बदलते भारत की चुनौतियों को उजागर करती फ़िल्में

बदलते भारत की तस्वीर : चेंज चित्र 
कोई भी समाज तभी आगे बढ़ सकता है जब समाज  के जागृत लोग उसे आइना दिखाते रहें और जगह जगह होने वाले सकारात्मक परिवर्तनों का लेखा जोखा भी प्रस्तुत करते रहें . ऐसा ही कुछ कुछ विडियो वालंटियर्स नाम का एक एनजीओ देश के भिन्न भिन्न प्रांतों में करने में लगा हुआ है. 
कल विडियो वालंटियर्स ने समाज में व्याप्त असंगतियों और उनको बदलने की कोशिशों के बारे में बनी लघु फ़िल्मों का एक प्रदर्शन चेंज चित्र के माध्यम से किया. इनमें से कुछ का उल्लेख मैं यहाँ करना चाहूँगा . 
‘मंगलामुखी’ उत्तर प्रदेश के नेपाल से सटे पाडरोना क्षेत्र के काँची और गुड्डी दो ट्रान्सजेंडर की ज़िंदगी में झांकती है जो जीवन यापन के लिए घर घर बच्चों के जन्म आदि पर नाच गा कर पैसा कमाने के लिए मजबूर हैं , उन्हें कदम कदम पर अपने बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है , मसलन वे पढ़ने जाते हैं तो उन्हें स्कूल में उपहास का पात्र बनना पड़ता है  , बैंक में इस लिए खाता नहीं खोल सकते क्योंकि फ़र्म में सेक्स के विकल्प में स्त्री और पुरुष ही होता है . उत्तर प्रदेश की अर्पिता सिंह , मोहम्मद जीशान , मोहम्मद रागिव और माधुरी चौहान द्वारा शोध के बाद बनी यह फ़िल्म ट्रान्सजेंडर के बारे में समाज को सोचने पर मजबूर करती है . 
दूसरी ओर मराठी, हिंदी और अंग्रेज़ी भाषाओं में शूट की गयी फ़िल्म ‘किनारापट्टी’ मुंबई के हज़ारों कोलियों और उनके मछली व्यवसाय पर आए संकट के बारे में है , किस तरह बहुमंजली इमारतों के निर्माण के लिए किए गए क़ानूनी और ग़ैर क़ानूनी भूमि हड़प अभियान के कारण उनकी संस्कृति , व्यवसाय और जीवन शैली ख़तरे में पड़ चुकी है . माहिम, जहु वरसोवा के कोली किस तरह अपनी जीवन शैली , व्यवसाय को बचाने की कोशिश कर रहे हैं .
तेलगी में बनी अवलोकनम गाँव में शहरीकरण की घुसपैठ के बारे में है , जो उसके प्रभाव से अपने आप को बचाते हुए और संघर्ष करते बकरी पालक और एक किसान के बीच की बातचीत पर केंद्रित है , उस शहरी कारण , सीमेंट के बनाए घरों से गाँव के ताप में परिवर्तन , समय पर बारिश न होने जैसे मुद्दों को धीरज और सिध्धार्थ ने बहुत ही ख़ूबसूरती से उठाया है .
तमिलनाडु के चेन्नई शहर में किस तरह से सड़क पर बाल श्रमिक के रूप में संघर्ष करते करते और जाति और सेक्स भेदभाव के दंश को झेलती एक लड़की किस तरह से फ़ुट्बॉल खेलते खेलते एक अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी बन जाती है , इस की प्रेरणादायी कथा  ‘मेड इन मद्रास’ में दिखायी गयी है . 
एक और फ़िल्म ‘अन-सीजेरिअन’ में पड़ताल की गई है कि महज बिल बढ़ाने के लालच में कुछ चिकित्सक किस तरह से एक सामान्य हो सकने वाले प्रसव को सीजेरियन आलीशान के ज़रिए करते हैं . फ़िल्म में की गई पड़ताल से पता चलता है कि बम्बई की एक धन कुबेरों की बहुमंज़िला इमारत में ९८ प्रतिशत प्रसव सीजेरियन हुए हैं ! दीप्ति वशिष्ठ , जोय सैमसन, रायन फेनेलान लाब की यह फ़िल्म दिखाती है कि परम्परागत रूप से प्रसव करने वाली दाइयाँ आज भी बिना एपीदुरियल जैसी प्रक्रिया अपनाए बिना ही स्वभाविक प्रसव कर देती हैं .
मुझे लगता है ये फ़िल्में अगर व्यापक फ़िल्म दर्शक वर्ग तक पहुँच सकें तो समाज में   सकारात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया जरा  तेज हो सकती है .




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