भूख : एक कविता
भूख
यह पेट की भूख भी अजीब है
मंदिर मस्जिद ,
हिंदू मुसलमान ,
यहूदी ईसाई ,
क़ब्रिस्तान शमशान ,
सवर्ण और दलित
के शोर गुल में इतनी दब जाती है
ये ख़्याल ही नहीं रहता
कई दिनों से पेट में
भूख के हिसाब से
अन्न का ग्रास नहीं पहुँचा है .
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पैसे की भूख भी ख़ासी बड़ी है
जितना खीसे में पैसा आता है
यह उतनी ही और बढ़ती जाती है
सच तो यह है अगर एक बार
पैसे की भूख ज़ोर से लग गयी
मन पसंद खाना के लिए
चिकित्सक रोक लगा देता है
इसके बढ़ते ही बढ़ते जाते हैं दवा दारू के खर्चे
चश्मे के नम्बर बढ़ जाते हैं
हृदय से लेकर किडनी और दाँतों के
प्रत्यारोपण की बारी आ जाती है
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एक और ग़ज़ब की भूख है
जिसे शोहरत का नाम दिया जाता है
जितनी इसे मिटाने की कोशिश की जाती है
उतनी और बढ़ जाती है
अपने सम्मान में अपने पैसे से अभिनंदन ग्रंथ
अपने नाम से साहित्य सम्मान
अपने नाम से खेल स्पर्धा , चषक
मुशायरों , कवि सम्मेलनों की सदारत
अपने नाम की कोई सड़क (गली भी चलेगी )
अपने पैसे से किसी चौराहे पर अपना बुत
इतना सब कुछ करने के बाद भी
कुछ तो रीतापन सा लगता है
क्योंकि शोहरत की भूख अनादि-काल से जारी है
और सारी भूख पर भारी है
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