Film Review Gulao Sitabo
गुलाबो सिताबो अमिताभ और आयुष्मान जैसे बड़े सितारों से लैस और शूजित सरकार जैसे बेहतरीन निर्देशक की फ़िल्म है . लाक डाउन के चलते ओटीटी प्लेटफार्म पर स्ट्रीम होने वाली बड़े बजट की पहली फ़िल्म बन गयी है . प्राइम विडियो पर आज से प्रदर्शित फ़िल्म की रफ़्तार सुस्त है कहानी का बिल्डअप होने में बहुत समय लगा है , इसी कारण आज से यही कोई पंद्रह सोलह साल पुरानी डाक्यूमेंट्री फ़िल्म लगने लगती है .
लेकिन मुझे इस फ़िल्म की तीन प्रमुख बातों ने प्रभावित किया है - डिटेलिंग की दृष्टि से इसका जबाब नहीं .
शूजित की फ़िल्मों में शहर भी एक बड़ा कैरेक्टर होता है, यह फ़िल्म भी कुछ भिन्न नहीं , लखनऊ का किरदार बाक़ी किरदारों पर भारी है , लखनवी का अतीत और उसमें नए जमाने की आहट एक दस्तावेज की तरह है , कथा लेखक और निर्देशक ने कलाकार लखनऊ और उसके आस पास से लिए हैं .
भाषा को शहर से जोड़ने की कोशिश बड़ी ईमानदार लगती है , लखनऊ की एक दम खाँटी ज़ुबान है जिसमें परम्परागत बालीवुड का बंबय्यापन एकदम ग़ायब है , आंचलिकता इस फ़िल्म की खूबी बन गयी है.
फ़िल्म में परम्परागत नाच गाना नहीं है , जो भी गाना है वह बॉलीवुड के फ़ारमेट से बहुत अलग बैकग्राउंड स्कोर के रूप में इस्तेमाल किया है और वो भी आंचलिक टच लिए हुए हैं . अमिताभ बच्चन बूढ़े और जर्जर हो रहे नवाबी शहर के बिगड़ेल मिर्ज़ा शेख़ के कैरक्टर के अंदर समा गए हैं , पर मेकअप इतना भारी न भी होता तो चल सकता था आयुष्मान हमेशा की तरह आम युवा बाँके के रूप में जमे हैं. पूरी फ़िल्म का फ़ोकल पोईँट फ़ातिमा बेगम के रूप में फ़ारूख ज़फ़र हैं .
और वैसे भी लाक डाउन में नई फ़िल्म रिलीज़ ही कहाँ हो रही हैं , लखनऊ की ज़ुबान में कहें तो - खाओ तो कद्दू से न खाओ तो कद्दू से !
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