वारली कला शैली में बदलाव की लहर
वारली कला शैली में बदलाव की लहर
वारली कला शैली के बारे में पहली बार मैंने महाराष्ट्र पर्यटन के विज्ञापन में पढ़ा था। इस शैली में नृत्य करती, शिकार करती और खेती बाड़ी करती छोटी छोटी मानवीय आकृतियों ने मुझे आकर्षित किया। भूरी पृष्टभूमि में यह सफ़ेद आकृतियां सीधे ग्रामीण परिवेश में ले गयीं .
उत्सुकता बढ़ी तो गूगल पर छानबीन की , पता चला कि इस कला शैली का उद्गम दहाणु के आस पास कहीं है. अब तक तो मैं दहाणु को चीकू नगरी। के रूप में ही जनता था. मैंने फैसला किया कि इस इलाके की यात्रा की जाय और इस अनन्य लोक कला के बारे में खोज निकला जाय। मेरे चित्रकार मित्र सुजीत पोद्दार इस यात्रा में मेरे साथ बने रहे.
दहाणु मुंबई से केवल १३५ कि मी की दूरी पर है , चर्च गेट से यहाँ तक के लिए अब सीधी तेज लोकल मिलती है. इस यात्रा में जैसे ही विरार पार किया आगे दूर दूर तक कहीं आबादी दिखाई नहीं देती है , जिधर नजर घुमाओ पहाड़ियां और हरियाली ही नज़र आती है, हाँ अगर पालघर को छोड़ दें तो कहीं कहीं चंद झोपड़ियां ही दिखती हैं। यकीन नहीं आता कि महानगर के इतने करीब घना जंगल हो सकता है.
अपने खूबसूरत समुद्री किनारे के कारन दहाणु में शनिवार और रविवार को महानगर से काफी सैलानी आते हैं इस लिए काफी भीड़ भाड़ रहती है नहीं तो यह छोटा सा शांत दिखने वाला है, देखा जाय तो यह महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा रेखा पर है. लेकिन यहाँ बहुत काम लोगों को पता है कि इस इलाके का उस वारली चित्रकारी से कोई लेना देना है जो अब अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर चर्चित हो चुकी है. सुजीत ने प्रयास किया कि कोई ऐसा संपर्क मिल जाय जो हमें इस खोज में सहायता कर सके. सुजीत के परिचित प्रो दास ने एक संपर्क बताया था , यह प्रो दास पहले जे जे स्कूल आफ आर्ट में पढ़ाते थे अभी अवकाश प्राप्त कर चुके है और जेवर डिजायन करते हैं. दास जी के बताये फ़ोन पर संपर्क किया, यह अनिल वनगढ़ थे , वे दहाणु - जव्हार मार्ग पर स्थित गंजड गांव के रहने वाले है , संपर्क के ठीक एक घंटे में पहुँच गए. .
अनिल का गांव दहाणु से १५ किमी की दूरी पर है यहाँ तक पहुँचने के लिए मुख्य सड़क से अंदर कोई २ किमी जाना पड़ता है. पथरीले और पहाड़ी गांव को देख कर लगता है कि ७० साल में भी यहाँ कुछ खास बदला नहीं है आज भी घरों की दीवारें बांस और अन्य पत्तों से बनायी जाती हैं बाद में उन्हें गेरू से रंग दिया जाता है. छत हैं जरूर लेकिन मानसून के मौसम में लम्बी बरसात झेल नहीं पाती हैं, चिकित्सालय है तो चिकित्सक नहीं हैं, घर में कोई बीमार पड़ता है तो देवता को प्रसन्न करने के लिए मुर्गे की बलि चढाने की प्रतिज्ञा लेते हैं। इस सभी के बीच इस गांव के कई कलाकारों को अंतर्राष्ट्रीय ख्यति मिली है, अनिल भी उन में से एक हैं. दूसरे देशों में बसे वारली कला के चाहने वाले गंजड आ कर उस पूरे परिवेश की अनुभूति लेना चाहते हैं. अनिल पेंटिंग बेच कर और इन मेहमानों की मेहमान नवाजी से थोड़ा संपन्न हो गए हैं और उनका घर पक्का बन चुका है, इस में इतनी जगह है कि १५-२० विदेशी मेहमान आराम से रुक सकते हैं।
हम अनिल जी के घर में बैठ कर हर्बल चाय पी रहे हैं और हम उनसे पूछते हैं ,' यह चित्रकला शैली किस तरह प्रकाश में आयी ?'
अनिल बताते हैं ,' हमारे गांव का कोई व्यक्ति जाने माने कला प्रेमी केकू गाँधी के यहाँ काम करता था, उसी के माध्यम से इस कला शैली उन्हें पता चला. परम्परा के अनुसार हमारी जनजाति की महिलायें दीपावली और विवाह के अवसर पर पिसे चावल के घोल से दीवार पर चित्रकारी करती थीं। जिव्या सोम माशे हमारी जनजाति के पहले पुरुष कलाकार थे जिन्होंने विशेष अवसरों की जगह रोजाना की गतिविधियों को विषय वस्तु बना कर एक नयी परिपाटी शुरू की. केकू गांधी ने जिव्या की कलाकृतियों को राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय फलक प्रदान किया। इस बीच यशोधरा डालमिया और जतिंदर जैन ने वारली कलाकारी पर पुस्तक लिखी जो काफी चर्चित हुई और इससे भी इस कला को नया बाजार मिला। जिव्या को अपने कार्य के लिए पदम् पुरस्कार भी मिला।
मैंने पूछा,'अनिल आपके अनुसार वारली कला शैली का सार तत्व क्या है?'
अनिल कहते हैं ,' जहाँ मधुबनी लोककला पौराणिक आख्यानों पर आधारित है वहीँ हमारी कला भूमि का सम्मान करती है और हमारा विश्वास गांव वासियों और धरा के बीच दैविक संतुलन में है। इसके लिए हमारे कलाकार प्रतिदिन बदलते परिदृश्यों को अपने प्रेरणा बना कर प्रकृति के साथ सहअस्तित्व कायम रख कर आध्यात्मिकता को खोजने की कोशिश करते हैं। '
'इन पिछले वर्षों में वारली चित्रकला में क्या परिवर्तन आया है ?'
'हज़ारों वर्षों से हमारी वारली जनजाति की महिलाएं फसल या फिर मांगलिक अवसरों पर मिटटी की दीवारों पर चित्र उकेर कर आशीर्वाद की कामना करती रही हैं. वे चावल के पेस्ट को बारीक तिनकों और टहनियों से अपनी चित्र बनती थीं , उनके द्वारा उकेरे गए यह जटिल आकार पुरुष और स्त्री के बीच के संतुलन का भी प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. जब से पुरष इस क्षेत्र में आ गए हैं उन्होंने कैनवास, ब्रश को अपना लिया है ताकि यह कलाकृतियां लम्बे समय तक संरक्षित रहें , विषय विस्तार भी हुआ है थोड़ा आकार प्रकार और विषय में भी बदलाव हुआ है। पुरुष दिन प्रतिदिन की घटनाओं को भी अंकित करने लगे हैं '.
अनिल की स्कूली शिक्षा केवल नौवीं कक्षा तक ही हुई है लेकिन उन्होंने अपनी कला में महारथ हासिल कर ली है , यही कारण है कि उन्हें अमेरिका, यूरोप के कई देशों में जाने, अपनी कला के बारे में सेशन लेने का अवसर मिला है। कई लोग तो यह भी मानने लगे हैं कि वे जिव्या की परम्परा के नए वाहक हैं।
मैं पूछता हूँ ,' आप अपनी इस कला शैली का भविष्य किस तरह देखते हैं ?'
' हम लोगों का प्रयास है कि इस परम्परागत कला को आगे बढ़ाया जाय और इसे सामाजिक सरोकार से भी जोड़ा जाय. ऐसे ही एक प्रयोग में मैंने अपनी पेंटिंग में वृक्ष बचने की मुहीम के महत्त्व को दर्शाया है. हम लोग पेंटिंग करने के साथ ही नयी पीढ़ी को इस कला में आगे बढ़ने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं। हमारी यह भी कोशिश है कि हम ऐसी पेंन्टिंग बनायें जिनमें जंगल वासियों की अपनी जीवन शैली को और औद्योगिकीकरण के खतरे के बीच अपने संघर्ष के संतुलन को दिखाते रहें।'
'आपकी पेंटिंग्स आपकी सभ्यता और संस्कृति को किस तरह अभिव्यक्त्व करती हैं ?'
'मैं उदाहरण दे कर बताना चाहूंगा। फसल कटने के लिए तैयार है धान की बालियां पतझड़ के मौसम की हवा में लहरा रही हैं, कृषक अपनी फसल काटने के लिए तैयार वैठे हैं. नदियां लबालब भरीं हैं और इनमें मछलियां भी प्रचुर उपलब्ध हैं। शिकारी दो सुवर का शिकार करके ला रहे हैं , स्त्रियां रात्रि भोज बनाने की तैयारी कर रही हैं. स्त्री पुरुष हाथों में हाथ डाल कर गोल घेरे में ड्रम और घुमरू की लय पर नृत्य कर रहे हैं। दर्शक महुए के फल से बनी मदिरा का पान कर रहे हैं। यह वह दृश्य है जिसे हमारे कलाकारों ने अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है.'
गांव में थोड़ा सा बदलाव भी आ रहा है, अनिल की दो बेटियाँ अब हॉस्टल में रह कर पढ़ रही हैं, जाहिर सी बात है जब वे पढ़ कर वापस गांव में आएंगी तो कुछ न कुछ तो सोच में परिवर्तन आएगा।
वारली कला शैली के बारे में पहली बार मैंने महाराष्ट्र पर्यटन के विज्ञापन में पढ़ा था। इस शैली में नृत्य करती, शिकार करती और खेती बाड़ी करती छोटी छोटी मानवीय आकृतियों ने मुझे आकर्षित किया। भूरी पृष्टभूमि में यह सफ़ेद आकृतियां सीधे ग्रामीण परिवेश में ले गयीं .
उत्सुकता बढ़ी तो गूगल पर छानबीन की , पता चला कि इस कला शैली का उद्गम दहाणु के आस पास कहीं है. अब तक तो मैं दहाणु को चीकू नगरी। के रूप में ही जनता था. मैंने फैसला किया कि इस इलाके की यात्रा की जाय और इस अनन्य लोक कला के बारे में खोज निकला जाय। मेरे चित्रकार मित्र सुजीत पोद्दार इस यात्रा में मेरे साथ बने रहे.
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| The way traditionally women folk used to draw on the wall |
दहाणु मुंबई से केवल १३५ कि मी की दूरी पर है , चर्च गेट से यहाँ तक के लिए अब सीधी तेज लोकल मिलती है. इस यात्रा में जैसे ही विरार पार किया आगे दूर दूर तक कहीं आबादी दिखाई नहीं देती है , जिधर नजर घुमाओ पहाड़ियां और हरियाली ही नज़र आती है, हाँ अगर पालघर को छोड़ दें तो कहीं कहीं चंद झोपड़ियां ही दिखती हैं। यकीन नहीं आता कि महानगर के इतने करीब घना जंगल हो सकता है.
अपने खूबसूरत समुद्री किनारे के कारन दहाणु में शनिवार और रविवार को महानगर से काफी सैलानी आते हैं इस लिए काफी भीड़ भाड़ रहती है नहीं तो यह छोटा सा शांत दिखने वाला है, देखा जाय तो यह महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा रेखा पर है. लेकिन यहाँ बहुत काम लोगों को पता है कि इस इलाके का उस वारली चित्रकारी से कोई लेना देना है जो अब अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर चर्चित हो चुकी है. सुजीत ने प्रयास किया कि कोई ऐसा संपर्क मिल जाय जो हमें इस खोज में सहायता कर सके. सुजीत के परिचित प्रो दास ने एक संपर्क बताया था , यह प्रो दास पहले जे जे स्कूल आफ आर्ट में पढ़ाते थे अभी अवकाश प्राप्त कर चुके है और जेवर डिजायन करते हैं. दास जी के बताये फ़ोन पर संपर्क किया, यह अनिल वनगढ़ थे , वे दहाणु - जव्हार मार्ग पर स्थित गंजड गांव के रहने वाले है , संपर्क के ठीक एक घंटे में पहुँच गए. .
अनिल का गांव दहाणु से १५ किमी की दूरी पर है यहाँ तक पहुँचने के लिए मुख्य सड़क से अंदर कोई २ किमी जाना पड़ता है. पथरीले और पहाड़ी गांव को देख कर लगता है कि ७० साल में भी यहाँ कुछ खास बदला नहीं है आज भी घरों की दीवारें बांस और अन्य पत्तों से बनायी जाती हैं बाद में उन्हें गेरू से रंग दिया जाता है. छत हैं जरूर लेकिन मानसून के मौसम में लम्बी बरसात झेल नहीं पाती हैं, चिकित्सालय है तो चिकित्सक नहीं हैं, घर में कोई बीमार पड़ता है तो देवता को प्रसन्न करने के लिए मुर्गे की बलि चढाने की प्रतिज्ञा लेते हैं। इस सभी के बीच इस गांव के कई कलाकारों को अंतर्राष्ट्रीय ख्यति मिली है, अनिल भी उन में से एक हैं. दूसरे देशों में बसे वारली कला के चाहने वाले गंजड आ कर उस पूरे परिवेश की अनुभूति लेना चाहते हैं. अनिल पेंटिंग बेच कर और इन मेहमानों की मेहमान नवाजी से थोड़ा संपन्न हो गए हैं और उनका घर पक्का बन चुका है, इस में इतनी जगह है कि १५-२० विदेशी मेहमान आराम से रुक सकते हैं।
हम अनिल जी के घर में बैठ कर हर्बल चाय पी रहे हैं और हम उनसे पूछते हैं ,' यह चित्रकला शैली किस तरह प्रकाश में आयी ?'
अनिल बताते हैं ,' हमारे गांव का कोई व्यक्ति जाने माने कला प्रेमी केकू गाँधी के यहाँ काम करता था, उसी के माध्यम से इस कला शैली उन्हें पता चला. परम्परा के अनुसार हमारी जनजाति की महिलायें दीपावली और विवाह के अवसर पर पिसे चावल के घोल से दीवार पर चित्रकारी करती थीं। जिव्या सोम माशे हमारी जनजाति के पहले पुरुष कलाकार थे जिन्होंने विशेष अवसरों की जगह रोजाना की गतिविधियों को विषय वस्तु बना कर एक नयी परिपाटी शुरू की. केकू गांधी ने जिव्या की कलाकृतियों को राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय फलक प्रदान किया। इस बीच यशोधरा डालमिया और जतिंदर जैन ने वारली कलाकारी पर पुस्तक लिखी जो काफी चर्चित हुई और इससे भी इस कला को नया बाजार मिला। जिव्या को अपने कार्य के लिए पदम् पुरस्कार भी मिला।
मैंने पूछा,'अनिल आपके अनुसार वारली कला शैली का सार तत्व क्या है?'
अनिल कहते हैं ,' जहाँ मधुबनी लोककला पौराणिक आख्यानों पर आधारित है वहीँ हमारी कला भूमि का सम्मान करती है और हमारा विश्वास गांव वासियों और धरा के बीच दैविक संतुलन में है। इसके लिए हमारे कलाकार प्रतिदिन बदलते परिदृश्यों को अपने प्रेरणा बना कर प्रकृति के साथ सहअस्तित्व कायम रख कर आध्यात्मिकता को खोजने की कोशिश करते हैं। '
'इन पिछले वर्षों में वारली चित्रकला में क्या परिवर्तन आया है ?'
'हज़ारों वर्षों से हमारी वारली जनजाति की महिलाएं फसल या फिर मांगलिक अवसरों पर मिटटी की दीवारों पर चित्र उकेर कर आशीर्वाद की कामना करती रही हैं. वे चावल के पेस्ट को बारीक तिनकों और टहनियों से अपनी चित्र बनती थीं , उनके द्वारा उकेरे गए यह जटिल आकार पुरुष और स्त्री के बीच के संतुलन का भी प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. जब से पुरष इस क्षेत्र में आ गए हैं उन्होंने कैनवास, ब्रश को अपना लिया है ताकि यह कलाकृतियां लम्बे समय तक संरक्षित रहें , विषय विस्तार भी हुआ है थोड़ा आकार प्रकार और विषय में भी बदलाव हुआ है। पुरुष दिन प्रतिदिन की घटनाओं को भी अंकित करने लगे हैं '.
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| In the backdrop traditional painting done at the time of marriage |
अनिल की स्कूली शिक्षा केवल नौवीं कक्षा तक ही हुई है लेकिन उन्होंने अपनी कला में महारथ हासिल कर ली है , यही कारण है कि उन्हें अमेरिका, यूरोप के कई देशों में जाने, अपनी कला के बारे में सेशन लेने का अवसर मिला है। कई लोग तो यह भी मानने लगे हैं कि वे जिव्या की परम्परा के नए वाहक हैं।
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| This is interconnectedness with the ecosystem |
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| intricate work to show the village life |
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| This is the way now Warli Painters are experimenting in various medium |
मैं पूछता हूँ ,' आप अपनी इस कला शैली का भविष्य किस तरह देखते हैं ?'
' हम लोगों का प्रयास है कि इस परम्परागत कला को आगे बढ़ाया जाय और इसे सामाजिक सरोकार से भी जोड़ा जाय. ऐसे ही एक प्रयोग में मैंने अपनी पेंटिंग में वृक्ष बचने की मुहीम के महत्त्व को दर्शाया है. हम लोग पेंटिंग करने के साथ ही नयी पीढ़ी को इस कला में आगे बढ़ने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं। हमारी यह भी कोशिश है कि हम ऐसी पेंन्टिंग बनायें जिनमें जंगल वासियों की अपनी जीवन शैली को और औद्योगिकीकरण के खतरे के बीच अपने संघर्ष के संतुलन को दिखाते रहें।'
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| Anil Vangad has painted contemporary subject : Save Tree Save Life |
'आपकी पेंटिंग्स आपकी सभ्यता और संस्कृति को किस तरह अभिव्यक्त्व करती हैं ?'
'मैं उदाहरण दे कर बताना चाहूंगा। फसल कटने के लिए तैयार है धान की बालियां पतझड़ के मौसम की हवा में लहरा रही हैं, कृषक अपनी फसल काटने के लिए तैयार वैठे हैं. नदियां लबालब भरीं हैं और इनमें मछलियां भी प्रचुर उपलब्ध हैं। शिकारी दो सुवर का शिकार करके ला रहे हैं , स्त्रियां रात्रि भोज बनाने की तैयारी कर रही हैं. स्त्री पुरुष हाथों में हाथ डाल कर गोल घेरे में ड्रम और घुमरू की लय पर नृत्य कर रहे हैं। दर्शक महुए के फल से बनी मदिरा का पान कर रहे हैं। यह वह दृश्य है जिसे हमारे कलाकारों ने अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है.'
गांव में थोड़ा सा बदलाव भी आ रहा है, अनिल की दो बेटियाँ अब हॉस्टल में रह कर पढ़ रही हैं, जाहिर सी बात है जब वे पढ़ कर वापस गांव में आएंगी तो कुछ न कुछ तो सोच में परिवर्तन आएगा।
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| Basically this is way to show that life is a celebration |








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