दीप का बयान
रात का अंतिम प्रहर है
तिमिर में डूबी डगर है
मैं अकिंचन दीप हूँ
इस तिमिर से लड़ रहा हूँ
देह मेरी जल रही है
स्नेह थोड़ा सा बचा है
फिर भी संकल्पित हृदय से
मार्ग रौशन कर रहा हूँ .
रात का अंतिम प्रहर है
कोहरे का टूटा क़हर है
कितने दीपों ने किया है फ़ैसला
वे तिमिर से सीधे लड़ने को बचेंगे
उनका कहना है उजाला दिन भर
मुफ़्त ही मिलता रहा है
क्या ज़रूरी राह रौशन करना वो भी रात में
स्नेह बाती बचा रखी है अगली पीढ़ी के लिए.
रात का अंतिम प्रहर है
स्वार्थ का फैला ज़हर है
भावना है गर कुछ कर गुजरने की
अपने लिए नहीं दूसरों के वास्ते
तब तिमिर को हराने के लिए
दीप कुछ जगमग कर रहे खुद को जला के
ऐसे दीपों से सुरक्षित लोग हैं
लम्बी सर्द रात के घुप्प अंधियारों में
रात का अंतिम प्रहर है
कितना अलसाया शहर है
Comments
Post a Comment