Gems of Bṛhadāraṇyaka Upnishad

Vedas are other name of 'the sacred knowledge'.The vedic literature is organized into four segments, viz. :

1. Rigveda, the Vedas of the verse

2. Samveda, the Vedas of songs
3. Yajurveda, the Vedas of sacrificial Text
4. Atharveda, so named after Atharvan, the mythical priest        of the past ages.
      
Upnishads are  theological and philosophical reflections about the essential nature of things. They are also called Vedanta, literally meant - end of Veda, the final goal of the Veda, because it was, as a rule, located at the end of the Brahmana. Upnishads are also literally called 'confidential session' with the teacher, later meant as 'secret lore' because it used to be imparted to the pupil towards the end of the period of instruction. 

The seers of the Upaniṣhads were bent upon entering into the kernel of Reality by casting off all vestures which limit human life, and attaining a kind of attunement with it, if necessity arose, and the unconditioned was plumbed and experienced. So, in a way, we may say that the Upaniṣhad texts are records of experiences and explanations of Masters who set themselves in tune with ultimate Truth. Such are the Upaniṣhads. It is a very strange word, 'Upaniṣhad', which is supposed to mean a secret knowledge, not to be imparted to the uninitiated or to the common public who are wedded to the exoteric approach only, who are totally conditioned in their life, and who cannot rise above the bias of sense life and social regulations. Hence the Upaniṣhad wisdom was kept very secret. It was never imparted to anyone except the near disciples who went to the Masters for training and underwent discipline for a protracted number of years, and made themselves fit to receive this knowledge which is unconditional. That was the greatness of it, and that was also the danger of it, because it is unconditioned.
The Upaniṣhads are mystical revelations, secret wisdom; and, as the word itself denotes, they are supposed to be listened to, heard about, or learnt from a Master by one's being seated in front of him, beside him, near him U pa,ni,had. When the word splits, it is split into its components, and it is supposed to be the meaning of a knowledge that is secretly obtained from a Master by being seated near him in holy reverence and obedience. 'Sit near' – that is the literal meaning of the term, Upaniṣhad. Sit near the Guru, the Master, and receive the wisdom by attunement, at-one-ment of being. This is the peculiarity of Upaniṣhad knowledge. It is not like science or art or any other exoteric learning that we can have in a College or a University. It is not a lecture that is delivered, but a wisdom that is communicated to the soul by the soul. That is the speciality of the Upaniṣhad wisdom. It is a conversation between soul and soul, and not merely a discourse given by a professor to the students in a College. That is the speciality of the Upaniṣhad wisdom. It is a light that is to mingle with another light. Hence, the Upaniṣhads were kept as greatly guarded secrets.
The texts, known as the Upaniṣhads, are spread out throughout the range of the literature of the Veda, and each section of the Veda has its own Upaniṣhad or Upaniṣhads. We are going to talk about most important of them, very rarely studied by people and very rarely still discussed about – the Bṛhadāraṇyaka Upaniṣhad – the great forest of knowledge, as its name suggests. One can find everything there, as one can find in a forest. This Upaniṣhad, particularly, is never studied by students, nor is it taught by tutors, because of its complicated structure, difficult to grasp, and not safe also to communicate if its import is not properly rendered. If its meaning is properly grasped, it would be the ultimate, unfailing friend of a person, till death. It will guard you, protect you and save you, and provide you with everything, at all times. But, if it is not properly understood, it can be a sword in the hands of a child. So is this Upaniṣhad to be studied with great reverence and holiness of attitude, not as a mere book that you study from the library. It is not a book at all. It is Spirit that manifests itself in language, not merely a word that is spoken. Such is this Upaniṣhad, the Bṛhadāraṇyaka Upaniṣhad.
This  Bṛhadāraṇyaka Upaniṣhad,, which we have tried to condense in lyrical form, is in fact comprises of very lengthy text, ranging from thought to thought, in various stages of development; and I have particularly found that it is something like a very elaborate commentary on one of the Master-hymns of the Veda, that is, the Puruṣha-Sūkta. Some others have thought that it is an exposition of the principles of the Isavasya Upaniṣhad. It may be that they are right. But I, in my own humble way, tried to discover another meaning in it when I studied it and contemplated upon it – that it is a vast body of exposition of the inner significance of the Puruṣha-Sūkta and, perhaps, also, of the Nāsadīya-Sūkta, where the Cosmic Person is described, and creation hailed, about which we shall go, shortly, stage by stage.




प्रकृति का विराट रूप है ठीक अश्वमेध यज्ञ के अश्व सरीखा

‘अश्व’ शब्द है शक्ति और गति का परिचायक

इसी तरह सम्पूर्ण ब्राह्मण भी रहा करता निरन्तर सतत गतिशील

जहाँ ‘अश्व’ है  चक्रवर्ती राजा की शक्ति का प्रतीक

वहीँ  सम्पूर्ण सृष्टि है उस परब्रह्म की शक्ति का प्रतीक

अश्वमेध यज्ञ में ‘अश्व’ की पूजा की जाती है

बाद में उसकी बलि चढ़ा दी जाती है,

वैसे ही साधक इस सृष्टि की करता है उपासना,

अन्त में छोड़ देता है इस सृष्टि को नश्वर जानकर

अनुभव करता है इससे परे उस ‘ब्रह्म’ को

जो इस सृष्टि का नियन्ता है।




लौकिक जगत में सभी

‘अश्व’ से परे उस ‘राजा’ को देखते हैं,

जिसके यज्ञ का वह अश्व है

अध्यात्मिक जगत में वह ‘ब्रह्म’ है.

यह यज्ञीय अश्व या विश्वव्यापी शक्ति प्रवाह का सिर है‘उषाकाल’

आदित्य नेत्र , वायु प्राण, खुला मुख है आत्मा

अन्तरिक्ष उदर , दिन और रात्रि दोनों पैर ,

नक्षत्र समूह अस्थियां और आकाश है मांस-मज्जा

मेघों का गर्जन उसकी अंगड़ाई है

जल-वर्षा उसका मूत्र

शब्द घोष है वाणी

ये उपमाएं बोध कराती हैं उस विराट सृष्टि का.

मूर्त प्रतीकों के द्वारा अमूर्त ब्रह्म की विराट संचेतना

का दिग्दर्शन कराने वाले ही हैं उपासना के योग्य।




सृष्टि के प्रारम्भ में था केवल एक ‘सत्’ ही .

यह सत ढका था प्रलय-रूपी मृत्यु से.

उसने संकल्प किया कि उसे पुन: उदित होना है।

इस संकल्प के द्वारा प्रादुर्भाव हुआ जल का ।

पृथ्वी बनी इस जल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो जाने से ।

सृष्टि के सृजनकर्ता के श्रम-स्वरूप प्रकट हुआ उसका तेज़ अग्नि के रूप में ।

तदुपरान्त उसने अपने अग्नि-रूप के तृतीयांश को विभक्त कर दिया

सूर्य, वायु और अग्नि में ।

पूर्व दिशा उसका शीर्ष ,

उत्तर-दक्षिण दिशाएं उसका पार्श्व भाग

और द्युलोक उसका पृष्ठ भाग,

अन्तरिक्ष उदर,

पृथ्वी वक्षस्थल

अग्नि तत्त्व बने उस विराट पुरुष की आत्मा ।

यही कहलाया प्राणतत्त्व ।

इस विराट पुरुष की तदोपरांत इच्छा हुई

अन्य शरीर उत्पन्न हों।

तब मिथुनात्मक सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हुआ।

युग्म बने नर-नारी, पशु और पक्षियों तथा जलचरों में नर-मादा के

मिथुन-संयोग से क्रमिक विकास हुआ जीवन का ।

इसके पालन के लिए सृजन हुआ अन्न से मन और मन से वाणी का ।

वाणी से सृजन हुआ ऋक्, यजु, साम का




प्रजापति के हुए दो वर्ग

एक देवगण, दूसरे असुर।

देवगण संख्या में कम थे और असुरगण अधिक।

दोनों में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी।

देवताओं ने किया निश्चय

वे हावी होने का प्रयत्न करें

यज्ञ में सामूहिक मन्त्रगान द्वारा असुरों पर ।

ऐसा विचार करके उन्होंने निवेदन किया,

पहले वाक् से,

फिर प्राण, चक्षु, कान, मन, मुख, प्राण से उद्गीथ पाठ करने का ।

सभी ने देवताओं के लिए पाठ किया,

परन्तु हर बार असुरगणों ने उन्हें मुक्त कर दिया पाप से ।

इस कारण दूषित हो गये वाणी, प्राण-शक्ति, चक्षु, कान या मन .

नहीं कर पाए दूषित वे मुख में निवास करने वाले प्राण को ।

वहां असुरगण पूरी तरह पराजित हो गये।

मुख में समस्त अंगों का रस होने के कारण

कहा जाता है इसे ‘आंगिरस’ भी ।

इस प्राण-रूप देवता ने

इन्द्रियों के समस्त पापों को नष्ट किया

और बाहर कर दिया शरीर की सीमा से ।

तब प्राणदेवता ने दूर कर दिया

वाग्देवता वाणी, चक्षु, घ्राण-शक्ति, श्रवण-शक्ति, मन-शक्ति आदि से

मृत्यु-भय को

और फिर दूर कर दिया

प्राण-शक्ति को भी मृत्यु-भय से ।

फिर समस्त देवगुण प्रवेश कर गये प्राण में

और बन गये अभय ।

यह प्राण ही ‘साम’ है।

वाक् ही ‘सा’ और प्राण ही ‘अम’ है।

दोनों के सहयोग से बनता है ‘साम’ ,

यदि प्राणतत्त्व से गायन किया जाये,

तो वह बनाता देता है सफल जीवन-साधना को ।

वाणी और हृदयगत भावों का संयोग

बना देता है साम गान को अमर ।




ब्रह्म के सिवा कोई दूसरा नहीं है सृष्टि में ।

‘अहस्मि, ‘अर्थात मैं हूं।

इसीलिए अहम संज्ञक कहा जाता है ब्रह्म को ।

एकाकी होने के कारण वह रमा नहीं।

तब उसने किसी अन्य की आकांक्षा की।

तब उसने अपने को नारी के रूप में विभक्त कर दिया।

अर्धनारीश्वर की कल्पना इसीलिए की गयी है।

पुरुष और स्त्री के मिलन से

विकास हुआ मानव-जीवन का ।

प्रथम चरण में प्रकृति संकल्प करके स्वयं को

ढालती गयी जिस-जिस पशु-पक्षी आदि जीवों के रूप में ,

उसका वैसा-वैसा रूप बनता गया

उसी के अनुसार उनके युग्म बने

मैथुनी सृष्टि से जीवन के विविध रूपों का जन्म हुआ।




ब्रह्म था सबसे पहले ‘ब्राह्मण’ वर्ण में ।

अपनी रक्षा के लिए उसने सृजन किया क्षत्रिय वर्ण का ।

फिर सृजन किया उसने वैश्य वर्ण का

अन्त में सृजन किया शूद्र वर्ण का।

उन्हीं की प्रवृत्तियों के अनुसार विभाजन किया कार्यों का ।

कर्म का विस्तार होने के उपरान्त

उत्पत्ति की ‘धर्म’ की ।

धर्म से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं ।

धर्म की सत्या है।

इसी ने ‘आत्मा’ से परिचय कराया

यह ‘आत्मा’ ही प्रदाता है समस्त जीवों को आश्रय की ।

यज्ञ द्वारा इसी ‘आत्मा' को प्रसन्न करने से प्राप्ति होती है

देवलोक की.







परमापिता ने सृष्टि का 
किया सृजन  
फिर क्षुधा-तृप्ति के लिए किया चार प्रकार के अन्नों का सृजन । 
उनमें एक प्रकार का अन्न सभी के लिए, 
दूसरे प्रकार का अन्न देवताओं के लिए, 
तीसरे प्रकार का अन्न अपने लिए  
चौथे प्रकार का पशुओं के लिए बना दिया । 
धरती से उत्पन्न अन्न सभी के लिए है। 
उसे समान रूप से उपभोग करने का अधिकार सभी को  । 
हवन द्वारा दिया जाने अन्न देवताओं के लिए है।
पशुओं को दिया जाने वाला खाद्यान्न दूध उत्पन्न करता है। 
यह दूध सभी के पीने योग्य है । 
शिशु  को मां  स्तनपान से  ही पिलाती है दूध।  

 एक वर्ष तक दूध से निरन्तर अग्निहोत्र करने पर

 मृत्यु भी वश में हो जाती है । 
उस पुरुष ने तीन अन्नों का चयन अपने लिए किया। 
ये तीन अन्न-‘मन, ‘वाणी’ और ‘प्राण’ हैं 
वाणी द्वारा पृथ्वीलोक को, 
मन द्वारा अन्तरिक्षलोक को  
प्राण द्वारा स्वर्गलोक को पाया जा सकता है। 
वाणी ॠग्वेद, 
मन यजुर्वेद, 
प्राण सामवेद है। 
जो कुछ भी जानने योग्य है, 
वह मन का स्वरूप है। 
वाणी ज्ञान-स्वरूप होकर करती है जीवात्मा की रक्षा  
जो कुछ अनजाना है, 
वह प्राण-स्वरूप है।
इस विश्व में जो कुछ भी स्वाध्याय या ज्ञान है, 
वह सब ‘ब्रह्म’ से ही एकीकृत है। 
वस्तुत: यह सूर्य निश्चित रूप से प्राण से ही उदित होता है 
और प्राण में ही समा जाता है। 


इस संसार में जो कुछ भी है, 

वह नाम, रूप और कर्म, 
इन तीनों का ही समुदाय है। 
इन नामों का उपादान ‘वाणी’ हैं। 
समस्त नामों की उत्पत्ति इस वाणी द्वारा ही होती है। 
समस्त रूपों का उपादान ‘चक्षु’ है। 
समस्त सूर्य इस चक्षु से ही उत्पन्न होते हैं। 
समस्त रूपों को धारण करने से 
चक्षु ही इन रूपों का प्राण है, ‘ब्रह्म’ है। 
समस्त कर्मों का उपादान यह ‘आत्मा’ है। 
समस्त कर्म शरीर से ही होते हैं 
और उसकी प्रेरणा 
शरीर में स्थित यह आत्मा ही देती है। 
यह ‘आत्मा’ ही सब कर्मों का ‘ब्रह्म’ है। 
आत्मा द्वारा ही नाम, रूप और कर्म उत्पन्न हुए हैं। 
अत: ये तीनों अलग होते हुए भी एक आत्मा ही हैं। 
यह आत्मा सत्य से आच्छादित है। 
यही अमृत है। 
प्राण ही अमृत-स्वरूप है। 
नाम और रूप ही सत्य हैं। 
अमृत और सत्य से ही प्राण आच्छन्न है, 
ढका हुआ है, अज्ञात है।


 ‘ब्रह्मज्ञान’ का उपदेश देने 

एक बार गर्ग गोत्रीय बालाकि ऋषि वेद प्रवक्ता 
काशी नरेश अजातशत्रु के दरबार में पहुंचते हैं। 
वहां वे अहंकारपूर्ण वाणी में 
‘ब्रह्मज्ञान’ का उपदेश देने की बात करते हैं 
इस पर विद्वान् अजातशत्रु बदले में 
उन्हें एक सहस्त्र गौएं प्रदान करने की बात करते हैं, 
परन्तु बालाकि मुनि अजातशत्रु को सन्तुष्ट नहीं कर पाते। 

जो ब्राह्मण में है, 

वही मानव-शरीर में विद्यमान है। 
 यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे, 
अर्थात जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से 
इस शरीर में विद्यमान है, 
वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है। 
वास्तव में इस विशाल सृष्टि का 
अतिसूक्ष्म रूप 
परमात्मा ने 
इस मानव-शरीर में स्थापित किया है
वह स्वयं भी इस शरीर में 
विराजमान है प्राण-शक्ति के रूप में । 

 जिसने आधार, प्रत्याधान , खूंटा , 
अर्थात अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति
और दाम 
यानी बांधने की रस्सी,  
वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है
 को समझ लिया, 
वह प्राप्त कर लेता है परमज्ञान। 

यह शिशु अथवा ‘प्राण’  हैं 
मानव-शरीर का आधार
‘शीर्ष’, पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, जिह्वा और मन
हैं प्रत्याधान । 
श्वास की स्थूणा और दाम  है ‘अन्न’। 
प्राणतत्त्व का है इस शरीर से गहरा सम्बन्ध। 
इसके बिना 
शरीर की सक्रियता 
अथवा 
गतिशीलता की कल्पना ही नहीं की जा सकती
इसीलिए इसे शरीर का आधार माना गया है। 
‘शीर्ष’ ही करता है 
समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण   
‘श्वास’ ही है प्राण की स्थूणा शक्ति । 
प्राण का आधार है ‘अन्न’ । 
शिशु की ऊपरी पलक  है ‘द्युलोक’ 
निचली पलक है ‘पृथ्वीलोक’ । 
पलकों का झपकना है रात और दिन । 

आंखों के लाल डोरे हैं 
 
रुद्र/ अग्नितत्त्व । 
नेत्रों का गीलापन है जलतत्त्व , 
सफ़ेद भाग आकाश है, 
काली पुतली पृथ्वी-तत्त्व है  
पुतली के मध्य स्थित तारा सूर्य है, 
आंखों के छिद्र वायुतत्त्व हैं। 
इस रहस्य को समझने वाला साधक 
कभी अभावग्रस्त नहीं होता। 
हृदय-रूपी आकाश 
या फिर प्राण-रूपी तट पर 
‘सप्त ऋषि’ विद्यमान हैं 
दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, 
यही  सप्त ऋषि हैं। 
इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं ‘वाणी’ है। 
ये दोनों कान गौतम और भारद्वाज ऋषि हैं 
ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि ऋषि हैं, 
दोनों नासिका छिद्र वसिष्ठ और कश्यप हैं 
और वाक् ही सातवें अत्रि ऋषि हैं। 
जो ऐसा जानता है, 
वह है समस्त अन्न भोगों का स्वामी । 

 ‘ब्रह्म’ कें दो रूप होते हैं 

‘मूर्तय और ‘अमूर्त,’ 
‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ 
 जो मूर्त या व्यक्त है, 
वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, 
मारणधर्मा है, 
लेकिन  अमूर्त या अव्यक्त 
है  सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील। 
आदित्य मण्डल में विराजित  विशिष्ट तेजस्-स्वरूप पुरुष , 
वो  है अमर्त्य और अव्यक्त भूतों का सार-रूप । 
वायु और अन्तरिक्ष भी हैं अव्यक्त और अमर्त्य । 
वे हैं निरन्तर गतिशील । 
मानव-शरीर में आकाश और प्राणतत्त्व से भिन्न 
पृथ्वी, जल, अग्नि का अंश विद्यमान है, 
वह मूर्त और मरणधर्मा है। 
नेत्र इस सत् का सार-रूप है। 

‘ब्रह्म’ के लिए सर्वोत्तम उपदेश
 ‘नेति-नेति’ है, 
उस परब्रह्म के यथार्थ रूप को 
पूर्ण रूप से कोई भी 
आज तक नहीं जान सका। 
उसे ‘सत्य’ नाम से जाना जाता हैं 
यह प्राण ही निश्चय रूप से ‘सत्य’ है 
वही ‘ब्रह्म’ का सूक्ष्म रूप हैं 
इसी में  समाया है समस्त ब्रह्माण्ड। 




 महर्षि याज्ञवल्क्य व उनकी पत्नी  मैत्रेयी में संवाद 


 धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। 
अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; 
आत्मा  द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।
पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, 
पति को पत्नी प्रिय होती है। 
इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, 
अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है। 
वहीं  ‘आत्म-दर्शन’ के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।

  ‘जल’ का आश्रय समुद्र है, 

‘स्पर्श’ का आश्रय त्वचा है, 
‘गन्ध’ का आश्रय नासिका है,
 ‘रस’ का आश्रय जिह्वा है, 
‘रूपों’ का आश्रय चक्षु हैं, 
‘शब्द’ का आश्रय कान हैं, 
सभी ‘संकल्पों’ का आश्रय मन है, 
‘विद्याओं का आश्रय हृदय है, 
‘कर्मों’ का आश्रय हाथ हैं, 
समस्त ‘आनन्द’ का आश्रय उपस्थ इन्द्री है, 
‘विसर्जन’ का आश्रय पायु  है, 
समस्त ‘मार्गो’ का आश्रय चरण हैं 
 समस्त ‘वेदों’ काक आश्रय वाणी है, 
उसी प्रकार सभी ‘आत्माओं’ का आश्रय ‘परमात्मा’ है।’
 जिस प्रकार 

जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, 
उसी प्रकार 
महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में 
सभी आत्माएं  समाकर विलुप्त हो जाती हैं। 
जब तक ‘द्वैत’ का भाव बना रहता है, 
तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, 
किन्तु ‘अद्वैत’ भाव के आते ही आत्मा, 
परमात्मा में लीन हो जाता है.

 मन्त्र दृष्ट ने कहा  

परब्रह्म ने सर्वप्रथम दो पैर वाले और चार पैर वाले 
शरीरों का निर्माण किया था। 
उसके पश्चात वह विराट पुरुष उन शरीरों में प्रविष्ट हो गया। 
उसने कहा कि शरीरधारी को
 उसके यथार्थ रूप में प्रकट करने के लिए 
वह पुरुष शरीरधारी के प्रतिरूप 
जल, वायु, आकाश आदि की भांति हो जाता है। 
परमात्मा एक होते हुए भी 
माया के कारण अनेक रूपों वाला प्रतिभासित होता है। 
‘आत्मा’ ही ‘ब्रह्मरूप’ है।

यह समस्त पृथ्वी, 

समस्त प्राणी, 
समस्त जल, 
समस्त अग्नि, 
समस्त वायु, 
आदित्य, 
दिशाएं, 
चन्द्रमा, 
विद्युत, 
मेघ, 
आकाश, 
धर्म, 
सत्य 
और मनुष्य 
आत्मरूप है। 
सभी में वह 
विनाशरहित, तेजस्वी ‘आत्मा’ विद्यमान है। 
वही सर्वव्यापी परमात्मा का सूक्ष्म अंश है। 
यह ‘आत्मा’ समस्त जीवों का मधु है 
और जीव इस आत्मा के मधु हैं। 
इसी में वह तेजस्वी व अविनाशी पुरुष 
‘परब्रह्म’ के रूप में स्थित है। 
वह ‘ब्रह्म’ कारणविहीन, 
कार्यविहीन, 
अन्तर और बाहर से विहीन
 अमूर्त रूप है।  
उस आत्मा का चिन्तन करके ही, 
परमात्मा तक पहुंचना चाहिए।

एक बार विदेहराज जनक ने 

एक महान यज्ञ किया। 
उस यज्ञ में कुरु और  पांचाल प्रदेशों के 
बहुत से विद्वान पधारे। 
राजा ने  सर्वोत्कृष्ट विद्वान का पता लगाने के लिए ,
अपनी गौशाला से 
एक सहस्त्र स्वस्थ गौओं के सीगों में 
स्वर्ण बंधवा दिया और 
सभी को सम्बोधित करके कहा 
सर्वाधिक ब्रह्मनिष्ठ इन गौओं को ले जाये।

उन ब्राह्मणों में से 

किसी का भी साहस नहीं हुआ, 
महर्षि याज्ञवल्क्य ने 
अपने एक शिष्य सामश्रवा से 
उन गौओं को हांक ले जाने के लिए कहा। 
अन्य ब्राह्मण क्रोधित हो उठे 
 चीखने-चिल्लाने लगे 
कि यह हमसे सर्वश्रेष्ठ कैसे हे? 
तब उनके मध्य शास्त्रार्थ हुआ 
अश्वल ने प्रश्न किया 
याज्ञवल्क्य ने उसके प्रश्नों का उत्तर दिया-

अश्वल  - 

‘हे मुनिवर! जब यह सारा विश्व मृत्यु के अधीन है, 
तब केवल यजमान ही किस प्रकार 
मृत्यु के बन्धन का अतिक्रमण कर सकता है?

याज्ञवल्क्य- 

होता नामक ऋत्विक वाक् (वाणी) और अग्नि है। 
वह इन दोनों शक्तियों के द्वारा मृत्यु को पार कर सकता है। 
वही मुक्ति और अतिमुक्ति है। 
 जो ‘होता’ वाणी द्वारा 
उद्भूत मन्त्रों और यज्ञ की अग्नि के द्वारा 
परम ‘ब्रह्म’ का ध्यान करते हुए 
‘नाद-ध्वनि’ उत्पन्न करता है, 
वह उस ‘नाद-ब्रह्म' द्वारा मृत्यु को भी जीत लता है। 
‘होता’ यज्ञ का पुरोहित होता है, 
वह यज्ञ में वाणी द्वारा 
अक्षर-ब्रह्म की ही साधना करता है। 
उसकी साधना करने वाला सिद्ध पुरोहित 
मृत्यु को भी अपने वश में करने वाला होता है। 

अश्वल-
’हे मुनिवर! समस्त दृश्य जगत 
दिन और रात्रि के अधीन है। 
 इस पर विजय का उपाय क्या है?’

याज्ञवल्क्य-

‘ऋत्विक नेत्र और सूर्य के माध्यम से मुक्त हो सकता है,
 अध्वर्यु ही यज्ञ का चक्षु है। 
 नेत्र ही आदित्य है और वही अध्वर्यु है। 
मुक्ति और अतिमुक्ति भी वही है।’
 ‘चक्षु’ का तात्पर्य भौतिक चक्षुओं से न होकर 
मन की आंखों से है। 
एक योगी मन की इन्हीं आंखों से 
‘इड़ा’ और पिंगला  नाड़ियों का भेदन करके 
सुषुम्ना में लीन होकर जीवन्मुक्त हो जाता है। 
उसे रात का अन्धकार 
और दिन का प्रकाश 
एक समान ही प्रतीत होता है। 
यह एक योगिक प्रक्रिया है।

अश्वल -

‘हे मुनिवर! सब कुछ ‘कृष्ण पक्ष’ और ‘शुक्ल पक्ष’ के अधीन है। फिर यजमान किस प्रकार इनसे मुक्त हो सकता है?’

याज्ञवल्क्य-

‘ऋत्विज्, उद्गाता, वायु और प्राण के माध्यम से मुक्त हो सकता है। उद्गाता को यज्ञ का प्राण कहा गया है 
 यह प्राण ही वायु और उद्गाता है। 
यही मुक्त और अतिमुक्ति का स्वरूप हैं।’ 
यहाँ इन दोनों पक्षों का तात्पर्य स्वर-विज्ञान पर आधारित है। प्राणायाम में प्राणवायु की गति को
 सिद्ध करके मन को शान्त किया जाता है। 
उसके द्वारा मृत्यु की गति भी रोकी जा सकती है। 
जो योगी प्राणायाम के अभ्यास से श्वास को जीत लेता है, 
उसके समस्त भौतिक विकार नष्ट हो जाते हैं। 
इन विकारों का नष्ट होना ही मृत्यु पर विजय पाना है।

अश्वल -

‘हे ऋषिवर! यह जो अन्तरिक्ष है, निरालम्ब, अर्थात आधारहीन प्रतीत होता है। फिर यजमान कैसे स्वर्गरोहण करता है?’

याज्ञवल्क्य -

‘ऋत्विज, ब्रह्मा और चन्द्रमा के द्वारा स्वर्गारोहण करता है। 
मन ही चन्द्रमा है। 
मन ही यज्ञ का ब्रह्मा है। 
मृक्ति, अतिमुक्ति भी वही है।’
यहाँ मन और मन में उठे विचारों की 
अत्यन्त तीव्र और अनन्त गति की ओर संकेत है। 
मन और मन के विचारों को 
घनीभूत करके कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। 
उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। 

अश्वल-
’होता ऋत्विक आज यज्ञ में कितनी ऋचाओं का उपयोग करेगा?’

याज्ञवल्क्य -

‘तीन ऋचाओं का।’ 

अश्वल -

‘उन ऋचाओं के नाम क्या है?’

याज्ञवल्क्य -

 ‘पहली पुरोनुवाक्या , दूसरी याज्मा  और तीसरी शस्या है।’

अश्वल-

‘इनसे किसे जीता जाता है?’

याज्ञवल्क्य -

‘समस्त प्राणि समुदाय को।’

अश्वल -

‘आज यज्ञ में कितनी आहुतियां डाली जायेगी?’

याज्ञवल्क्य -

‘तीन।’

अश्वल-‘तीन कौन-कौन सी?’

याज्ञवल्क्य -

‘पहली वह, जो होम करने पर प्रज्ज्वलित होती है। 
दूसरी वह, जो होम करने पर शब्द करती है 
 तीसरी वह, जो होम करने पर पृथ्वी में समा जाती है। 
इनसे यज्ञमान 
‘देवलोक’, ‘पितृलोक’ और ‘मृत्युलोक’ को जीत लेता है।

अश्वल -


‘हे मुनिवर! आज उद्गाता इस यज्ञ में कितने स्तोत्रों का गायन करेगा?’

याज्ञवल्क्य -

‘तीन स्तोत्रों का। वे तीन स्तोत्र हैं- पुरोनुवाक्या, याज्या और शस्या।’

अश्वल -

‘इनमें से कौन मनुष्य के शरीर में रहने वाले हैं?’

याज्ञवल्क्य -

‘पुरोनुवाक्या से पृथ्वी लोक पर, 
याज्या से अन्तरिक्ष लोक पर  
शस्या से द्युलोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है।’

याज्ञवल्क्य के उत्तर सुनकर अश्वल चुप हो गये और ब्रह्मऋषि की श्रेष्ठता स्वीकार करके पीछे हट गये। तब ऋषि ने दूसरे ब्राह्मणों की ओर दृष्टिपात किया कि अब वे प्रश्न पूछ सकते हैं।

 आर्तभाग और ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ  शास्त्रार्थ

आर्तभाग—

’ऋषिवर! ग्रहों और अतिग्रहों की संख्या कितनी है?
 वे ग्रह और अतिग्रह कौन-कौन से हैं?’

याज्ञवल्क्य -

‘ग्रह आठ हैं  
आठ ही अतिग्रह भी हैं। 
‘प्राण’ ग्रह है  
‘अपान’ अतिग्रह है, 
‘वाक्शक्ति’ ग्रह है 
 ‘नाम’ अतिग्रह है, 
‘रसना’ ग्रह है  
‘रस’ अतिग्रह है, 
‘नेत्र’ ग्रह है  
‘कामना’ अतिग्रह है, 
‘हाथ’ ग्रह है  
‘कर्म’ अतिग्रह है, 
‘त्वचा’ ग्रह है  
‘स्पर्श’ अतिग्रह है। 
ये आठों ग्रह और आठों अतिग्रह 
एक-दूसरे के पूरक हैं;‘
अपान’ से सूंघने का, 
‘नाम’ से उच्चारण का, 
‘रस’ से स्वाद का कार्य होता है 
 ‘रूप’ दोनों द्वारा ही देखा जाता है, 
‘शब्द’ कान द्वारा सुना जाता है, 
‘कामनाएं’ मन में ही उदित होती हैं, 
‘कर्म’ हाथों से ही किये जाते हैं, 
‘स्पर्श’ का अनुभव त्वचा ही करती है।’ 

आर्तभाग -

‘हे याज्ञवल्क्य! इस सृष्टि में जो कुछ भी है, 
सभी मृत्यु का ग्रास है। 
अत: वह कौन-सा देवता है, 
मृत्यु जिसका भोजन है?’

याज्ञवल्क्य -

‘अग्नि ही मृत्यु है 
 वह जल का भोजन है। 
इस तथ्य को जानने वाला 
मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।’

आर्तभाग -

‘मृत्यु के समय क्या प्राण शरीर छोड़ जाते हैं?’

याज्ञवल्क्य -

‘प्राण शरीर नहीं छोड़ता। 
‘आत्मतत्त्व’ शरीर छोड़ जाता है। 
शेष प्राण शरीर में रहकर 
वायु को शरीर में खींचता है। 
इसी से शरीर फूल जाता है।’

आर्तभाग -

‘मरने के बाद भी पुरुष को क्या नहीं छोड़ता?’

याज्ञवल्क्य -

‘नाम पुरुष को नहीं छोड़ता। 
उसका नाम 
उसके शुभ-अशुभ कर्मों से जुड़ा रहता है।’

आर्तभाग -

‘जिस समय इस पुरुष की वाणी 
अग्नि में विलीन हो जाती है 
 प्राण वायु में, 
चक्षु आदित्य में, 
मन चन्द्रमा में, 
श्रोत्र दिशाओं में, 
शरीर पृथ्वी में, 
आत्मा आकाश में, 
लोभ समूह औषधियों में, 
केश वनस्पतियों में 
रक्त व वीर्य जल में विलीन हो जाता है, 
उस समय वह पुरुष कहां निवास करता है?’

याज्ञवल्क्य -

‘सौम्य आर्तभाग! 
तुम मुझे अपना हाथ पकड़ाओ । 
हम दोनों को ही इस प्रश्न का उत्तर समझना होगा, 
किन्तु इस जनसभा के मध्य नहीं।’ 
कुछ देर के लिए दोनों ने सभा से बाहर 
एकान्त में जाकर चिन्तन किया 
लौटकर दोनों कर्म के विषय में 
प्रशंसा करने लगे। 

याज्ञवल्क्य -
‘निश्चित ही पुण्यकृत्यों से 
पुण्य और पापकृत्यों से 
पाप कमाया जाता है। 
मृत्यु के उपरान्त मनुष्य अपने इन्हीं कर्मों में रहता है।’ 

  उषस्त ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद

उषस्त -

‘हे ऋषिवर! 
जो प्रत्यक्ष और साक्षात् ‘ब्रह्मा’ है 
समस्त जीवों में स्थित ‘आत्मा’ है, 
उसके विषय में बताइये?’

याज्ञवल्क्य -

‘तुम्हारी आत्मा ही 
सभी जीवों के अन्तर में विराजमान है। 
जो प्राण के द्वारा जीवन-प्रक्रिया है, 
वही प्रत्यक्ष ब्रह्म का स्वरूप’ आत्मा’ है।’

उषस्त -

‘आप हमें साक्षात प्रत्यक्ष ‘ब्रह्म’ को 
सर्वान्तर ‘आत्मा’ को स्पष्ट करके बतायें।’

याज्ञवल्क्य -

‘तुम्हारी आत्मा ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित है। 
दृष्टि देने वाले दृष्टा को देख सकना, 
श्रुति के श्रोता को सुन सकना, 
मति के मन्ता को मनन करना, 
विज्ञाति के विज्ञाता को जान सकना 
तुम्हारे लिए असम्भव है। 
तुम्हारी ‘आत्मा’ ही सर्वान्तर ब्रह्म है  
शेष सब कुछ नाशवान है।’


 वचक्रुसुता गार्गी और ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद 

 गार्गी—
’जब सभी कुछ जल में ओत-प्रोत है, 
तब जल किसमें ओत-प्रोत है?’ 

 याज्ञवल्क्य—
’जल वायु में, 
वायु अन्तरिक्षलोक में, 
अन्तरिक्ष गन्धर्वलोक में, 
गन्धर्वलोक 
आदित्यलोकों में, 
आदित्यलोक 
चन्द्रलोकों में, 
चन्द्रलोक नक्षत्र लोकों में, 
नक्षत्रलोक देवलोकों में, 
देवलोक इन्द्रलोक में, 
इन्द्रलोक प्रजापतिलोक में, 
प्रजापतिलोक ब्रह्मलोक में ओत-प्रोत है।’ 

 गार्गी- 

' ब्रह्मलोक किस में ओत-प्रोत है?'

याज्ञवल्क्य-
‘ जिसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता, 
उसके विषय में अहंकारपूर्ण तर्क करना उचित नहीं है। 
कहीं ऐसा न हो कि अनर्गल प्रश्नों के कारण 
अपमानित होना पड़े।'

 उद्दालक और महर्षि याज्ञवल्क्य के बीच संवाद  


उद्दालक- 
 ‘लोक-परलोक  सूत्र क्या है ?' 

याज्ञवल्क्य-
'वह सूत्र ‘वायु सूत्र’ है; 
क्योंकि इहलोक, परलोक और समस्त प्राणी 
इस वायु के द्वारा ही गुंथे हुए हैं
इसके अतिरिक्त, 

जो इस पृथ्वी में संव्याप्त है, 
पृथ्वी ही जिसका शरीर है, 
पर पृथ्वी उसे नहीं जानती, 
जो उसके भीतर बैठा हुआ 
सभी कुछ नियन्त्रण कर रहा है। 
वस्तुत: यह तुम्हारा ‘आत्मा’ है, 
जो अविनाशी है और अन्तर्यामी है। 
वह जल में, अग्नि में, अन्तरिक्ष में, 
वायु में, द्युलोक में, 
आदित्य में, 
समस्त दिशाओं में, 
चन्द्र में, तारों में, 
आकाश में, 
अन्धकार में, 
प्रकाश में, 
समस्त जीवों में, 
प्राण में, 
वाणी में, 
नेत्रों में, 
कानों में, 
मन में, 
त्वचा में, 
विज्ञान में 
और वीर्य के सूक्ष्म रूप में 
निवास करता है। 
वह अनश्वर है, ‘
नेति नेति’ है। 
केवल ‘आत्मा’ द्वारा ही 
उस अन्तर्यामी और अविनाशी ‘ब्रह्म’ 
को जाना जा सकता है।'

 वाचक्रवी गार्गी  याज्ञवल्क्य  पुन: संवाद 


गार्गी—
’हे ऋषिवर! 
जो द्युलोक से ऊपर है 
पृथ्वी लोक से नीचे है 
‘द्यु’ और ‘पृथ्वी’ के मध्य भाग में स्थित है 
और जो स्वयं ‘द्यु’ और ‘पृथ्वी’ है 
तथा जो स्वयं भूत, भविष्य और वर्तमान है, 
वह किसमें ओत-प्रोत है?’ 

याज्ञवल्क्य—
’हे गार्गी! 
द्युलोक से ऊपर,
पृथ्वी से नीचे 
‘द्यु’ और  पृथ्वी के मध्य भाग में 
जो स्थित है 
जो स्वयं भी ‘द्यु’ और ‘पृथ्वी’ है 
जो भूत, भविष्य और वर्तमान कहलाता है, 
वह आकाश में ओत-प्रोत है।’ 

गार्गी-
’हे ऋषिवर! 
तो फिर यह आकाश किसमें ओतप्रोत है?’

याज्ञवल्क्य-

’हे गार्गी! 
उस तत्त्व को ब्रह्मवेत्ता
 ‘अक्षर’ कहते हैं। 
वह न स्थूल है, 
न सूक्ष्म है, 
न छोटा है, 
न लम्बा है, 
न लाल है, 
न चिकना है, 
न छाया है, 
न अन्धकार है, 
न वायु है 
न आकाश है। 
वह गन्ध और रस से हीन है। 
वह बिना नेत्रों के, 
बिना कानों के, 
बिना वाणी के, 
बिना मन के, 
बिना तेज़ के, 
बिना प्राण है,
उसका न कोई मुख है, 
न उसका कोई माप है 
और उसका आदि-अन्त भी नहीं है।
वह न भीतर है, 

न बाहर है, 
न कुछ खाता है.  
न कोई उसका भक्षण कर सकता है।
इस  ‘अक्षरब्रह्म’ के अनुशासन में 
सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथ्वी, 
निमेष, मुहूर्त, रात-दिन, 
अर्धमास, मास, ऋतु संवत्सर 
आदि स्थित हैं। 
इसी अक्षर के अनुशासन में 
विभिन्न नदियां पर्वतों से निकलकर 
पूर्व-पश्चिम दिशाओं में बहती हैं। 
इस अक्षरब्रह्म के अनुशासन में ही
उस ‘परब्रह्म’ की- मानव ही नहीं- 
देवता भी प्रशंसा करते हैं।’
इस ‘अक्षरब्रह्म’ को न जानकर, 

जो इस लोक में 
यज्ञादि कर्मकाण्ड करता है, 
हज़ारों वर्षों तक तप करके 
पुण्य अर्जित करते हैं, 
वे सभी नाशवान हैं। 
इस अविनाशी ‘अक्षरब्रह्म’  को जाने बिना, 
जो इस लोक से जाते हैं, 
वे ‘कृपण’ हैं, 
किन्तु जो इसे जानकर 
इस लोक से प्रयाण करते हैं, 
वे ‘ब्राह्मण’ हैं। 
 यह ‘अक्षरब्रह्म’ 
स्वयं दृष्टि का विषय नहीं है, 
सभी  को देखने वाला है। 
वह सबकी सुनता है, सबका ज्ञाता है। 
इसी ‘अक्षरब्रह्म’ में यह आकाश तत्त्व ओत-प्रोत है।’ 

तब गार्गी ने सभासदों से कहा 

'आप में से किसी में इतनी सामर्थ्य नहीं है, जो इस ब्रह्मज्ञानी को जीत सके।'
ऐसा कहकर वह मौन हो गयी। 
गार्गी के कथन को सभी ने स्वीकार किया, 
किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने।

शाकल्य विदग्ध अत्यन्त अभिमानी थे। 

उन्होंने अंहकार में भरकर
याज्ञवल्क्य से प्रश्न पर प्रश्न करने प्रारम्भ कर दिये?’

शाकल्य -

‘देवगण कितने हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘तीन और तीन सौ, तीन और तीन सहस्त्र, अर्थात तीन हज़ार तीन सौ छह (3,306)।’
शाकल्य -
‘देवता कितने हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘तेंतीस (33)।’ शाकल्य ने इसी प्रश्न को बार-बार पांच बार और दोहराया। 
इस पर याज्ञवल्क्य ने हर बार संख्या घटाते हुए 
देवताओं की संख्या
 क्रमश: छह, तीन, दो, डेढ़ और अन्त में एक बतायी। 

शाकल्य -
’फिर वे तीन हज़ार तीन सौ छह देवगण कौन हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘ये देवताओं की विभूतियां हैं। देवगण तो तेंतीस ही हैं।’

शाकल्य -‘वे कौन से हैं?’
याज्ञवल्क्य-

‘आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति।’

शाकल्य -

‘आठ वसु कौन से है?’ याज्ञवल्क्य-
‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। 
अत: ये वसुगण हैं।’ 

शाकल्य-
’ग्यारह रुद्र कौन से हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘पुरुष में स्थित दस इन्द्रियां, एक आत्मा। 
मृत्यु के समय ये शरीर छोड़ जाते हैं 
और प्रियजन को रूलाते हैं। अत: ये रुद्र हैं।’

शाकल्य-

‘बारह आदित्य कौन से है?’ याज्ञवल्क्य-
‘वर्ष के बारह मास ही बारह आदित्य हैं।’

शाकल्य-

‘इन्द्र और प्रजापति कौन हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘गर्जन करने वाले मेघ ‘इन्द्र’ हैं 
‘यज्ञ’ ही ‘प्रजापति’ है। 
गर्जनशील मेघ ‘विद्युत’ है
‘पशु’ ही यज्ञ है।’

शाकल्य -

‘छह देवगण कौन से हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘पृथ्वी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ और आदित्य।’

शाकल्य-

‘तीन देव कौन से हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘तीन लोक- पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक, पाताललोक। 
ये तीनों देवता हैं। 
इन्हीं में सब देवगण वास करते हैं।’

शाकल्य -

'दो देवता कौन से हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘अन्न और प्राण ही वे दो देवता हैं।’

शाकल्य -

‘वह डेढ़ देवता कौन है?’ याज्ञवल्क्य-
‘वायु डेढ़ देवता है; क्योंकि यह बहता है और इसी में सब की वृद्धि है।’

शाकल्य -

‘एक देव कौन सा है?’ याज्ञवल्क्य-
‘प्राण ही एकल देवता है। 
वही ‘ब्रह्म’ है, वही तत्  है।’

शाकल्य-

‘पृथ्वी जिसका शरीर है, 
अग्नि जिसका लोक है, 
मन जिसकी ज्योति है
जो समस्त जीवों का आत्मा है, 
आश्रय-रूप है, 
ब्रह्मज्ञ है, 
उस पुरुष को जानते हो?’ याज्ञवल्क्य-
‘जानता हूं। वही इस शरीर में व्याप्त है।’

शाकल्य -

'उसका देवता कौन है?’ याज्ञवल्क्य-
‘उसका देवता ‘अमृत’ है।’

शाकल्य -

‘काम जिसका शरीर है, 
हृदय जिसका लोक है, 
मन ही जिसकी ज्योति है, 
जो समस्त जीवों का आत्मा है, 
उसे जानने वाला ब्रह्मज्ञानी कहलाता है। 
उसे जानते हो?’ याज्ञवल्क्य-
‘जानता हूं। 
वह ‘काममय’ पुरुष है 
उसका देवता ‘स्त्रियां’ हैं।’

शाकल्य -

‘रूप ही जिसका शरीर है, 
नेत्र ही लोक हैं, 
मन ही ज्योति है, 
जो सभी का आश्रय-रूप है, 
उसे जानने वाला सर्वज्ञाता  है। 
क्या तुम उसे जानते हो? 

याज्ञवल्क्य-
‘जानता हूं। 
वह पुरुष ‘आदित्य’ है 
‘सत्य’ ही उसका देवता है।’

शाकल्य -

‘आकाश जिसका शरीर है, 
श्रोत्र जिसका लोक है, 
मन जिसकी ज्योति है, 
उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला 
ब्रह्मज्ञानी होता है। 
उसे जानते हो?’ याज्ञवल्क्य-
 ‘जानता हूं। 
वह ‘प्रातिश्रुत्क’ पुरुष है  
‘दिशाएं’ उसकी देवता है।’

शाकल्य -

‘अन्धकार जिसका शरीर है, 
हृदय जिसका लोक है, 
मन जिसकी ज्योति है, 
उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला 
ब्रह्मज्ञानी होता है। 
उसे जानते हो?’ याज्ञवल्क्य-
‘जानता हूं। 
वह ‘छायामय’ पुरुष है 
‘मृत्यु’ उसका देवता है।’

शाकल्य -

‘रूप जिसका शरीर है, 
चक्षु देखने की शक्ति है, 
मन ज्योति है, 
सर्वभूतों में स्थित आत्मा है, 
उसे जानने पर ‘सर्वज्ञ’ की संज्ञा प्राप्त होती है। 
उसे जानते हो?’ याज्ञवल्क्य-
‘जानता हूं। 
वह वही पुरुष है, 
जो दर्पण में दिखाई देता है। 
उसका देवता ‘प्राण’ है।’

शाकल्य -

‘वीर्य जिसका शरीर है, 
हृदय लोक है और मन ज्योति है। 
उस सर्वभूताश्रय पुरुष को जानने वाला 
सर्वज्ञाता होता है। 
उसे जानते हो?’ याज्ञवल्क्य-
‘जानता हूं। 
वह ‘पुत्र’ रूप में पुरुष है। 
‘प्रजापति’ उसका देवता है।’

शाकल्य -

‘आप कुरु और पांचालप्रदेश के ब्राह्मणों का तिरस्कार करके 
स्वयं को ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। 
क्या यह उचित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘मुझे देवताओं की प्रतिष्ठा के अनुसार 
दिशाओं का ज्ञान है।’

शाकल्य -

‘फिर बताइये कि पूर्व में 
आप किस देवता से युक्त हैं 
वह किसमें स्थित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘वहां मैं आदित्य देवता के साथ युक्त हूं 
वह आदित्य ‘चक्षु’ में 
चक्षु ‘रूप’ में स्थित है। 
वह रूप ‘हृदय’ में स्थित है; 
ह्रदय  के द्वारा ही पुरुष को रूपों का ज्ञान होता है।’

शाकल्य -

‘हे याज्ञवल्क्य! 
आप सत्य कहते हैं। 
दक्षिण दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं 
वह देवता किसमें स्थित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘यम देवता से 
यम ‘श्रद्धा’ में स्थित है
श्रद्धा ‘हृदय’ में स्थित है 
हृदय के द्वारा ही पुरुष श्रद्धा को जानता है।’

शाकल्य-

‘सत्य है। 
पश्चिम दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं
वह देवता किसमें स्थित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘वरुण देवता से युक्त हूं 
वरुण देवता ‘जल’ में 
जल ‘वीर्य’ में स्थित है। 
यह वीर्य ‘हृदय’ में स्थित है; 
क्योंकि पिता की इच्छानुसार ही 
पुत्र का जन्म होता है।’

शाकल्य -

‘ठीक है। 
उत्तर दिशा में आप किस देवता से संयुक्त हैं  
वह देवता किसमें स्थित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘सोम देवता से 
सोम ‘दीक्षा’ में, 
दीक्षा ‘सत्य’ में 
सत्य ‘हृदय’ में स्थित है
व्यक्ति हृदय से ही सत्य को जान पाता है।’

शाकल्य -

‘आप ध्रुव दिशा में किस देवता से युक्त हैं  
वह किसमें स्थित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘अग्निदेव से 
अग्निदेव ‘वाक्’ (वाणी) में, 
वाक् ‘हृदय’ में स्थित है; 
 हृदय से ही वाणी उत्पन्न होती है।’

शाकल्य -

‘यह हृदय किसमें स्थित है?’ याज्ञवल्क्य-
‘अरे प्रेत! 
तू हृदय को हमसे पृथक् मानता है? 
मूर्ख! हृदयहीन शरीर को तो 
कुत्ते और पक्षी नोंच-नोंचकर खा जाते हैं।’

शाकल्य -

‘आप क्रोधित न हों। 
यह बतायें कि यह शरीर और हृदय 
किसमें प्रतिष्ठित हैं?’ याज्ञवल्क्य-
‘ये प्राण में स्थित हैं। 
प्राण ‘अपान’ में, 
अपान ‘व्यान’ में, 
व्यान ‘उदान’ में, 
उदान ‘समान’ में स्थित है। 
यह ‘आत्मा’ नेति-नेति कहा जाता है। 
इसे न तो ग्रहण किया जा सकता है,
 न विनष्ट किया जा सकता हैं 
यह संग-रहित, अव्यवव्थित और अहिंसित है। 
इसके आठ शरीर, आठ देवता और आठ पुरुष हैं। 
यह व्यष्टि-रूप होकर, 
इन पुरुषों को अपने हृदय में रखकर 
सभी उपाधि-रूप धर्मों का अतिक्रमण किये रहता है। 
उपनिषद द्वारा ज्ञात उस पुरुष के बारे में 
आप मुझे बतायें, 
अन्यथा आपका मस्तक गिर जायेगा।'

 शाकल्य उस पुरुष के विषय में कुछ नहीं बता सका
 इसलिए उसका मस्तक गिर गया,  
फिर किसी का भी साहस याज्ञवल्क्य से प्रश्न करने का नहीं हुआ।

 राजा जनक ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद 


 जनक -
'यह पुरुष सभी कुछ प्रकाश के माध्यम से इस दृश्य जगत को देखता है और सोचता है कि यह ज्योति किसकी है? यह कहां से आती है और कहां चली जाती है?’ 

याज्ञवल्क्य-
' यह ज्योति ‘आदित्य’, 
अर्थात सूर्य से ही आती है। 
उसी से यह मनुष्य इस दृश्य जगत को देख पाता है। 
उसके अस्त होने पर 
‘चन्द्रमा’ के प्रकाश से देखता है
जब चन्द्रमा  कृष्ण पक्ष में अस्त हो जाता है
तो यह ‘अग्नि’ का सहारा लेता है।
जब अग्नि भी शान्त पड़ जाती है, 

तब यह वाणी का सहारा लेता है। 
लेकिन जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि तथा वाणी, 
ये चारों भी न हों, 
तो वह ‘योग-साधना’ के द्वारा सबको देखता है 
चैतन्य रहता हैं 
उस समय उसके पास आत्म-ज्योति होती है, 
जिससे वह देखता-सुनता है। 
मन और बुद्धि की वृत्तियों के अनुरूप 
शरीर के भीतर स्थित विज्ञानमय, 
आनन्दस्वरूप ज्योति, 
प्राणों के द्वारा घनीभूत होकर 
सूक्ष्म रूप में हृदय में स्थित हो जाती है। 
यही ‘आत्मा’ है। यही शरीर की जीवनी-शक्ति है।
यह शरीर में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहता है। 

यह विचारों की सृजन करता है, 
इन्द्रियों की शक्ति बनता है। 
गहन निद्रा के काल में यह शरीर में रहकर 
लोक-लोकान्तरों की यात्रा करता है। 
उस समय ‘आत्मा’ स्वयं अपने मन से 
अपने लिए सूक्ष्म शरीर धारण् कर लेता है 
भौतिक शरीर को स्वप्नों के संसार की सैर कराता है। 
यह ‘आत्मा’ दुष्कर्मों की मार से 
शरीर छोड़ने में किंचित भी विलम्ब नहीं करता। 
वह देह से पूर्णत: निर्लिप्त रहता है।'

जब आत्मा शरीर छोड़ने लगता है, 

तब वह इन्द्रियों में व्याप्त अपनी समस्त शक्ति को समेट लेता है 
हृदय क्षेत्र में समाहित होकर 
एक ‘लिंग शरीर’ का सृजन कर लेता है 
यह लिंग शरीर ही आत्मा को अपने साथ लेकर शरीर छोड़ता है। 
यह जिस मार्ग से निकलता है, 
वह अंग तीव्र आवेग से खुला रह जाता है।
उस समय आत्मा पूरी तरह चेतनामय होता है। 

उसमें जीव की प्रबलतम वासनाओं और संस्कारों का आवेग रहता है। उन्हीं कामनाओं के आधार पर 
वह नया शरीर धारण करता है। 
जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को पिघलाकर
एक रूप की रचना करता है, 
उसी प्रकार ‘आत्मा’ पंचभूतों के मिश्रण से 
एक नये शरीर की रचना कर लेता है। 
जो पुरुष निष्काम भाव से शरीर छोड़ते हैं, 
वे जीवन-मरण के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाते हैं 
और सदैव के लिए ब्रह्म की दिव्य ज्योति में विलीन हो जाते हैं।

‘ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूणात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 

ॐ3 खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति 
ह स्माह कौर व्यायणीपुत्रों वेदो यें ब्राह्मण विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम्॥1॥’ 

 'वह ब्रह्मण पूर्ण है, 
यह जगती पूर्ण है। 
उस पूर्व ब्रह्म से ही यह पूर्ण विश्व प्रादुर्भूत हुआ है। 
उस पूर्ण ब्रह्म में से इस पूर्ण जगत को निकाल लेने पर पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है।
ॐ अक्षर से सम्बोधित अनन्त आकाश

 परम व्योम ब्रह्म ही है। 
यह आकाश सनातन परमात्म-रूप है।
 जिस आकाश में वायु विचरण करता है, 
वह आकाश ही ब्रह्म है। 
यह ओंकार-स्वरूप ब्रह्म ही वेद है। 
इस प्रकार सभी ज्ञानी ब्राह्मण जानते हैं; 
क्योंकि जो जानने योग्य है, 
वह सब इस ओंकार-रूप वेद से ही जाना जा सकता है।


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