Kaun Hai Kitana Swedeshi ? कौन है कितना स्वदेशी


इन दिनों राष्ट्र भक्ति का उफान जोरों पर है।  जिधर देखो उधर राष्ट्र भक्ति की ही धारा बहती हुई दिखती है।  अगर हमारे दादा परदादा जीवित होते तो बताते कि इतना उफान तो स्वतंत्रता आंदोलन में भी देखने को नहीं मिला था।  पर यह भी सच है कि उन दिनों व्यक्ति की राष्ट्र भक्ति की अभिव्यक्ति के लिए आज की तरह का ताकतवर सोशल मीडिया जो नहीं था।  इस लिए उन दिनों  की राष्ट्र भक्ति भी कोई भक्ति थी , बस खाली स्वतंत्रता पाने की ही तो बात थी।  इन दिनों की तो बात ही अलग है , अब तो साफ़ साफ़ हम हैं और वो है।  जो हमारे साथ खड़ा है वही राष्ट्र भक्त है , जो हमारे साथ नहीं  उस की कोई भी पृष्टभूमि हो, वह रातों रात राष्ट्र विरोधी हो जाता है  । हम तो गंगा जल की मानिंद हैं घोरतम भ्र्ष्टाचारी , दुराचारी कोई भी हो हमारे संपर्क में आते ही उजला और पवित्र बन जाता है ।

    राष्ट्र और राष्ट्र भक्ति की सही सही परिभाषा क्या है  यह तो ठीक ठीक उनको भी नहीं पता जो अपने आप को घोर राष्ट्रवादी मानते हैं।

अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि बात  कहाँ  से शुरू की  जाय ।  राष्ट्र भक्ति  के हिसाब से केक पेस्ट्री विधर्मी है, पास्ता , नूडल्स विदेशियों की छोड़ी हुई विरासत है , राष्ट्र भक्तों को बहुत बुरा लगता है जब उन्हें पता लगता है  कि  आप अपने खाने में   ब्रोकली , स्नो पी , ब्रूसेल स्प्राउट , कीवी-फ्रूट , पैशन-फ्रूट शामिल कर लिया है , आप पाप, रॉक, डिस्को सुनते  हैं। और बाबा रे बाबा  अंग्रेजी भाषा लार्ड मेकाले द्वारा  हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाने के लिए  थोपी हुई भाषा के माध्यम से पढ़ रहे हैं।  वेलेंटाइन डे अपसंस्कृति  है .

अब जरा उलटी तरह से चलते हैं। चाय के साथ समोसे का नाश्ता  और खाने  के बाद ऊपर से गुलाब जामुन खाना  तो खालिस भारतीय लगता है।  जलेबी के बगैर हमारे किसी भी गुजराती भाई  का नाश्ता पूरा नहीं होता है। क्या आप उत्तर भारतीय शादी व्याह का परंपरागत  खाना बगैर राजवां , नान, बिरयानी के कल्पना कर सकते हैं ? शादी के रिसेप्शन में जब तक चाय और  काफी का काउंटर  न हो खाना पूरा नहीं समझा जाता है। भाई लोग गश खा कर गिरना मत इन  सब का ओरिजिन विदेशी हैं।  मसलन चाय अपने देश में होती नहीं थी , चाय के पौधे ब्रिटिश व्यापारी अपने साथ चीन से यही कोई डेढ़ से दो सौ साल पहले लाये थे. समोसे का आगमन 16वीं   शताब्दी में इथियोपिया से पहले मध्य पूर्व  और वहां से भारत में हुआ , वहां इसे आज भी सम्बुसा कहा जाता है। खालिस देशी लगने वाली मिठाई गुलाब जामुन ईरान यानि  परशिया  से आई है। जलेबी का भी कमोबेश यही हाल है यह भी परशिया से आयी है ज़हां आज भी इसे ईरानी  जिलाबिया के नाम से जानते हैं . राजवां हमारे भारतीय परिवारों विशेषकर पंजाब, हिमाचल , कश्मीर क्षेत्र में  रोजाना का खाना है लेकिन इसका आगमन हमारे देश में  मेक्सिको से कई देशों की सीमायें पार कर के विभिन्न देशों के व्यापारियों के माध्यम से हुआ है. कहते है काफी को 16 वीं शताब्दी में बाबा बुदान नाम का शख्स  हज यात्रा से बापस आते समय चोरी छिपे ले कर आया था. वहां उन दिनों काफी यमन से आती थी और वो भी अभिजात्य वर्ग के लिए. दाल भात का खाना जो हमें नितांत अपना लगता है यह  भी  नेपाल से आया था।

अब हम जरा  फ्रूट बास्केट के अंदर झाँक कर देख लें , जिन फलों को हम देशी मानते हैं उनमें से काफी सारे फलों का मूल भारत नहीं है।  सीताफल का जैसे ही सीजन शुरू होता है वैसे ही यह हमारे पडोसी गुजराती परिवारों में खाने की मेज पर रोजना  शामिल रहता है , यह वेस्ट इंडीज से अफ्रीका और बाद में वहां से भारत आया. लीची 18 वीं शताब्दी से चीन से यात्रा करके हमारे यहाँ आयी है।  अन्नानास को कोलम्बस अमरीका से लेकर आया था उसी के माध्यम से यह बाद में भारत पहुँचा। अमरुद का मूल दक्षिणी अमेरिका का है जिसे पुर्तगाली लोग लेकर आये। ऐसा ही सफर  आलू, काजू ने भी तय किया  है।

  कहानी भाषा , कला ,संस्कृति और विश्वास की कहानी भी इसी तरह की है.  वेलेंटाइन डे, क्रिसमस ईसाइयों के त्यौहार नहीं हैं फिर भी वे लोग मनाते हैं. हज्ज की परम्परा इस्लाम के प्रादुर्भाव से भी पूर्व से मक्का में चली आ रही है , शब्बे रात की भावना पुनर्जन्म की है जो इस्लाम की मान्यता और भावना के विपरीत है फिर भी इसे त्यौहार के रूप में मनाया जाता है.

सचाई यह है कि पुराने जमाने में एक भौगोलिक क्षेत्र से दूसरे में जाने के लिए किसी पासपोर्ट या फिर वीसा लेने की जरुरत नहीं पड़ती थी, व्यापारी, विद्वान, उद्यमी एक स्थान से दूसरे स्थान तक निर्बाध यात्रा करते थे उन्ही के साथ कला, संस्कृति , भाषा, भोजन, फल, फूल भी दूर दराज तक यात्रा करके पहुँच जाते थे।  शायद इसी लिए उन दिनों राष्ट्र जैसी कोई रूढ़ अवधारणा नहीं थी , सिल्क मार्ग इसी तरह से विकसित हुए हैं ।  सभ्यताओं का विकास  इसी प्रक्रिया का प्रतिफल रहा है.  यही वजह है जब संस्कृत, ग्रीक , लैटिन , फारसी , अरबी भाषाओं के शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया तो उनमें जबरदस्त समानता पायी गयीं।

    अतीत में व्यापारी और चिंतक  तो दूर दराज यात्रा करते ही थे  इसी तरह से चोर, उच्चके  और लुटेरे भी एक स्थान से दूसरे स्थान घूमते थे, जिस क्षेत्र के बारे में पता लगता था कि संपन्न  हैं वहां वे लूट पाट  के लिए पहुँच जाया करते थे।  जिन  सभ्यताओं  की गण- राज्य व्यवस्था चुस्त दुरुस्त थी इस लिए वहां  वे कुछ ख़ास नहीं  हासिल कर पाते थे लेकिन जहाँ जहाँ निरंकुश और विलासी राजा थे और उनकी शासन व्यवस्था में कोई मूलभूत खामी थीं  वहां न केवल लूट पाट की, कई जगह तो वे  शासक भी बन कर वैठ गए। जहाँ पर मुठ्ठी भर लोगों के बल पर सत्ता पर काबिज हुए  उन्हें शासन करने  के लिए बहुसंख्यकों को साथ लेकर ही चलना पड़ा, जैसे ही बहु संख्यकों को समझ में आ गया कि उनका शोषण किया गया है और उन्हें बुनियादी अधिकारों से वंचित किया गया है और वे संगठित हो गए और ऐसे शासकों को हटा दिया , पूरी दुनिया का इतिहास ऐसे ही तथ्यों से भरा पड़ा है ।
     अपनी भाषा में सोचना, व्यक्त करना , लिखना बहुत आवयश्क है. भाषा की ताकत कितनी होती है इसका अंदाजा बॉलीवुड  के प्रभाव ,आर्थिक बल और पहुँच को देख कर लगया जा सकता है।  भारत में हिंदी ही नहीं सभी  भाषाएँ अपने आप में समृद्ध हैं उन्हें आगे बढ़ाना व्यक्ति , परिवार, समाज और सरकार  सभी की  जिम्मेवारी है और इसके लिए मिल कर काम करना पड़ेगा  , लेकिन साथ ही  साथ इस तथ्य को स्वीकार करना पडेगा कि जिस भाषा में दुनिया भर का  कारोबार चल रहा है , ज्ञान विज्ञान  में शोध, अध्ययन , अध्यापन चल रहा है उसमें महारथ हासिल नहीं करेंगे तो सिमट कर विश्व ग्राम बन रही दुनिया में हम अकेले पड़ जाएंगे. यह  बात उन महान  सभ्यता वाले देशों को भी समझ आ रही है जो अपनी भाषा के अभिमान के चलते हुए विश्व धारा से अलग थलग पड़ते जा रहे थे।  इन दिनों पूर्वी योरोप के देशों के लोग तेजी से अंग्रेजी सीख रहे हैं , फ्रांस के कई बिज़नेस स्कूल के विज्ञापनों में मोटे  मोटे  शब्दों में लिखा जा रहा है कि वहां पढाई अंग्रेजी में कराई जाती है.यही हाल चीन में है टेक्नोलॉजी और विज्ञान पढ़ाने वाले स्कूल तेजी से अंग्रेजी अपनाई जा रही है.

इसलिए दोस्तों  यह  राष्ट्र भक्ति या राष्ट्र प्रेम की अवधारणा इतनी सरल नहीं है जितनी की इन दिनों पेश की जा रही है , इसकी अनेकों बारीक और नाजुक  परतें हैं जो एक या दो साल में नहीं बनी हैं वरन बनते बनते तीन चार हज़ार साल लग गए हैं , अगर एक भी परत के साथ छेड़ छाड़ करने की कोशिश की गई  तो सारा शिराजा विखर जाएगा।      


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