4G के दौर में लैंडलाइन फोन के युग की बात
4G के दौर में लैंडलाइन टेलीफ़ोन की याद
इन दिनों दूरभाष 4G से 5G पर छलांग लगाने की प्रक्रिया में है . अभी तो 4G पर ही हैं और लोग बाग रात दिन मोबाइल से चिपके रहते हैं . ऐसे माहौल में लैंडलाइन फ़ोन के स्वर्णिम युग की बात करना कुछ कुछ ऐसा ही लगता है जैसे किसी ड्रीमलाईनर में बैठे हुए बरसों पहले गाँव में बैलगाड़ी यात्रा को याद कर लिया जाए . यह सही है आज के हाईएंड माडल मोबाइल के सामने पुराने जमाने के लैंड लाइन फ़ोन सुगमता और कुशलता में कहीं ठहरते ही नहीं हैं . हक़ीक़त यह है की लोगों ने लैंडलाइन फ़ोन कटवा दिए हैं .लेकिन उस दौर में किसी के घर में फ़ोन लगा होना अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी.
हमने इसी बम्बई शहर में वो दौर भी देखा है जब उपनगरों में पूरी बिल्डिंग में मुश्किल से तीन चार फ़ोन हुआ करते थे. जिसके घर में फोन होता था उसके साथ सम्बन्ध बनाना बिल्डिंग के बाक़ी लोगों के लिए बड़े फ़ख़्र की बात होती थी . पूरी बिल्डिंग के लोगों को दूसरे शहरों में बसे अपने रिश्तेदारों से बात करने का एक मात्र ज़रिया यही फोन होते थे . उस दौर में विदेश में काम करना बहुत बड़ी बात समझी जाती थी . दुबई से लेकर यूरोप तक फैले रिश्ते-नाते से सम्बन्धों का पुल बिल्डिंग के ये इक्का दुक्का फ़ोन ही जोड़ पाते थे .
सन अठासी में 72 फ़्लैट वाली बिल्डिंग में केवल एक फ़ोन था , उन दिनों सामान्य श्रेणी में मलाड के इलाक़े में प्रतीक्षा सूची 6 बरस लम्बी थी . हमारी पत्नी ने पत्रकार कोटे में आवेदन किया बस तीन महीने फ़ोन आ गया , पूरा परिवार ख़ुशी से उछल पड़ा , लगा दोस्तों और रिश्तेदारों से संवाद सुलभ हो जाएगा और बिल्डिंग के लोगों के बीच अपना रुतबा बढ़ जाएगा .
आगे की घटनायें बताएँगी कि हमारी यह ख़ुशी कितनी क्षणिक थी . शाम को आफिस से जब घर पहुँचा , दरवाजे पर बिल्डिंग के यही कोई बीस पच्चीस लोग खड़े हुए थे . मन घबरा गया पता नहीं घर में कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी . जैसे ही क़रीब पहुँचा लोगों ने मुझे बधाई देना शुरू कर दिया , बच्चे दोनों बड़े हो गए थे , तीसरे का कोई चांस नहीं था . फिर काहे की बधाई ? हुआ यूँ कि टेलीफ़ोन विभाग के लोग दोपहर में हमारे घर तक लाइन खींच गए थे , यह सूचना पूरी बिल्डिंग में आग की तरह फैल गयी थी . अभी इंस्ट्रुमेंट भी नहीं लगा था लेकिन ये सब हमारा नम्बर माँगने के लिए आए थे . अगले हफ़्ते हमारा कनेक्शन चालू हुआ .
जैसे ही पहली घंटी बज़ी ऐसा लगा जैसे जलतरंग बज गयी हो , हमने लपक कर रिसीवर उठाया आख़िर लगने के बाद पहली काल थी . कलकत्ता से कोई मेहनतानी बोल रहे थे , इससे पहले कि हम उन्हें रांग नम्बर बोलें उन्होंने बोला ,’ गुप्ताजी , हम आपकी बिल्डिंग के सी विंग के केशवानी जी के साले हैं , उनसे अर्जेंट बात करनी है , उन्हें बुलवा दीजिए प्लीज़.’ यानि हमारे रिश्तेदारों और दोस्तों से पहले हमारा नम्बर बिल्डिंग वालों के रिश्तेदारों के पास पहुँच गया . बेटे को केशवानी जी को बुलाने के लिए भेजना पड़ा . केशवानी जी आए अपने साले से बात की , साथ ही चाय भी पी कर गए. बस सिलसिला चल निकला , आने वाली कालों में हमारी तो एक आध ही होती थीं , बाक़ी सारी बिल्डिंग वालों की . शुक्रवार को ज़्यादातर काल दुबई से होती थीं , रविवार को यूरोप से . घर के बाहर लाइन लगी रहती थी.
एक दिन तो हद हो गयी . हम अपनी माता जी से बात कर रहे थे, ए विंग के वर्मा जी बिना किसी घोषणा के आ धमके , कहने लगे, ‘ गुप्ता जी , आप थोड़ी देर के बाद बात कर लेना . मेरी एक अर्जेंट काल आने वाली है.’
कई बार तो यह इच्छा करती थी कि फ़ोन कनेक्शन कटवा दें , सिलसिला चार साल तक चला फिर अचानक एक्सचेंज की केपिसिटी कई गुना बढ़ गयी , प्रतीक्षारत सारे कनेक्शन प्रदान करने का सिलसिला शुरू हुआ , उसके साथ ही हमारी परेशानी का अंत हुआ . आज दिन रात लोग कान में मोबाइल लगा कर घूमते रहते हैं , मोबाइल पर आने वाली काफ़ी सारी काल अनावश्यक ही होती हैं , उस दौर में एक ही फ़ोन कनेक्शन कितने ही लोगों और परिवारों के ज़रूरी संदेशों के लिए काम किया करता था .
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