Hindi Ghazal इन दिनों घर पे ही हूँ
इन दिनों घर पे ही हूँ कब किधर जाता हूँ मैं
इन दिनों घर पे ही हूँ कब किधर जाता हूँ मैं
जब कभी साँकल बजे फिर से डर जाता हूँ मैं
इस महामारी ने छीना आशियाँ मुझ से मेरा
कतरा कतरा टूट के पल में बिखर जाता हूँ मैं
चीर अंधियारा तनिक सा फूट उठ्ठेगी किरन
इन उम्मीदों के सहारे फिर संवर जाता हूँ मैं
अब तो मिलती है जभी भी रास्ते में वो मुझे
उसका परतों में छुपा चेहरा न पढ़ पाता हूँ मैं
भूख केवल पेट की होती नहीं आला हुज़ूर
आपसे सम्मान पा कर फिर निखर जाता हूँ मैं
- प्रदीप गुप्ता २६.११.२०२०.
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