Ode to Small Town मेरा क़स्बा

अब कसबे में नहीं बचा मेरा क़स्बा 
याद बड़ी शिद्दत से आता मेरा कस्बा 

जिसमें रौनक रहती अजब निराली थी 
प्यार पगी लगती थी बुढ्ढों की गाली भी 

गली गली के बड़े सभी ताऊ होते  थे 
पास पडोसी लड़के अपने भाई होते थे 

जहाँ कहीं ढोलक पे थापें लगती थीं 
वहीँ रात को अपनी महफ़िल जमती थीं 

हुक्का मेरे दादा जी का क्लब सरीखा था 
झुण्ड बुजुर्गों का आ के वहीँ पे जमता था 

दीपावली होली के रंग भले ही कच्चे थे 
एक दूसरे से सब दिल से मिलते थे 

ईद दशहरे में कोई भेद नहीं लगता था 
सेवँई और जलेबी से दस्तरखान सजता था 

पैसा कम था मगर जरुरत भी कम रहती थीं 
जरा ज़रा सी  खुशियों में भी मस्ती रहती थी 

धीरे धीरे कसबे पर बाज़ार हो गया हावी 
मंहगे मंहगे सामानों से सज गईं दुकानें सारी 

ले के लोन घरों में चमक दमक फिर आई 
लेकिन जेबों पर हावी होने लगी ई एम् आई 

भागा कसबा पैसे के पीछे जीवन जटिल हुआ 
मस्ती और ख़ुशी का आलम धुआं  धुआं हुआ 

कंचे,गिल्ली-डंडा अब तो कहीं नज़र नहीं आता 
मोबाइल पर उंगली नाचें बाकी समझ  नहीं आता

टीवी और मोबाइल ने घर घुस्सू हमें बना डाला 
हुक्का क्लब , पान गुमटी पर अब कोई नहीं आता  

क़स्बा महानगर का अब तो  टुकड़ा बन कर जीता है 
बरसों पहले की रवायत  से इसका आँचल रीता है.... 

                                            -प्रदीप गुप्ता    


  




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