Hindi Poetry - Stay Relevant Stay Longer हिंदी कविता - प्रासांगिक जीवन

कुछ ही दिन पहले 
38 वर्ष एक सरकारी दफ्तर में काम करने के बाद 
अवकाश ग्रहण किया है  
आफिस में काफी महत्वपूर्ण पद था
मुझे याद नहीं आता  
कभी सैर सपाटे के लिए कोई छुट्टी ली हो 
यहां तक कि घर और बच्चों की जरुरत पर भी 
छुट्टी लेने के लिए 
हमेशा परहेज किया। 
संगठन के बड़े से बड़े बॉस मेरी राय लिए बिना 
अंतिम निर्णय नहीं लेते थे
कनिष्ठों  के लिए हमेशा रोल मॉडल रहा
उनकी छोटी से छोटी शंका 
मेरे केबिन में प्रवेश करते हल हो जाती थी. 
हाँ, सहकर्मी इस वजह से 
अंदर ही अंदर दुखी रहते थे 
पर कुछ कह नहीं पाते थे 
जब भी मेरे साथ लंच पर बैठते 
बाहर मिलते 
एक संक्षिप्त सी मुस्कान 
चेहरे पे चिपकाए रहते थे.
बाहर के जो लोग मेरे निर्णय पर आश्रित थे 
अगर प्रस्ताव उचित रहा 
तो उनको कभी निराश नहीं किया 
हाँ, उसके बदले उनसे नोट, सोना, चांदी, शेयर 
नहीं लिया।
विदाई समारोह में मेरी शान में 
लम्बे लम्बे कसीदे पढ़े गए 
उस समय तो मुझे ऐसा लग रहा था 
जैसे मेरे अवकाश लेते ही 
आफिस बंद हो जायगा।
मेरे बॉस ने चलते चलते कहा 
आप आते रहिएगा।
दो दिन बाद ही उधर जाना हुआ 
जिस केबिन में दस साल लगातार गुजारे थे 
जब प्रवेश किया 
केबिन के नए स्वामी ने चाय तो आर्डर की
लेकिन लगा कि मेरे वहां पहुँचते ही 
वह असहज हो गया है 
उस दौरान उसने किसी कनिष्ठ से बात नहीं की 
शायद उसे लगा होगा कि कहीं मैं 
उसके समस्या को हैंडिल करने के तरीके पर कुछ बोल न दूँ। 
व्यवसाय के सिलसिले में आये एक दो
लोगों को भी इसी लिए टरका दिया।
बाकी दफ्तर भी ऐसे ही लगा, 
कल तक छोटी छोटी समस्याओं को 
मेरे पास  लाने वालों के पास 
मेरे लिए ही समय नहीं था !
घर का भी हाल कुछ बदला सा लगने लगा 
मेरे आगे पीछे चाय का कप तो कभी तौलिया तो कभी सूट 
लेकर घूमने वाली मेरी अर्धांग्नी - 
उसकी अपेक्षाएं भी बदलने लगीं 
मेरा समाचार-पत्र पढ़ना समय की बर्बादी 
मेरे दोस्तों का मेरे पास आना खलने सा लगा 
रिश्तेदारों का हाल भी कुछ अलग  नहीं था 
पहले वे मुझे अपने मित्रों और परिचितों से 
कुछ इस तरह से परिचय कराते थे 
जैसे मैं नहीं वे स्वयं मेरे विभाग के प्रमुख हों 
अब तो उन्होंने मेरा परिचय कराना ही बंद कर दिया है ! 
मुझे पहले तो लगा  
मेरी प्रासंगिकता ही ख़त्म हो गयी है 
जैसे कि मैं पेड़ से कट चुकी वो डाल हूँ
जिसमें उस पेड़ की संवेदना अब नहीं रही  है  
जो वर्षों से डाली का हिस्सा थी
पहले पेड़ की दूसरी डालों के साथ मिल कर 
हवाओं से सरगोशियां करती थी. 
भावनाओं के उद्वेग में 
मुझे लगा कि क्यों न अपनी प्रासंगिकता आप तय की जाय, 
दूसरों को यह हक़ क्यों दिया जाय . 
फिर मैंने अपनी बकेट - लिस्ट निकाली 
जिसमें  आपने अपने इस जीवन काल में
घूमने फिरने के स्थान लिखे थे और 
अपने कार्यालय की व्यस्तताओं 
और बच्चों  की जिम्मेवारियों 
के कारण जा ही नहीं पाया था  
अब एक एक कर के वहां जाऊँगा  
उन पुस्तकों को पढूंगा 
जो रोज आफिस का काम घर तक करने के कारण   
नहीं पढ़ सका था  
तो दोस्तों अगर पेंटिंग का हुनर था 
समय की कमी के कारण 
कुछ नहीं बना सके कोई बात नहीं 
अभी शुरू करेंगे , अच्छी बनने लगेंगी  तो  
इतनी पेंटिंग बना लेंगे  कि उनकी प्रदर्शनी 
किसी बड़ी गैलरी में हो सके। 
हुनर है तो कद्रदां भी  जाएंगे 
नाम ही नहीं पैसा भी कमा पाएंगे 
लिखने का शौक रहा हो तो अब जम के लिखेंगे 
क्योंकि अब अपने पास लिखने की कला  ही 
अनुभव का खजाना भी है 
उसे  प्रकाशित भी करेंगे वो बिकेगा भी  
क्योंकि साहित्य में हमेशा से 
कुछ नए और अलग हट कर दिए विचारों का 
स्वागत किया जाता है. 
और अगर मान लीजिए ऐसा कोई हुनर नहीं 
तो भी कोई बात नहीं 
तीस पैंतीस साल जो अनुभव बटोरा है 
बाकायदा उस क्षेत्र में निजी व्यवसाय खोल लेंगे 
परामर्श देने का काम  करेंगे   
अपना काम, अपने मालिक आप , अपना समय 
शुरू करेंगे बहुत मजा आएगा। 
अगर यह सब भी नहीं करना 
तो आस पास नजर घुमाएंगे  
बहुत से ऐसे बच्चे मिल जाएंगे  
जो पैसे की कमी से अच्छी शिक्षा से वंचित हैं 
उन्हें अपना समय देंगे  
उन्हें हुनरमंद बनाएंगे 
पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाएंगे........     
                                     @प्रदीप गुप्ता 


     

    
  
   

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