मैं रुका नहीं

मैं रुका नहीं 

घने जंगलों में 

खुली वादियों में 

जेठ जैसी दोपहरी

प्रचंड आँधियों में 

पहाड़ों के बीच 

नदियों के क़रीब 

सागर किनारे 

आस्था के सहारे 


मैं रुका  कहीं थका भी नहीं 

चलता रहा सिर्फ़ चलता रहा 


रात भर का सफ़र 

शाम का हो प्रहर 

दिन के उजाले 

आस्था के सहारे 

कभी दोस्तों के संग 

इंद्र्धनुषी रंग 

दिल में उमंग 

बन के मलँग 

मैं झुका भी नहीं मैं बिका भी नहीं 

सिर्फ़ चलता रहा सिर्फ़ चलता रहा 


रिचाओं में तैरा

अजानों में डूबा 

यासना को बोला 

भजनों में खोजा

धूनी रमाई

साम भी गाई 

तसबीह फेरी 

जागर में बैठा 

मगर मेरा रस्ता बिल्कुल अलग था 

अकेला ही उसपे चलता रहा 


लोग मिलते गए 

साथ चलते हुए

कुछ दूर तक चले 

कुछ किनारे हुए

कुछ ने सम्बल दिया 

कुछ ने कम्बल दिया 

कुछ ने आशय दिया 

कुछ ने आश्रय दिया 

मैं निर्विकार हो कर चलता रहा 

चलता रहा सिर्फ़ चलता रहा 






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