Hindi Poetry एक बुझा हुआ शोला........


एक बुझा हुआ शोला.
बहुत अरसे से अपने आप से एक सवाल किया करता था 
इश्क़ रूहानी होता है या जिस्मानी 
पर उत्तर नहीं मिल पाया था .
सोचा , जिसे बचपन में चाहा था उससे मिल के देखूँ 
शायद उत्तर मिल जाय 
ज़िन्दगी के साथ साल के सफ़र में 
मेरे बचपन की चाहत कहाँ खो गई 
यह ज़िन्दगी के संघर्ष में पता ही नहीं चला .
वो दिन भी क्या दिन थे 
उसे देख कर भोर की उजास जगती थी 
उसकी खिलखिलाहट से जैसे घाटी महक ज़ाती थी 
उसका स्पर्श झरने से आने वाली फुहार  जैसा लगता था 
अगर किसी दिन न दिखती तो कोहरे की परत जम जाती थी 
पर अपने पैर पर खड़ा होने की जिद में 
गाँव से भाग कर क़स्बा , क़सबे से शहर, शहर से महानगर , 
वहाँ से सात समुन्दर पार 
बस वो कहानी अधूरी ही रह गई.
उस दौर में अगर सोशल मीडिया होता तो शायद कहानी अलग तरीक़े से लिखी जाती .
लेकिन फ़ेसबुक पर खोजबीन करते करते अचानक एक दिन वो नज़र आ गयी 
हिम्मत करके फ़्रेंडशिप निवेदन किया
अगले ही दिन वो फ़्रेंड लिस्ट में जुड़ गयी 
व्यवसाय के सिलसिले में मैं उसके शहर में था 
सोचा उसे मेसेज कर के देखूँ 
कई दिन ऊहपोह में निकले फिर मेसेज किया. 
वो कोस्टा काफ़ी में मेरे सामने थी 
पके बाल पर डाई की परत चढ़ी साफ़ दिख रही थी 
चश्मा चढ़  चुका था , चेहरे की झुर्रियों को एजिंग क्रीम से
छुपाने की नाकाम कोशिश करी गई थी 
चश्मा अपने भी चढ़ चुका था झुर्रियाँ भी दिखने लगी थीं .
मैं उसे देखता रह गया प्रेक्टिस की थी 
मगर कोई डायलाग मुँह से फूट ही नहीं पाया 
उसकी भी यही हालत थी .
फिर भी मैं उसके चेहरे में उसके बचपन को 
और अपनी  चाहत को साफ़ साफ़ देख पा रहा था 
यक़ीन करना , हम दो घंटे लगातार ऐसे ही संवादहीन बैठे रहे 
और फिर अपने अपने रास्ते वापस हो गए.  
मुझे पता है 
मैं ही नहीं वो भी बहुत कुछ कहना चाहती थी . 
बाद में महसूस हुआ  कि
जिस्म की चाहत कीमियागारी है  
दिल से दिल के बीच जुड़े होते हैं रुहानियत के तार 
बस इन दोनों के मेलमिलाप से 
इश्क़ जन्म लेता है 
और बस जाता है रोम रोम में 
इसे कहने सुनने की ज़रूरत नहीं पड़ती है ..

                                  -प्रदीप गुप्ता 

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