A Hindi Poem Written In A Hospital

कई बार आपको अपनी हद तय करनी पड़ती है
कुछ समय के  लिए अपने यायावर मन को देना पड़ता है विश्राम
चलते चलते क़दम सहसा ठिठक जाते हैं
अस्पताल के बेड से आपको देखना पड़ता है एक मुट्ठी आकाश
खिड़की के बाहर घास पर चलती गौरैया बन जाती है आपकी सहचर
तेज़ हवा से सरसराती घास की जीवंतता आप को कुछ और जीने को कहती है
जब धूप सामने के घने पेड़ पर आ कर थक ज़ाती है
पक्षी आ कर उस पेड़ पर बसेरा करने के लिए इधर उधर से एक एक कर के आ जाते हैं
तो लगता है चलो थोड़ी देर नींद ले ली जाय
सुबह प्रकाश की पहली किरण
फ़ूलों पर बिखरती है
तो इस बेड तक चंपई उजाला आ जाता है
यार्ड में कठफोडवे के लगातार पेड़ पर चोंच मरने की आवाज घड़ी की टिक टिक लगती है
कुल मिला कर ऐसा लगता है जैसे जीवन का चक्र चल रहा है
और मैं जल्द ही लम्बे सफ़र पर चल पड़ूँगा !
( अस्पताल में भरती एक मित्र के लिए )
शब्द तथा छाया प्रदीप गुप्ता

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