India Needs Transformation to Empower Ordinary Citizen

जब आप घर से बाहर होते हैं घर की याद सताती है और जब देश के बाहर होते हैं तो देश की हर छोटी बड़ी चीज महत्वपूर्ण लगने लगती है. इन दिनों अपनी अवस्था भी कुछ ऐसी ही है.

 टीवी के सभी समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में एक आध अपवाद छोड़ कर मोदी छाए हुए हैं,  लगता है  पूरा देश दो हिस्सों में बंट गया है,  एक तरफ मोदी का समर्थन करने वाले हैं तो दूसरी तरफ उनकी नीतियों और कार्यनान्वयन की शैली का विरोध करने वाले . यह स्थिति लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है. 

पिछले एक महीने में विस्तार से समाचार पढ़ने का अवसर नहीं मिला लेकिन रोजाना देसी अख़बारों की सुर्खियां देख लेता हूँ  इन में से कुछ तो लगभग एक आध दिन छोड़ कर   :
  1.   प्रधान मंत्री द्वारा किसी न किसी प्रकल्प का उद्घाटन या  नई  विदेश यात्रा का विस्तार से कवरेज    
  2.  नक्सली हिंसा में सुरक्षा कर्मी शहीद 
  3.  कश्मीर में सेना अधिकारियों / सैनिक  शहीद
  4. रेल दुर्घटना में यात्री घायल 
  5.  बस दुर्घटना में यात्री मरे 
  6.   बम्बई में चेन खींच कर लूटने की घटनाएं  
  7.  युवती या युवतियों से चलती कार/ बस  में बलात्कार 
  8.  गाय मांस खाने बेचने के खिलाफ बयान 
  9.  गाय लेजाते हुए लोगों की घातक पिटाई 
  10.  राम मंदिर बनाने का संकल्प 
  11.  इतिहास के पुनर्लेखन करके  इसे और स्वर्णिम बनाना 
  12.  एक एक करके विपक्ष को हाशिये पर पहुंचने की ख़बरें 
  13.  तीन बार तलाक कहने से पत्नी को तलाक देने के खिलाफ मुहीम 
ऐसा लगता है कि जैसे आम नागरिक के जीवन का कोई मूल्य नहीं है अगर है तो केवल उस पर कवर करने के लिए रोजाना जारी किये जाने वाले बयान.

दूसरी ओर यूरोप और अमरीका की सरकारें जहाँ बिना किसी प्रचार या प्रोपगंडे  के अपने नागरिक को एक ऐसा सामाजिक वातावरण प्रदान करने में लगी हुए हैं जिसमें :
  1. हर नागरिक को एक मानव के रूप में जीने का अवसर मिले 
  2. उसे आवास और अन्य बुनियादी सुविधाओं का हक़ मिले 
  3. व्यवसाय करना इतना सरल हो कि उसे पूरा समय व्यवसाय में लगाने का अवसर मिले 
  4. नौकरी के लिए उसे सामान हक़ मिलें 
  5. पुलिस ऐसा वातावरण  बनाये कि अपराध करने से पहले अपराधी कई बार सोचे लेकिन आम आदमी उसके पास अपनी शिकायत लेकर बेखौफ जा सके  
  6.  आम आदमी अपना राजनैतिक प्रतिनिधि चुनने के लिए उसकी जाति, धर्म या राजनैतिक प्रतिबद्धता की जगह उसके राजनैतिक सोच को आधार बनाये।
  7. समाज में जूता बनाने से लेकर मजदूरी करने तक का काम उतना ही सम्मान जनक है जितना कि  व्हाइट कालर व्यवसाय या नौकरी 
यह सही है कि हमें जब आज़ादी मिली थी तब देश के पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे , जनसँख्या अधिक होने के कारण बुनियादी सुविधाएँ जुटाना बहुत बड़ी चुनौती थी। लेकिन कम से कम हम इतना तो कर सकते थे कि प्रशासन और पुलिस बिना  किसी भेदभाव के आम आदमी को यह भरोसा दिलाता कि यदि वह ईमानदार है तो उसे कोई नहीं सताएगा , उसके बच्चों को भी सामान शिक्षा का अवसर मिलेगा। हुआ बिल्कुल उलटा ही है , यदि आप पैसे वाले हैं या फिर बड़े व्यवसायी , राजनीतिज्ञ या नौकरशाह तो आप के बच्चे अलग अभिजात्य स्कूलों में पढ़ेंगे , उन्हें अच्छे नौकरी और व्यवसाय के अवसर मिलेंगे , आम आदमी के बच्चे टाट पट्टी वाले वर्नाकुलर स्कूलों में कुछ वर्ष पढ़ कर मजदूरी में लग जायेंगे. नौकरी और पढाई में आर्थिक पिछड़ेपन  की जगह उसकी जाति के आधार पर मौका मिलेगा। राजनैतिक प्रतिनिधि योग्यता के आधार पर नहीं वरन अपनी जाति  या फिर धर्म के आधार पर चुने जाते हैं, प्रतिनिधि बनने के पीछे अघोषित लक्ष्य देश सेवा, समाज सेवा से कहीं अधिक से अधिक पैसा बनाना रहता है. किसी न किसी बहाने विदेश घूमना, मुफ्त यात्रा कूपन , मुफ्त घर, बंगले, मुफ्त खाना पीना ये सब  राजनैतिक प्रतिनिधि बनने के अतिरिक्त लाभ हैं.इसके ठीक उलट पश्चिमी देशों में सत्ता से हटते  ही  राजसी जीवन जीने की जगह वापस साधारण नागरिक का जीवन जीने लगते हैं, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर इन दिनों वापस वकालत और व्याख्यान देकर जीवन  यापन कर रहे हैं, अमरीका जैसे ताकतवर देश के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा वापस साधारण नागरिक के रूप में अपना जीवन बिता रहे हैं. 

पश्चिमी देशों में जन प्रतिनिधि बनने के लिए मुकाबला धन, बाहु-बल, जाति-बल के  नहीं सार्वजानिक डिबेट के आधार पर होता है , जन संचार  और प्रचार माध्यमों का जितना दुरूपयोग और भोंडा प्रदर्शन भारत में होता है उसका शतांश भी पश्चिम में नहीं देखने को मिलता है, सारे प्रचार माध्यम सभी दलों के प्रतिनिधियों को सामान अवसर देते हैं. जबकि हमारे यहाँ भ्रष्टाचार की शुरुआत चुनाव प्रचार से ही हो जाती है। सरकार कामकाज से कहीं ज्यादा समय टीवी और समाचारपत्रों के माध्यम से अरबों रुपए के विज्ञापन पर देती है, इससे दो लक्ष्य सधते हैं, इन विज्ञापनों में शासन में बैठे नेताओं के चित्र जनता तक पहुँचते हैं, समाचार माध्यम सरकारी विज्ञापन के धन के बोझ से दब कर अपनी कलम की धार भोंथरी कर देते हैं, इस लिए जो सवाल मीडिया को सरकार से करते रहना चाहिये वह करते ही नहीं वरन जनता को गैर महत्वपूर्ण मुद्दों में उलझाए रखते हैं.

     ऐसा भी नहीं कि पश्चिम में सब कुछ ठीक ठाक है पर भारत की तुलना में यह नगण्य ही है. धन, धर्म, जाति आधारित राजनीति बंद हो जाय तो आम नागरिक का जीवन कहीं बेहतर बन सकता है.    

हमारे देश में पश्चिमी  देशों जैसा नागरिक प्रशासन लाने के लिए एक क्रांतिकारी सोच और क्रांतिकारी बदलाव की जरुरत है लेकिन यह पढ़ा लिखा युवा ही कर सकता है. अरविन्द केजरीवाल ने इसकी शुरुआत की थी लेकिन वह सभी राजनैतिक दलों की हिट लिस्ट पर हैं, उसके जीवन का एक एक पन्ना खोल कर माइक्रोस्कोप  लेकर यह साबित करने की कोशिश की जाती  है कि जनता जनार्दन देख लो यह भी तो हम सब जैसे  ही हेरा फेरी करता है !  






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