Gems of Nad Bindu Upnishad
Vedas are other name of 'the sacred knowledge'.The vedic literature is organized into four segments, viz. :
1. Rigveda, the Vedas of the verse
2. Samveda, the Vedas of songs
3. Yajurveda, the Vedas of sacrificial Text
4. Atharveda, so named after Atharvan, the mythical priest of the past ages.
Upnishads are theological and philosophical reflections about the essential nature of things. They are also called Vedanta, literally meant - end of Veda, the final goal of the Veda, because it was, as a rule, located at the end of the Brahmana. Upnishads are also literally called 'confidential session' with the teacher, later meant as 'secret lore' because it used to be imparted to the pupil towards the end of the period of instruction.
The seers of the Upaniṣhads were bent upon entering into the kernel of Reality by casting off all vestures which limit human life, and attaining a kind of attunement with it, if necessity arose, and the unconditioned was plumbed and experienced. So, in a way, we may say that the Upaniṣhad texts are records of experiences and explanations of Masters who set themselves in tune with ultimate Truth. Such are the Upaniṣhads. It is a very strange word, 'Upaniṣhad', which is supposed to mean a secret knowledge, not to be imparted to the uninitiated or to the common public who are wedded to the exoteric approach only, who are totally conditioned in their life, and who cannot rise above the bias of sense life and social regulations. Hence the Upaniṣhad wisdom was kept very secret. It was never imparted to anyone except the near disciples who went to the Masters for training and underwent discipline for a protracted number of years, and made themselves fit to receive this knowledge which is unconditional. That was the greatness of it, and that was also the danger of it, because it is unconditioned.
The Upaniṣhads are mystical revelations, secret wisdom; and, as the word itself denotes, they are supposed to be listened to, heard about, or learnt from a Master by one's being seated in front of him, beside him, near him:
1. Rigveda, the Vedas of the verse
2. Samveda, the Vedas of songs
3. Yajurveda, the Vedas of sacrificial Text
4. Atharveda, so named after Atharvan, the mythical priest of the past ages.
Upnishads are theological and philosophical reflections about the essential nature of things. They are also called Vedanta, literally meant - end of Veda, the final goal of the Veda, because it was, as a rule, located at the end of the Brahmana. Upnishads are also literally called 'confidential session' with the teacher, later meant as 'secret lore' because it used to be imparted to the pupil towards the end of the period of instruction.
The seers of the Upaniṣhads were bent upon entering into the kernel of Reality by casting off all vestures which limit human life, and attaining a kind of attunement with it, if necessity arose, and the unconditioned was plumbed and experienced. So, in a way, we may say that the Upaniṣhad texts are records of experiences and explanations of Masters who set themselves in tune with ultimate Truth. Such are the Upaniṣhads. It is a very strange word, 'Upaniṣhad', which is supposed to mean a secret knowledge, not to be imparted to the uninitiated or to the common public who are wedded to the exoteric approach only, who are totally conditioned in their life, and who cannot rise above the bias of sense life and social regulations. Hence the Upaniṣhad wisdom was kept very secret. It was never imparted to anyone except the near disciples who went to the Masters for training and underwent discipline for a protracted number of years, and made themselves fit to receive this knowledge which is unconditional. That was the greatness of it, and that was also the danger of it, because it is unconditioned.
The Upaniṣhads are mystical revelations, secret wisdom; and, as the word itself denotes, they are supposed to be listened to, heard about, or learnt from a Master by one's being seated in front of him, beside him, near him:
U pa,ni,ṣhad. When the word splits, it is split into its components, and it is supposed to be the meaning of a knowledge that is secretly obtained from a Master by being seated near him in holy reverence and obedience. 'Sit near' – that is the literal meaning of the term, Upaniṣhad. Sit near the Guru, the Master, and receive the wisdom by attunement, at-one-ment of being. This is the peculiarity of Upaniṣhad knowledge. It is not like science or art or any other exoteric learning that we can have in a College or a University. It is not a lecture that is delivered, but a wisdom that is communicated to the soul by the soul. That is the speciality of the Upaniṣhad wisdom. It is a conversation between soul and soul, and not merely a discourse given by a professor to the students in a College. That is the speciality of the Upaniṣhad wisdom. It is a light that is to mingle with another light. Hence, the Upaniṣhads were kept as greatly guarded secrets.
Nada Bindu Upanishad is one of the 'minor' Upanishad listed in the Muktika canon. It is a Yog Upnishhad
The Nada-Yoga practices meditations on the Nada or Shabda or on the highest Pranava, eventually with a mantra like OM or Aum.
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The Nadabindu Upanishad sees the Nada as the bird Hamsa as which the Atman appears. The parts of the body of this bird are the 3 letters of the word AUM and the three gunas of the Samkhya doctrine.
The teaching goes beyond the Brahman : What is beyond that is the Para-Brahman, the pure all-penetrating, beyond the Kalas, the ever-shining and the source of all the Jyotis (light), should be known.
ॐ ! मेरा वचन मानस पर आधारित हो
मेरा मानस मेरे वचन पर आधारित हो
हे आत्म दीप्तिमान आप कृपया स्वयं को मेरे सम्मुख प्रकट करो।
वचन और मानस कृपा करके मेरे लिए वेद के संवाहक बनो
जो कुछ मैंने सुना है वह सब मुझसे जुड़ा न हो
मैं इस अध्ययन के माध्यम से समाप्त कर दूंगा रात और दिन के अंतर को ।
और मैं सचमुच वही बोलूंगा जो बचन से सत्य होगा
मैं सचमुच वही बोलूंगा जो मन से भी सत्य हो
ब्रह्मन मेरी रक्षा करे
वह वक्ता की रक्षा करे
वह मेरी रक्षा करे.
ॐ कार प्रणव-रूप 'हंस' है
हंस का दक्षिण पंख 'अकार' है
उत्तर पंख (बायां पंख) 'उकार' है
उसकी पूंछ 'मकार' है
अर्धमात्रा उसका शीर्षभाग है
ओंकाररूपी हंस के दोनों पैर
'रजोगुण' एवं 'तमोगुण' हैं
उसका शरीर 'सतोगुण' कहा गया है
उसकी दाईं आंख 'धर्म है
बाई आंख 'अधर्म' है
हंस के दोनों पैरों में भू-लोक (पृथिवी) स्थित है
उसकी जंघाओं में भुव:लोक (अन्तरिक्ष) केन्द्रित है
स्व:लोक (स्वर्ग-ऊर्ध्व) उसका कटि प्रदेश है
मह:लोक (आनन्दलोक) उसकी नाभि में स्थित है
उसके हृदयस्थल में जनलोक
कण्ठ में तपोलोक का वास है
ललाट और भौहों के मध्य में 'सत्यलोक' स्थित है
इस प्रकार विद्वान साधक
प्रणव-रूपी हंस पर आसीन होकर,
ओंकार का ज्ञान प्राप्त कर
कर्मानुष्ठान तथा ध्यान आदि के द्वारा
'ॐ' का चिन्तन-मनन करता हुआ,
सहस्त्रों-करोंड़ों पापों से मुक्त होकर
'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है.
ओंकार की प्रथम मात्रा आग्नेयी है,
दूसरी मात्रा वायव्या (वायु की भांति) है,
तीसरी मात्रा मकार सूर्य मण्डल के समान है,
चौथी मात्रा अर्धमात्रा है,
इसे वारूणी भी कहा जाता है
इन चारों मात्राओं में से
प्रत्येक मात्रा के तीन-तीन काल,
अर्थात कला-रूप हैं।
इसीलिए ॐकार को कहा गया है बारह कलाओं से युक्त ।
ॐकार की साधना
मात्र मन्त्रों के उच्चारण करने से पूरी नहीं होती।
इसे 'दिव्य प्राण-रूप' समझकर प्रयास करना चाहिए
अपनी अनुभूति से जानने का ।
इन बारह कलाओं की मात्राओं में
प्रथम मात्रा है घोषिणी।
दूसरी मात्रा विद्युन्मात्रा,
तीसरी पातंगी,
चौथी वायुवेगिनी,
पांचवीं नामधेया,
छठी ऐन्द्री,
सातवीं वैष्णवी,
आठवीं शांकरी,
नौवीं महती,
दसवीं धृति,
ग्यारहवीं नारी
और अंतिम है ब्राह्मी।
साधक ॐकार की प्रथम मात्रा में
अपने प्राणों का परित्याग कर देता है,
तो वह भारतवर्ष का सार्वभौमिक चक्रवर्ती सम्राट होगा
साधक दूसरी मात्रा में प्राणों का उत्सर्ग करे ,
वह महान महिमामण्डित 'यक्ष' के रूप में उत्पन्न होगा ।
तीसरी मात्रा में प्राण त्यागने पर 'विद्याधर' के रूप में जन्म लेगा ,
चौथी मात्रा में प्राण त्यागने पर वह 'गन्धर्व' के रूप में,
पांचवीं मात्रा में 'तुषित'
छठी मात्रा में देवराज इंद्र के 'सायुज्य पद' को प्राप्त करेगा
सातवीं मात्रा में भगवान विष्णु के 'वैकुण्ठधाम' को,
आठवीं मात्रा में पशुपति भगवान शिव के 'रुद्रलोक' को,
नवीं मात्रा में 'आनन्दलोक' को,
दसवीं मात्रा में 'जनलोक' को,
ग्यारहवीं मात्रा में 'तप लोक' को
बारहवीं मात्रा में प्राण त्यागने पर प्राप्त करेगा शाश्वत 'ब्रह्मलोक' को ।
इस परम 'ब्रह्मलोक' से ही
अग्नि , सूर्य और चंद्र आदि ज्योतियों का प्रादुर्भाव हुआ है।
जब कोई श्रेष्ठ साधक
अपने मन को नियन्त्रित करके
समस्त इन्द्रियों,
'सत', 'रज' और 'तम' तीनों गुणों से परे होकर
'परमतत्त्व' में विलीन हो जाता है,
तब वह उपमारहित, कल्याणकारी और शान्त-स्वरूप हो जाता है।
इन्हें ही 'योगी' साधक कहा जाता है।
ऐसा साधक अथवा योगी
निर्मल कैवल्य पद को प्राप्त कर
स्वयं ही परमात्म स्वरूप हो जाता है
और करता है ब्रह्म-भाव से असीम आनन्द की अनुभूति ।
हे ज्ञानवान पुरुष!
तुम सतत प्रयत्न करते हुए
'आत्मा' के स्वरूप को पहचानने का प्रयास करो।
उसी चिन्तन में अपने समय को लगाओ।
प्रारब्ध और कर्मानुसार
जो भी कष्ट अथवा कठिनाइयां सामने आयें,
उन्हें भोगते हुए खिन्न अथवा दुखी नही हो।
'नाद' ध्वनि को कहते हैं।
ॐकार-स्वरूप
ब्रह्म का आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित होते ही,
शिव के कल्याणकारी स्वयं प्रकाश
'नाद-रूप' की अनुभूति होने लगती है।
योगी तथा साधकअभ्यास द्वारा 'नाद' को
अनुभूतिजन्य बनाने के लिए
'अकार' और 'मकार' को जीतकर
कर लेता है
सम्पूर्ण 'ॐकार' को शनै:-शनै: आत्मसात
और प्राप्त कर लेता है 'तुर्यावस्था' को ।
अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में
यह 'महानाद' (अनाहत ध्वनि)
सुनाई पड़ती है
विभिन्न स्वरों में ।
शनै:-शनै: अभ्यास से
स्पष्ट होने लगते हैं इसके सूक्ष्म भेद ।
प्रारम्भ में सुनाई पड़ती है यह ध्वनि
समुद्र, मेघ, भेरी तथा झरनों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों के समान ।
कुछ समय बाद यह ध्वनि सुनाई पड़ती है
मृदंग, घण्टे और नगाड़े की भांति ।
अन्त में यह सुनाई पड़ती है
किंकिणी, वंशी, वीणा एवं भ्रमर की मधुर ध्वनि के समान ।
संयमी पुरुष नाद-श्रवण से
भिन्न विषय-वासनाओं को उपेक्षित करके
सतत अभ्यास द्वारा मन को उसी 'नाद' में लगाये
और उसी में रमण करता रहे]
अर्थात योगी साधक को सतत चिन्तन करते हुए
समस्त चिन्ताओं का परित्याग कर,
सभी तरह को चेष्टाओं से मन को तटस्थ कर, करते रहना चाहिए उस 'नाद' का ही अनुसन्धान ,
क्योंकि इससे चित्त सहज ही 'नाद' में लय हो जाता है।
जिस प्रकार फूलों का रस ग्रहण करता हुआ भ्रमर,
पुष्प-गन्ध की अपेक्षा नहीं करता,
उसी प्रकार सतत 'नाद-लय' में डूबा हुआ साधक
विषय-वासनाओं की आकांक्षा नहीं करता।
वह नि:शब्द हो जाता है
उसका मन अनुभव करने लगता है परमब्रह्म के परमात्मततत्त्व ।
जब तक नाद है,
तभी तक मन का अस्तित्त्व है।
नाद के समापन होने पर
मन भी 'अमन,'अर्थात 'शून्यवत' हो जाता है
इस प्रकार सतत नाद का अभ्यासरत योगी
जाग्रत, स्वप्न तथा सुषप्ति आदि अवस्थाओं से मुक्त होकर
सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है
और मान-अपमान से परे होकर
समाधि द्वारा समस्त जड़-संगम का परित्याग करहो जाता है 'ब्रह्ममय'
जिसे साधक को सहज भाव से ग्रहण करना चाहिए।।
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The Nadabindu Upanishad sees the Nada as the bird Hamsa as which the Atman appears. The parts of the body of this bird are the 3 letters of the word AUM and the three gunas of the Samkhya doctrine.
The teaching goes beyond the Brahman : What is beyond that is the Para-Brahman, the pure all-penetrating, beyond the Kalas, the ever-shining and the source of all the Jyotis (light), should be known.
ॐ ! मेरा वचन मानस पर आधारित हो
मेरा मानस मेरे वचन पर आधारित हो
हे आत्म दीप्तिमान आप कृपया स्वयं को मेरे सम्मुख प्रकट करो।
वचन और मानस कृपा करके मेरे लिए वेद के संवाहक बनो
जो कुछ मैंने सुना है वह सब मुझसे जुड़ा न हो
मैं इस अध्ययन के माध्यम से समाप्त कर दूंगा रात और दिन के अंतर को ।
और मैं सचमुच वही बोलूंगा जो बचन से सत्य होगा
मैं सचमुच वही बोलूंगा जो मन से भी सत्य हो
ब्रह्मन मेरी रक्षा करे
वह वक्ता की रक्षा करे
वह मेरी रक्षा करे.
ॐ कार प्रणव-रूप 'हंस' है
हंस का दक्षिण पंख 'अकार' है
उत्तर पंख (बायां पंख) 'उकार' है
उसकी पूंछ 'मकार' है
अर्धमात्रा उसका शीर्षभाग है
ओंकाररूपी हंस के दोनों पैर
'रजोगुण' एवं 'तमोगुण' हैं
उसका शरीर 'सतोगुण' कहा गया है
उसकी दाईं आंख 'धर्म है
बाई आंख 'अधर्म' है
हंस के दोनों पैरों में भू-लोक (पृथिवी) स्थित है
उसकी जंघाओं में भुव:लोक (अन्तरिक्ष) केन्द्रित है
स्व:लोक (स्वर्ग-ऊर्ध्व) उसका कटि प्रदेश है
मह:लोक (आनन्दलोक) उसकी नाभि में स्थित है
उसके हृदयस्थल में जनलोक
कण्ठ में तपोलोक का वास है
ललाट और भौहों के मध्य में 'सत्यलोक' स्थित है
इस प्रकार विद्वान साधक
प्रणव-रूपी हंस पर आसीन होकर,
ओंकार का ज्ञान प्राप्त कर
कर्मानुष्ठान तथा ध्यान आदि के द्वारा
'ॐ' का चिन्तन-मनन करता हुआ,
सहस्त्रों-करोंड़ों पापों से मुक्त होकर
'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है.
ओंकार की प्रथम मात्रा आग्नेयी है,
दूसरी मात्रा वायव्या (वायु की भांति) है,
तीसरी मात्रा मकार सूर्य मण्डल के समान है,
चौथी मात्रा अर्धमात्रा है,
इसे वारूणी भी कहा जाता है
इन चारों मात्राओं में से
प्रत्येक मात्रा के तीन-तीन काल,
अर्थात कला-रूप हैं।
इसीलिए ॐकार को कहा गया है बारह कलाओं से युक्त ।
ॐकार की साधना
मात्र मन्त्रों के उच्चारण करने से पूरी नहीं होती।
इसे 'दिव्य प्राण-रूप' समझकर प्रयास करना चाहिए
अपनी अनुभूति से जानने का ।
इन बारह कलाओं की मात्राओं में
प्रथम मात्रा है घोषिणी।
दूसरी मात्रा विद्युन्मात्रा,
तीसरी पातंगी,
चौथी वायुवेगिनी,
पांचवीं नामधेया,
छठी ऐन्द्री,
सातवीं वैष्णवी,
आठवीं शांकरी,
नौवीं महती,
दसवीं धृति,
ग्यारहवीं नारी
और अंतिम है ब्राह्मी।
साधक ॐकार की प्रथम मात्रा में
अपने प्राणों का परित्याग कर देता है,
तो वह भारतवर्ष का सार्वभौमिक चक्रवर्ती सम्राट होगा
साधक दूसरी मात्रा में प्राणों का उत्सर्ग करे ,
वह महान महिमामण्डित 'यक्ष' के रूप में उत्पन्न होगा ।
तीसरी मात्रा में प्राण त्यागने पर 'विद्याधर' के रूप में जन्म लेगा ,
चौथी मात्रा में प्राण त्यागने पर वह 'गन्धर्व' के रूप में,
पांचवीं मात्रा में 'तुषित'
छठी मात्रा में देवराज इंद्र के 'सायुज्य पद' को प्राप्त करेगा
सातवीं मात्रा में भगवान विष्णु के 'वैकुण्ठधाम' को,
आठवीं मात्रा में पशुपति भगवान शिव के 'रुद्रलोक' को,
नवीं मात्रा में 'आनन्दलोक' को,
दसवीं मात्रा में 'जनलोक' को,
ग्यारहवीं मात्रा में 'तप लोक' को
बारहवीं मात्रा में प्राण त्यागने पर प्राप्त करेगा शाश्वत 'ब्रह्मलोक' को ।
इस परम 'ब्रह्मलोक' से ही
अग्नि , सूर्य और चंद्र आदि ज्योतियों का प्रादुर्भाव हुआ है।
जब कोई श्रेष्ठ साधक
अपने मन को नियन्त्रित करके
समस्त इन्द्रियों,
'सत', 'रज' और 'तम' तीनों गुणों से परे होकर
'परमतत्त्व' में विलीन हो जाता है,
तब वह उपमारहित, कल्याणकारी और शान्त-स्वरूप हो जाता है।
इन्हें ही 'योगी' साधक कहा जाता है।
ऐसा साधक अथवा योगी
निर्मल कैवल्य पद को प्राप्त कर
स्वयं ही परमात्म स्वरूप हो जाता है
और करता है ब्रह्म-भाव से असीम आनन्द की अनुभूति ।
हे ज्ञानवान पुरुष!
तुम सतत प्रयत्न करते हुए
'आत्मा' के स्वरूप को पहचानने का प्रयास करो।
उसी चिन्तन में अपने समय को लगाओ।
प्रारब्ध और कर्मानुसार
जो भी कष्ट अथवा कठिनाइयां सामने आयें,
उन्हें भोगते हुए खिन्न अथवा दुखी नही हो।
'नाद' ध्वनि को कहते हैं।
ॐकार-स्वरूप
ब्रह्म का आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित होते ही,
शिव के कल्याणकारी स्वयं प्रकाश
'नाद-रूप' की अनुभूति होने लगती है।
योगी तथा साधकअभ्यास द्वारा 'नाद' को
अनुभूतिजन्य बनाने के लिए
'अकार' और 'मकार' को जीतकर
कर लेता है
सम्पूर्ण 'ॐकार' को शनै:-शनै: आत्मसात
और प्राप्त कर लेता है 'तुर्यावस्था' को ।
अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में
यह 'महानाद' (अनाहत ध्वनि)
सुनाई पड़ती है
विभिन्न स्वरों में ।
शनै:-शनै: अभ्यास से
स्पष्ट होने लगते हैं इसके सूक्ष्म भेद ।
प्रारम्भ में सुनाई पड़ती है यह ध्वनि
समुद्र, मेघ, भेरी तथा झरनों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों के समान ।
कुछ समय बाद यह ध्वनि सुनाई पड़ती है
मृदंग, घण्टे और नगाड़े की भांति ।
अन्त में यह सुनाई पड़ती है
किंकिणी, वंशी, वीणा एवं भ्रमर की मधुर ध्वनि के समान ।
संयमी पुरुष नाद-श्रवण से
भिन्न विषय-वासनाओं को उपेक्षित करके
सतत अभ्यास द्वारा मन को उसी 'नाद' में लगाये
और उसी में रमण करता रहे]
अर्थात योगी साधक को सतत चिन्तन करते हुए
समस्त चिन्ताओं का परित्याग कर,
सभी तरह को चेष्टाओं से मन को तटस्थ कर, करते रहना चाहिए उस 'नाद' का ही अनुसन्धान ,
क्योंकि इससे चित्त सहज ही 'नाद' में लय हो जाता है।
जिस प्रकार फूलों का रस ग्रहण करता हुआ भ्रमर,
पुष्प-गन्ध की अपेक्षा नहीं करता,
उसी प्रकार सतत 'नाद-लय' में डूबा हुआ साधक
विषय-वासनाओं की आकांक्षा नहीं करता।
वह नि:शब्द हो जाता है
उसका मन अनुभव करने लगता है परमब्रह्म के परमात्मततत्त्व ।
जब तक नाद है,
तभी तक मन का अस्तित्त्व है।
नाद के समापन होने पर
मन भी 'अमन,'अर्थात 'शून्यवत' हो जाता है
इस प्रकार सतत नाद का अभ्यासरत योगी
जाग्रत, स्वप्न तथा सुषप्ति आदि अवस्थाओं से मुक्त होकर
सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है
और मान-अपमान से परे होकर
समाधि द्वारा समस्त जड़-संगम का परित्याग करहो जाता है 'ब्रह्ममय'
जिसे साधक को सहज भाव से ग्रहण करना चाहिए।।
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