इतिहास को धता बताते सोशल मीडिया के गढे नैरेटिव

इतिहास को धता बताते सोशल मीडिया के गढे  नैरेटिव

कहते हैं व्हाट्सप विश्वविद्यालय और फेसबुक शोध संस्थान पर भारत में पिछले चार पांच वर्षों में इतिहास के जितने पृष्ठ जोड़े गए  हैं उतने तो अभी तक विश्व भर  के इतिहास पर भी नहीं रचे गए होंगे।
हमारे मोहल्ले के 88  वर्षीय बजुर्गवार साथी टेक चंद विस्मित हैं, वो बताते हैं कि अगर इन सोशल मीडिया इतिहास के पृष्ठों को स्वयं इतिहास के पात्र  पढ़ लें तो उन्हें  संदेह होने लगेगा की वे पैदा भी हुए थे या नहीं !

अभी कल की ही तो बात है पाकिस्तान के प्रधान मंत्री  इमरान खान ने मिलाद-उल-नबी के सिलसिले में आयोजित कार्यक्रम में अपनी मजेदार खोज पेश कर दी , माननीय का मानना है कि मानव इतिहास में जीजस क्राइस्ट का कोई उल्लेख नहीं है. हालांकि यह और बात है कि उनके द्वारा दिया गया ज्ञान लोगों को हजम नहीं हुआ और सोशल मीडिया पर ही उनकी अच्छी खासी क्लास लग गयी.

लेकिन आज से 2000 से लेकर 5000 वर्ष पहले के इतिहास के बारे  हो सकता है कि इतिहास पुरुषों के बारे में साक्ष्य आधे अधूरे उपलब्ध हों इस लिए कुछ वाद विवाद हो सकता है लेकिन बीते सौ डेढ़ सौ  वर्षों की राजनैतिक घटनाक्रम और राजनैतिक चरित्रों के ऊपर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगें तो समझ लीजिये कि बीमारी बेहद गंभीर है और अपनी जद  में पूरे समाज को जकड लेगी।

मैं मूलत: व्यंग लिखता हूँ पर उन लोगों पर व्यंग नहीं करुणा उपजती है जो अपनी बीमार मानसिकता के चलते पूरे समाज को बीमार करने की कोशिश कर रहे हैं ,

पिछले  दिनों व्हाट्स अप  विश्वविद्यालय और फेसबुक संस्थान पर मुझे जा कर पता लगा कि भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मणिपुर की काबो वैली की ११,००० वर्ग मील जमीन बर्मा  को भेट कर दी और वहां उसी के साथ एक प्रश्न भी दागा हुआ था कि क्या यह जमीन उनके बाप दादाओं की थी जो उन्हें भेंट कर दी. जाहिर सी बात है की इसे पढ़ कर  लोगों की निगाह में नेहरू विलेन बन जाएंगे।  पर हकीकत क्या है प्रथम १८२४-२६ के एंग्लो-बर्मा युद्ध के बाद बर्मा ने मणिपुर ब्रिटिश हुकूमत को सौंप दिया लेकिन सीमा रेखा को लेकर विवाद रहा , ब्रिटिश पूरी काबो वैली  पर अपना अधिकार जमाते रहे , १८३० में ब्रिटिश ने काबो वैली इस लिए छोड़ दी क्योंकि ऐतिहासिक रूप से यह वैली मणिपुर का भाग नहीं रही थी !

नए इतिहास पुरोधाओं का दावा है कि ओमान के सुलतान सईद बिन तैमूर ने १९५० में ग्वादर पोर्ट भारत को उपहार के रूप में देने का प्रस्ताव किया था लेकिन नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया, नतीजतन  सुलतान ने पाकिस्तान को बेच दिया , अब पाकिस्तान ने इसे चीन के हवाले कर दिया है , चीन इसके जरिये भारत की नौसैनिक गतिविधियों पर निगाह रख सकेगा और इसके जरिये अफ्रिका तक पहुँच सकेगा । सचाई यह है कि  ग्वादर ओमान मुख्य भूमि से काफी अलग था, लेकिन वह पाकिस्तान के दक्षिण पश्चिम में था , इस लिए ओमान ने इसे पाकिस्तान को ३० करोड़ डालर में बेच दिया ,अगर यह सच भी हो कि ओमान ने ऐसा कोई प्रस्ताव पहले भारत को दिया था , तो भी पाकिस्तान से सटे होने और अपनी मुख्य भूमि से दूरी के कारण भारत के लिए उसे सैटेलाइट पोर्ट के रूप में  १९५० में संचालित करना संभव ही नहीं था.

एक ऐसा ही गढ़ा हुआ सच सोशल मिडिया पर घूम रहा है कि १९४७ में भारत की आजादी के बाद  तत्कालीन प्रधानमंत्री  मात्रिका प्रसाद कोइराला ने भारत  में विलय का प्रस्ताव किया था लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया , सचाई यह है कि इस प्रस्ताव के बाद नेपाल के भिन्न भिन्न भागों में इसके विरोध में दंगे और मारकाट शुरू हो गई , इसे ध्यान में रख कर भारत ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया की विश्व  में भारत की छवि विस्तारवादी राष्ट्र के रूप में न बने.

एक ऐसा ही गढ़ा हुआ  सच मिडिया में यह फैलाया गया है कि पंडित नेहरू हैदराबाद राज्य पाकिस्तान को देना चाहते थे , सरदार पटेल ने आपरेशन पोलो के द्वारा नेहरू जी की सहमति के बिना इस राज्य को भारत में मिला लिया और निज़ाम का समर्पण करवा दिया। ऐतिहासिक सचाई यह है कि निज़ाम ने खुल्लम खुल्ला पाकिस्तान में मिलने की घोषणा कर दी थी , हैदराबाद की जनता  भारत के साथ रहना चाहती थी , सच जो अभिलेखों में दर्ज है  वह तो यह है कि भारत सरकार की और से जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल  दोनों ने मिल कर निज़ाम के खिलाफ मोर्चा खोला था, जहाँ सरदार पटेल ने बातचीत की शुरुआत की वहीँ नेहरू ने आपरेशन पोलो की कमान संभाली थी ।

इन सबसे बड़ा झूठ पंडित जवाहर लाल नेहरू के धर्म को लेकर फैलाया जा रहा है।  सोशल मीडिया पर फैलाये झूठ के मुताबिक उनके दादा का नाम गियासुद्दीन गाज़ी था जो बहादुर शाह जफ़र के ज़माने में दिल्ली के शहर कोतवाल हुआ करता था जिन्होंने अंग्रेजों से बचने के लिए दिल्ली छोड़ दिया था और अपना हिन्दू नाम गंगा धर रख लिया था . हकीकत यह है कि लक्ष्मी नारायण  कौल पंडित थे और कश्मीर से आ कर दिल्ली में बसे थे चांदनी चौक में नहर के किनारे रहते थे इसलिए उनका सर नेम नेहरू पड़ गया , वे  ईस्ट इंडिया कम्पनी के दिल्ली स्थित कार्यालय में काम करते थे , उनके बेटे गंगाधर नेहरू हुए जो  मुग़ल सल्तनत के अधीन पुलिस में काम करते थे , यही जवाहर लाल नेहरू के दादा थे। यह हाल का इतिहास है जिसके साक्ष्य भी हैं लेकिन उसके वावजूद झूठ के पुलंदों पे पुलंदे सोशल मीडिया पर  फैलाये जा रहे हैं.

अब आप यह भी पूछ सकते हैं कि आखिर इतिहास के साथ इस छेड़ छाड़ से क्या हासिल होने  वला है ?  बहुत  कुछ. . दरअसल बड़ी शख्सियत के मुकाबले खड़े होने के लिए उसके जैसी  कड़ी मेहनत,  समर्पण, निष्ठा और योग्यता की जरुरत पड़ेगी लेकिन अगर बड़ी शख्सियत के चरित्र, आचरण और निष्ठां को ही विवाद ग्रस्त साबित कर दिया जाय तो फिर आपका रास्ता आसान हो जाएगा।

यह सच  है कि कोई भी व्यक्ति  अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होता , हरेक में  गुण के साथ दोष भी होंगे तो किसी को भी चने के झाड़ पर चढ़ाना उचित नहीं है, लेकिन जो उसने समाज और देश के लिए किया है उसे तो स्वीकार करना चाहिए। मान लो सच में जवाहार लाल नेहरू हिन्दू न हो कर मुसलमान  होते  तो क्या  भारत के स्वतंत्रता संग्राम  में उनकी भूमिका और योगदान गौण  हो जाता।  जवाहर लाल ही नहीं गाँधी जी के विरुद्ध  सोशल मीडिया पर बहुत सारे इल्जामात  फैलाये  जा रहे हैं।   लेकिन आज की नई  पीढ़ी जिसने गाँधी या नेहरू को न कभी देखा नहीं , ज्यादा पढ़ा भी नहीं और जिनकी उँगलियाँ की-पैड पर ही थिरकती रहती हैं,  उनके लिए व्हाट्सअप और  फेसबुक के पोस्ट  ही अंतिम सत्य बनते  जा रहे हैं . वो दिन गए जब हम ज्ञान को  खोजने के लिए  पुस्तकों को टटोलते  थे. वाद विवाद और महापुरुषों पर कीचड उछालने की जगह विमर्श करते थे.

नतीजा सामने है, दुनिया भर में अब सरकारें तक सोशल मीडिया के गढ़े  हुए नैरेटिव के जरिए उलटी पलटी जा रही हैं।  यदि दुनिया भर के समाचार पत्रों को पढ़ कर देखें तो पाएंगे कि हाल ही के वर्षों में राजनैतिक विमर्श का स्तर बहुत गिरा है।

आप बोलोगे कि जब समस्या विश्वव्यापी हो चुकी है तो एक मेरे आप के करने या न करने से क्या होगा।  लेकिन समस्या व्यक्ति से शुरू हुई है व्यक्ति ही हल करेगा। हम  व्यक्तिगत कैपिसिटी में कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि अगर सोशल मीडिया पर उटपटांग किस्म की पोस्ट दौड़ती हुई देखें तो कम से कम गूगल करके जरूर देखें ज्यादा  चांस यही हैं कि  समस्या  की जड़ तक पहुँच सकेंगे। बात आदत बदलने की है.
 
 


During the ear y part of the 19th Century, Gangadhar's father, Lakshmi Narayan Nehru, worked as a scribe in Delhi for the East India Company. Gangadhar was appointed the Kotwal (a rank similar to Chief of police) of Delhi in the court of Mughal emperor Bahadur Shah II.



  

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