Reading Challenge Locked Down अख़्तर शीरानी और उनकी शायरी - सं. प्रकाश पंडित
Reading Challenge : Day Twelve
अख़्तर शीरानी और उनकी शायरी - सं. प्रकाश पंडित
कई मित्रों ने कल Fooled By Randomness
पुस्तक की समीक्षा पढ़ कर मेसेज किया कि कुछ हल्का फुल्का भी हो जाय तो मैंने अपनी बुक शेल्फ से अख़्तर शीरानी पर प्रकाश पंडित को पुस्तक निकाली तो आज पेश है एक बेहद रोमानी शायर के बारे में .
उर्दू शायरी में अख़्तर शीरानी का वही मक़ाम है जो अंग्रेज़ी में Keats और Shelly का रहा है .
अख़्तर टोंक रियासत में १९०५ में जन्मे , नाम रखा गया मोहम्मद दाऊद खान. उर्दू की तालीम अपनी चाची जान से मिली फ़ारसी मौलवी साबिर अली शाकिर से सीखी , शायरी का चस्का उन्ही से लगा . ९ साल बाद उनके वालिद इंगलैंड से आए तो उन्होंने अख़्तर को पहलवान बनाने का फ़ैसला किया , रोज़ अखाड़े में उतरने का सिलसिला चल निकला . बाद में अब्बू लाहौर के ओरीएंटल कालेज में प्रोफ़ेसर बन गए उधर अख़्तर की पढ़ाई भी शुरू हो गयी , पढ़ाई के साथ शायरी करने लगे , जब वह कलाम पढ़ता तो लोग दीवाने बन जाते इसी लिए मुंशी फ़ाज़िल से आगे पढ़ाई नहीं हो सकी .
अख़्तर की शायरी केवल यौवन के सौंदर्य और उसके लालित्य की शायरी है। सुन्दर रंगों और सुन्दर सपनों की शायरी। वह पूरे संसार को अपने विचारों और भावनाओं में रंगा हुआ देखता है। प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उसे अनुभव होता है कि प्रकृति के दृश्य उसकी आंतरिक भावनाओं से प्रभावित हैं। यदि वह उदास है तो ओस में नहाई हुई कलियां उसे उदास नज़र आती हैं और यदि वह प्रसन्न है तो मुर्झाये हुए फूल भी उसे मुस्कराते नज़र आते हैं। सामाजिक परिस्थितियों से अलग-थलग उसकी शायरी एक ऐसे निश्चिंत तरुण का भावावेग प्रस्तुत करती है, जो अंधे कामदेव के नेतृत्व में केवल सौंदर्य और प्रेम के राग अलापता है। वह नारी की सुन्दरता पर केवल आसक्त ही नहीं, उसका पुजारी भी है और उसके लिए मर मिटने को अपना सौभाग्य समझता है।
पुराने जमाने में उर्दू शायरी को शे’र कहने के लिए केवल एक माशूक़ की आवश्यकता होती थी और यह आवश्यकता तवायफ़ (वेश्या) से अधिक कोई पूरी न कर सकता था। उस तवायफ़ के अनगिनत आशिक़ होते थे। अतएव हर आशिक़ दूसरे आशिक़ को रक़ीब (प्रतिद्वन्द्वी) मानकर रक़ीब और माशूक़ दोनों को कोसता और अपनी विवशता पर आंसू बहाता रहता था। ‘अख़्तर’ ने अपनी प्रेयसी के चुनाव के लिए कोठों की ओर नहीं, धरती की ओर देखा। अतएव उसे प्रेयसी मिली, उसके पहलू में पत्थर की बजाय दिल था, दिल में कोमल भावनाएं थीं; जिसे शायर से प्रेम था और जो अपना प्रेम प्रकट भी करती थी। उसके प्रेम में अगर कोई बाधक हुआ तो वह रक़ीब नहीं समाज था।
‘अख़्तर’ शीरानी को उर्दू का सबसे बड़ा रोमांसवाद शायर कहा जाता है क्योंकि नारी को और उसके कारण प्रेम और रोमांस को अपना काव्य-विषय बनाने वाले आधुनिक उर्दू-शायर आंतरिक (Subjective) अनुभूतियों के साथ-साथ बाह्य (Objective) प्रेरणाओं को भी अपने सम्मुख रखते हैं। सामाजिक प्रतिबन्धों से घबराकर संसार से निकल भागने या कोई और संसार बसाने की इच्छा करने की अपेक्षा वे सामाजिक प्रतिबन्धों को तोड़ने और इसी संसार को स्वर्ग-समान बनाने पर उतारू हैं, और साथ ही अंधे कामदेव को भी आंखें प्रदान कर रहे हैं।
शायरी के अतिरिक्त, उस ज़माने में कुछ समय तक उसने उर्दू की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘हुमायूँ’ के सम्पादन का काम किया। फिर 1925 ई. में ‘इन्तिख़ाब’ का सम्पादन किया। 1928 ई. में रिसाला ‘ख़यालिस्तान’ निकाला और 1931 ई. में ‘रोमान’ जारी किया और उसके बाद कुछ समय तक स्वर्गीय ताजवर नजीबाबादी की मासिक पत्रिका ‘शाहकार’ का सम्पादन भी किया .
वर्ड्सवर्थ की लूसी और कीट्स की फैनी की तरह उन्होंने भी ‘सलमा’ नामक नारी का रूप देकर अमर बना दिया, जो उनके मित्र वास्ती के अनुसार एक वास्तविक सुंदरी थी—जिसके प्रेम में शायर के दिल से नग्मे फूट निकले।
अख़्तर ने अपने आप को शराब में डुबो दिया था , शुरू में शराब पी बाद में शराब ने उसे पी लिया. उसकी मृत्यु के बाद उसके बक्से से चंद पांडुलिपियों और हसीनों के खतूतों के अलावा कुछ न निकला।
जाते जाते अपनी रचनाओं के आठ संग्रह उर्दू साहित्य प्रेमियों के लिए छोड़ गए , ‘फूलों के गीत’, ‘नगमा ए हरम’, ‘सुबह बहार ‘, ‘लाला ए तूर’, ‘तयूरे आवारा ‘. ‘शहनाज़ ‘, ‘शहरूद’ और ‘अख़तरिस्तान’ जो उर्दू साहित्य की अमानत बन चुके हैं.
ग़रज़ ‘अख़्तर’ की सारी ज़िंदगी का ये खुलासा है
कि फूलों की कहानी कहिये, शोलों का बयाँ लिखिये
मैं कुछ पसंदीदा चीज़ें इस संग्रह से आप के साथ साझा कर रहा हूँ :
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता;
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता;
तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद;
बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता;
वो अगर आ न सके मौत ही आई होती;
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता;
ज़िन्दगी कितनी मुसर्रत से गुज़रती या रब;
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता;
अज़मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें;
अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता;
कोई हम-दर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर';
दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता
——————-
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए;
रात दिन सूरत को देखा कीजिए;
चाँदनी रातों में एक एक फूल को;
बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए;
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर;
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए;
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर;
चाँदनी रातों में रोया कीजिए;
हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे;
क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए;
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर;
इस तरह हम को न रुसवा कीजिए
अख़्तर का एक रंग इश्क़ मुश्क से अलग भी था उसका एक नमूना पेश कर रहा हूँ :
ओ देस से आने वाला है बता
ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में हैं यारान-ए-वतन
आवारा-ए-ग़ुर्बत को भी सुना
किस रंग में है कनआन-ए-वतन
वो बाग़-ए-वतन फ़िरदौस-ए-वतन
वो सर्व-ए-वतन रैहान-ए-वतन
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में
मस्ताना हवाएँ आती हैं
क्या अब भी वहाँ के पर्बत पर
घनघोर घटाएँ छाती हैं
क्या अब भी वहाँ की बरखाएँ
वैसे ही दिलों को भाती हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वतन में वैसे ही
सरमस्त नज़ारे होते हैं
क्या अब भी सुहानी रातों को
वो चाँद सितारे होते हैं
हम खेल जो खेला करते थे
क्या अब वही सारे होते हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी शफ़क़ के सायों में
दिन रात के दामन मिलते हैं
क्या अब भी चमन में वैसे ही
ख़ुश-रंग शगूफ़े खिलते हैं
बरसाती हवा की लहरों से
भीगे हुए पौदे हिलते हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
शादाब-ओ-शगुफ़्ता फूलों से
मामूर हैं गुलज़ार अब कि नहीं
बाज़ार में मालन लाती है
फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं
और शौक़ से टूटे पड़ते हैं
नौ-उम्र ख़रीदार अब कि नहीं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या शाम पड़े गलियों में वही
दिलचस्प अँधेरा होता है
और सड़कों की धुँदली शम्ओं पर
सायों का बसेरा होता है
बाग़ों की घनेरी शाख़ों में
जिस तरह सवेरा होता है
ओ देस से आने वाले बता
और चलते चलते उनकी एक बहुत ही नाज़ुक सी ग़ज़ल :
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
रात दिन सूरत को देखा कीजिए
चाँदनी रातों में इक इक फूल को
बे-ख़ुदी कहती है सज्दा कीजिए
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर
चाँदनी रातों में रोया कीजिए
पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए
हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे
क्यूँ किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए
आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें
आप ही इस का मुदावा कीजिए
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर
इस तरह हम को न रुस्वा कीजिए
अख़्तर शीरानी और उनकी शायरी - सं. प्रकाश पंडित
कई मित्रों ने कल Fooled By Randomness
पुस्तक की समीक्षा पढ़ कर मेसेज किया कि कुछ हल्का फुल्का भी हो जाय तो मैंने अपनी बुक शेल्फ से अख़्तर शीरानी पर प्रकाश पंडित को पुस्तक निकाली तो आज पेश है एक बेहद रोमानी शायर के बारे में .
उर्दू शायरी में अख़्तर शीरानी का वही मक़ाम है जो अंग्रेज़ी में Keats और Shelly का रहा है .
अख़्तर टोंक रियासत में १९०५ में जन्मे , नाम रखा गया मोहम्मद दाऊद खान. उर्दू की तालीम अपनी चाची जान से मिली फ़ारसी मौलवी साबिर अली शाकिर से सीखी , शायरी का चस्का उन्ही से लगा . ९ साल बाद उनके वालिद इंगलैंड से आए तो उन्होंने अख़्तर को पहलवान बनाने का फ़ैसला किया , रोज़ अखाड़े में उतरने का सिलसिला चल निकला . बाद में अब्बू लाहौर के ओरीएंटल कालेज में प्रोफ़ेसर बन गए उधर अख़्तर की पढ़ाई भी शुरू हो गयी , पढ़ाई के साथ शायरी करने लगे , जब वह कलाम पढ़ता तो लोग दीवाने बन जाते इसी लिए मुंशी फ़ाज़िल से आगे पढ़ाई नहीं हो सकी .
अख़्तर की शायरी केवल यौवन के सौंदर्य और उसके लालित्य की शायरी है। सुन्दर रंगों और सुन्दर सपनों की शायरी। वह पूरे संसार को अपने विचारों और भावनाओं में रंगा हुआ देखता है। प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उसे अनुभव होता है कि प्रकृति के दृश्य उसकी आंतरिक भावनाओं से प्रभावित हैं। यदि वह उदास है तो ओस में नहाई हुई कलियां उसे उदास नज़र आती हैं और यदि वह प्रसन्न है तो मुर्झाये हुए फूल भी उसे मुस्कराते नज़र आते हैं। सामाजिक परिस्थितियों से अलग-थलग उसकी शायरी एक ऐसे निश्चिंत तरुण का भावावेग प्रस्तुत करती है, जो अंधे कामदेव के नेतृत्व में केवल सौंदर्य और प्रेम के राग अलापता है। वह नारी की सुन्दरता पर केवल आसक्त ही नहीं, उसका पुजारी भी है और उसके लिए मर मिटने को अपना सौभाग्य समझता है।
पुराने जमाने में उर्दू शायरी को शे’र कहने के लिए केवल एक माशूक़ की आवश्यकता होती थी और यह आवश्यकता तवायफ़ (वेश्या) से अधिक कोई पूरी न कर सकता था। उस तवायफ़ के अनगिनत आशिक़ होते थे। अतएव हर आशिक़ दूसरे आशिक़ को रक़ीब (प्रतिद्वन्द्वी) मानकर रक़ीब और माशूक़ दोनों को कोसता और अपनी विवशता पर आंसू बहाता रहता था। ‘अख़्तर’ ने अपनी प्रेयसी के चुनाव के लिए कोठों की ओर नहीं, धरती की ओर देखा। अतएव उसे प्रेयसी मिली, उसके पहलू में पत्थर की बजाय दिल था, दिल में कोमल भावनाएं थीं; जिसे शायर से प्रेम था और जो अपना प्रेम प्रकट भी करती थी। उसके प्रेम में अगर कोई बाधक हुआ तो वह रक़ीब नहीं समाज था।
‘अख़्तर’ शीरानी को उर्दू का सबसे बड़ा रोमांसवाद शायर कहा जाता है क्योंकि नारी को और उसके कारण प्रेम और रोमांस को अपना काव्य-विषय बनाने वाले आधुनिक उर्दू-शायर आंतरिक (Subjective) अनुभूतियों के साथ-साथ बाह्य (Objective) प्रेरणाओं को भी अपने सम्मुख रखते हैं। सामाजिक प्रतिबन्धों से घबराकर संसार से निकल भागने या कोई और संसार बसाने की इच्छा करने की अपेक्षा वे सामाजिक प्रतिबन्धों को तोड़ने और इसी संसार को स्वर्ग-समान बनाने पर उतारू हैं, और साथ ही अंधे कामदेव को भी आंखें प्रदान कर रहे हैं।
शायरी के अतिरिक्त, उस ज़माने में कुछ समय तक उसने उर्दू की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘हुमायूँ’ के सम्पादन का काम किया। फिर 1925 ई. में ‘इन्तिख़ाब’ का सम्पादन किया। 1928 ई. में रिसाला ‘ख़यालिस्तान’ निकाला और 1931 ई. में ‘रोमान’ जारी किया और उसके बाद कुछ समय तक स्वर्गीय ताजवर नजीबाबादी की मासिक पत्रिका ‘शाहकार’ का सम्पादन भी किया .
वर्ड्सवर्थ की लूसी और कीट्स की फैनी की तरह उन्होंने भी ‘सलमा’ नामक नारी का रूप देकर अमर बना दिया, जो उनके मित्र वास्ती के अनुसार एक वास्तविक सुंदरी थी—जिसके प्रेम में शायर के दिल से नग्मे फूट निकले।
अख़्तर ने अपने आप को शराब में डुबो दिया था , शुरू में शराब पी बाद में शराब ने उसे पी लिया. उसकी मृत्यु के बाद उसके बक्से से चंद पांडुलिपियों और हसीनों के खतूतों के अलावा कुछ न निकला।
जाते जाते अपनी रचनाओं के आठ संग्रह उर्दू साहित्य प्रेमियों के लिए छोड़ गए , ‘फूलों के गीत’, ‘नगमा ए हरम’, ‘सुबह बहार ‘, ‘लाला ए तूर’, ‘तयूरे आवारा ‘. ‘शहनाज़ ‘, ‘शहरूद’ और ‘अख़तरिस्तान’ जो उर्दू साहित्य की अमानत बन चुके हैं.
ग़रज़ ‘अख़्तर’ की सारी ज़िंदगी का ये खुलासा है
कि फूलों की कहानी कहिये, शोलों का बयाँ लिखिये
मैं कुछ पसंदीदा चीज़ें इस संग्रह से आप के साथ साझा कर रहा हूँ :
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता;
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता;
तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद;
बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता;
वो अगर आ न सके मौत ही आई होती;
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता;
ज़िन्दगी कितनी मुसर्रत से गुज़रती या रब;
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता;
अज़मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें;
अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता;
कोई हम-दर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर';
दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता
——————-
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए;
रात दिन सूरत को देखा कीजिए;
चाँदनी रातों में एक एक फूल को;
बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए;
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर;
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए;
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर;
चाँदनी रातों में रोया कीजिए;
हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे;
क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए;
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर;
इस तरह हम को न रुसवा कीजिए
अख़्तर का एक रंग इश्क़ मुश्क से अलग भी था उसका एक नमूना पेश कर रहा हूँ :
ओ देस से आने वाला है बता
ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में हैं यारान-ए-वतन
आवारा-ए-ग़ुर्बत को भी सुना
किस रंग में है कनआन-ए-वतन
वो बाग़-ए-वतन फ़िरदौस-ए-वतन
वो सर्व-ए-वतन रैहान-ए-वतन
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में
मस्ताना हवाएँ आती हैं
क्या अब भी वहाँ के पर्बत पर
घनघोर घटाएँ छाती हैं
क्या अब भी वहाँ की बरखाएँ
वैसे ही दिलों को भाती हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वतन में वैसे ही
सरमस्त नज़ारे होते हैं
क्या अब भी सुहानी रातों को
वो चाँद सितारे होते हैं
हम खेल जो खेला करते थे
क्या अब वही सारे होते हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी शफ़क़ के सायों में
दिन रात के दामन मिलते हैं
क्या अब भी चमन में वैसे ही
ख़ुश-रंग शगूफ़े खिलते हैं
बरसाती हवा की लहरों से
भीगे हुए पौदे हिलते हैं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
शादाब-ओ-शगुफ़्ता फूलों से
मामूर हैं गुलज़ार अब कि नहीं
बाज़ार में मालन लाती है
फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं
और शौक़ से टूटे पड़ते हैं
नौ-उम्र ख़रीदार अब कि नहीं
ओ देस से आने वाले बता
ओ देस से आने वाले बता
क्या शाम पड़े गलियों में वही
दिलचस्प अँधेरा होता है
और सड़कों की धुँदली शम्ओं पर
सायों का बसेरा होता है
बाग़ों की घनेरी शाख़ों में
जिस तरह सवेरा होता है
ओ देस से आने वाले बता
और चलते चलते उनकी एक बहुत ही नाज़ुक सी ग़ज़ल :
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
रात दिन सूरत को देखा कीजिए
चाँदनी रातों में इक इक फूल को
बे-ख़ुदी कहती है सज्दा कीजिए
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर
चाँदनी रातों में रोया कीजिए
पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए
हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे
क्यूँ किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए
आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें
आप ही इस का मुदावा कीजिए
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर
इस तरह हम को न रुस्वा कीजिए
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