधार्थी को लीक से अलग हट के कुछ खोजना है न ही उसके गाइड को इस कार्य में अपना समय लगाना है . पूरी प्रक्रिया का एक मात्र लक्ष्य डाक्टर का तमग़ा हासिल करना है ताकि अध्यापन का जॉब किसी न किसी तरह मिल जाए . 
कोई हैरानी नहीं आपको ‘ तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में प्रवासी दर्द ‘, ‘प्रदीप गुप्ता की कविताओं में करोना काल के बयान’, ‘देवमणि पांडेय की ग़ज़लों में हिंदी शब्द ‘ , ‘अनिल रंजन भौमिक के नाटकों में आज़मगढ़ की सड़कें ‘ , ‘भारतेन्दु विमल के उपन्यासों में देह व्यापार गालियाँ’ जैसे स्वीकृत शोध प्रबंध विश्वविद्यालयों के तहख़ानों में धूल चाटते हुए मिल जाएँ , उन्हें न कोई प्रकाशक छापने को तैय्यार होगा न ही कोई ख़रीदेगा . एक आध सम्माननीय अपवाद छोड़ कर यही सचाई है .
गाइड ऐसे विषय शोधार्थी को सुझाने  के लिए राज़ी नहीं जिससे साहित्य में कुछ नयापन जुड़े या किसी समृद्ध परम्परा के बारे में पता चल सके क्योंकि इस में दोनों को ही श्रम करना होगा , कट पेस्ट से काम नहीं चल पाएगा. 
यह सब मुझे इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि हमारे लोक गीतों , प्रहसनों और कथाओँ की समृद्ध आंचलिक परम्पराएँ हैं और उन पर बहुत काम करना बाक़ी है . यदि गम्भीरता से इन पर काम किया जाए तो साहित्य में बहुत कुछ जुड़ सकता है. हाल ही के मुरादाबाद प्रवास में दस से चौदह वर्ष के बच्चों से टेसू झाँझी के गीत सुनने को मिले. सैकड़ों हज़ारों सालों से पित्र-पक्ष में शाम के समय लड़के टेसू और लड़कियाँ झाँझी लेकर घर घर जा कर ये गीत सुनते हैं . खड़ी बोली के इन गीतों की परम्परा का उद्गम खोजा जाए और इन गीतों को लिपिबद्ध किया जाए  तो शिशु गीतों का एक बेहतरीन ख़ज़ाना हाथ लग सकता है . यह छोटा सा विडियो मैंने मुरादाबाद में रेकार्ड किया था जो टेसू झाँझी के गीतों की समृद्धि का अंदाज़ा देने के लिए पर्याप्त है :

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