दिन गुलमोहर Hindi Poetry
दिन गुलमोहर रात चंपई अब तो बीती बातें हैं
ख़ाली ख़ाली दिन पसरे हैं सूनी सूनी रातें हैं
जो कुछ घटा भयावह था इन बीते सारे मासों में
दुख भी काँप गए हैं इतना वो भी अब घबराते हैं
शायद ही ऐसा घर निकले जिसने दंश न झेला हो
इस आफ़त का नाम लिया तो बच्चे भी डर जाते हैं
जिन पे नाज़ हमेशा से था वो ख़ामोश छुपे बैठे थे
अब जब कुछ बेहतर लगता है करते लम्बी बातें हैं
सम्बन्धों की डोर न जाने क्यों कच्ची हो जाती है
कितना बुरा लगे है हमको जब अपने आँख चुराते हैं
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