Aligarh Lock Industry Under Threat-तालों के बहाने अलीगढ के हिन्दू -मुस्लिम समुदाय को समझने का प्रयास









पिछले पखवाड़े मेरा अलीगढ जाना हुआ.
राजधानी दिल्ली से महज 160 कि मी  दूर  बसा यह शहर आजादी के 70 बरस बीत जाने के वावजूद आज भी हिन्दू और मुसलमान  दो अलग अलग खानों में बंटा  हुआ है. हालाँकि यह भी सच है कि इस शहर ने गंगा  जमुनी तहजीब के नीरज, कुर्तलेन हैदर , शहरयार  जैसे साहित्यकार और भारत भूषण और रवीन्द्र  जैन जैसे फिल्मकार  दिए हैं जिन्होंने अपनी धारदार कलम और कला से इस विभाजन को अपनी अपनी तरह से  तोड़ने की कोशिश की है।
यहाँ   एक ओर उपरकोट का इलाका है जहाँ मुस्लिम आबादी रहती है, वहीं बाकी इलाका हिन्दू बहुल है। मुस्लिम विश्वविद्यालय इस सब के बीच एक अलग टापू जैसा है.   नफ़रत की छोटी सी चिंगारी पूरे शहर को साम्प्रदायिकता  की आग में  लपेट लेती है।  जब जब भी यह साम्प्रदायिकता  की  लपट इस शहर से उठती हैं तो यहाँ का  ताला  उद्योग अंतर्राष्ट्रीय दौड़ में एक दो साल और पिछड़ जाता  है.
वैसे तो पूरा शहर ही सरकार  के स्वछता अभियान का मखौल उड़ाता लगता है लेकिन मुस्लिम बहुल इलाके कुछ ज्यादा ही गंदे हैं।
शहर की छोटी से छोटी गली में भी ताला उद्योग से जुडी इकाई कार्यरत हैं, यहाँ का एक सच यह भी है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों  के लोगों का व्यवसाय  एक दूसरे के हुनर पर आश्रित हैं. जहाँ हिन्दू इलाकों में बढ़िया नाश्ता, मिठाई  और नमकीन बाजिव दाम में मिलता है तो मुस्लिम बहुल इलाकों में लजीज गोश्त आधारित डिशें , जिन्हे चकने के लिए पूर्ण शाकाहारी घरों के नौजवान भी आ जाते हैं ।  मेरे जैसे बम्बई के रहने वाले व्यक्ति के लिए महज पांच रूपये में पनीर वाले समोसे किसी आश्चर्य से कम नहीं थे.
अब अलीगढ जाएँ और वहां से ताले न लेकर न आएं यह तो संभव ही नहीं है क्योंकि ऐसी धारणा  है कि  पूरी  दुनिया यहीं के बने ताले इस्तेमाल करती है। मंगलवार का दिन था बाजार बंद था, फिर भी मन ललचाया  कि कोशिश करने में आखिर क्या हर्ज है ,
उपरकोट वाकई ऊँचे से टीले पर बसा है, शायद उसके नीचे परत दर परत इतिहास छुपा हो सकता है।  उपरकोट की सड़कों पर महिलाएं ही नहीं किशोरियां भी चेहरे पर नकाब लगाए घूम रही थीं ,बाज़ार की छुट्टी होने के कारण  सड़क पर गंदगी और फुटपाथ के बीच फड़ लगा कर फेरी वाले वैठे हुए थे. पूरा माहौल ऐसा लग रहा था जैसे आज़ादी से पहले के काल में पहुँच गए हों. तभी हमें ताले की एक दुकान खुली मिली। वहां  यही कोई साठ साल के सफ़ेद दाढी वाले सज्जन काउंटर  पर वैठे हुए थे , हमने उनसे अच्छे ताले दिखने को कहा. हमारे सामने उन्होंने आठ दस किस्म के ताले रख दिए।  अब बारी हमारे हैरान होने की थी , सारे ताले चीन में बने हए थे। 'लाहौल विला कुब्बत , मियां हम तो अलीगढ के ताले देखने आये हैं. यह तो चीनी हैं. ' हमने दाढ़ी वाले सज्जन से कहा। 
'भाई जान आज कल लोग क्वालिटी नहीं देखते उन्हें सस्ते ताले चाहिए , हम इसी लिए चीनी रेंज भी रखते हैं '. उनका उत्तर था. 
'पर यहाँ के ताले मंहगे और चीन से आये सस्ते ?'
'साहब वहां बहुत बड़े पैमाने पर बनते हैं, मैटेरियल की क्वालिटी हल्की रहती है इस लिए हमारी इंडस्ट्री मुकाबला नहीं कर सकती है, हाँ तकनीक और मटेरियल में वे हमारा मुकाबला नहीं कर सकते हैं। ' यह कहते ही उनकी आँखों में एक चमक और हाथ में तेजी आ गयी. एक एक करके उन्होंने हमारे सामने तीस पैंतीस अलग अलग खूबियों वाले ताले रख दिए.एक एक ताले की अलग खूबी और एक से बढ़ कर एक सुरक्षा फीचर, हम तो हैरान रह गए. 
दूकानदार का नाम अजीम खान था , उसने बताया कि अब से कोई चालीस साल पूर्व सामने के फड् पर ताले  दुरुस्त करने और चाबी बनाने का काम किया करता था, उसके काम से खुश हो कर उसके एक ग्राहक  ने उसे प्रोत्साहित किया और पैसा देकर छोटी सी फैक्ट्री लगवा दी। अजीम की मेहनत और ग्राहक़ का पैसा रंग लाया एक फैक्ट्री, दुकान और सड़क के पार घर आज सब कुछ है. हाँ अजीम ने कुछ नहीं छोड़ा तो वो था अपना इमान और काम करने की ललक। 
हम अजीम से बारह ताले खरीद कर लाये,  हर एक के खोलने की नायाब तकनीक , दाम इन फीचर को देखते हुए कुछ खास नहीं। 
लेकिन एक बात साफ़ है कि  चीन के तालों ने तालों के घर अलीगढ में सेंध लगा दी है 
अगर अलीगढ के लोगों ने  सरकारी तंत्र ने मिल कर इस चुनौती का मुकाबला नहीं किया तो अलीगढ के ताले अतीत की वस्तु हो जाएगी।  

   

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