FICCI Frames 2017

फिक्की फ्रेम्स २०१७ :  मनोरंजन उद्योग के लिए आधी अधूरी पहल 

                                                                                                                                                                                      -प्रदीप गुप्ता 
मुम्बई २३ मार्च 

भारत का मनोरंजन उद्योग २०१६ के आते आते  १२६२१०  करोड़  रूपये का बन गया है , जबकि  २०११ में यह केवल ७२८४०  करोड़  रूपये का था। एक अनुमान के अनुसार २०२० के आते आते इसका आकार   २२६०००  करोड़  रूपये का हो जाएगा। इस लिहाज से देखा जाय तो यह देश का सबसे तेजी  से बढ़ता उद्गयोग है, एन एस डी सी के अनुसार इस उद्योग में  ६ .२० लाख लोग सीधे सीधे रोजगार में लगे हुए हैं और जिस हिसाब से इसका विस्तार हो रहा है २०२० के आते आते १२.९० लाख तकनीकी रूप से दक्ष लोगों की जरुरत होगी  . जिनमें १० लाख तो केवल फिल्म और टीवी को ही चाहिए। 

    हर उद्योग की अपनी चुनौतियाँ होती हैं और अपनी समस्याएं होती हैं.  पूर्व में सरकारें  इस उद्योग से मनोरंजन कर तो वसूलती रहीं लेकिन यह नहीं सोचा गया कि इस उद्योग के विकास के लिए कुछ सरकारी स्तर पर भी पहल होनी चाहिए। फ़िल्में हमारे  देश में एक लंबे समय तक लोकरंजन का मास-माध्यम रहीं, लेकिन इन्हें  उद्योग का दर्जा १९९८ में ही मिल पाया। इस बीच टीवी ने भी मनोरंजन के प्रभावशाली माध्यम के रूप में पहचान बनाई। अब से १८ वर्ष पहले  फिल्म जगत के यश चोपड़ा, यश जोहर सरीखे  थॉट लीडर के प्रयासों से भारतीय उद्योग की शीर्ष संस्था फेडरेशन आफ इंडियन चैम्बर आफ ट्रेड एंड इंडस्ट्री (फिक्की ) ने फ्रेम्स नाम से एक सालाना इवेंट की शुरुआत की थी जिसके माध्यम से फिल्म और मनोरंजन से जुडी हुए समस्याओं के बारे में सीधे सीधे सरकार से संवाद किया जा सके , यश जी का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि हर साल सारा मनोरंजन जगत इस इवेंट के साथ जुड़ जाता था  , सरकार की और से भी काफी वरिष्ठ स्तर के अधिकारी और नेता इस  उद्योग संवाद में शामिल होने लगे. 

फ्रेम्स - २०१७ में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रमुख सचिव अजय मित्तल और उद्योग - व्यवसाय मंत्रालय के संयुक्त सचिव सुधांशु पांडेय पहले दिन उद्घाटन और  एक सूक्ष्म चर्चा में दिखे। लेकिन किसी भी विचार विमर्श या फिर संवाद में फिल्म जगत के प्रभावशाली नेता कहीं भी नहीं थे, जाने माने फिल्म निदेशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा फिक्की फिल्म फोरम के अध्यक्ष भी  हैं उनकी भागीदारी केवल पहले दिन और उद्घाटन सत्र तक सिमट कर रह गयी  ।अगर ईमानदारी से देखा जाय तो फ्रेम्स का पूरा मंच प्रायोजकों के हवाले था। दो सत्र का उल्लेख ख़ास तौर से करना चाहूंगा,  गूगल के एशिया पैसिफिक क्षेत्र के निदेशक अजय विद्यासागर का वीडियो रिवोल्यूशन सत्र पूरा का पूरा प्रस्तुतीकरण यू ट्यूब का कारपोरेट प्रेजेंटेशन मात्र था, इसी प्रकार अर्णव गोस्वामी का चेंजिंग फेस आफ न्यूज उनके जल्दी ही अवतरित होने वाले रिपब्लिक न्यूज चैनल का धुआंधार प्रचार मात्र था, बेहतर होता कि यह सत्र अन्य समाचार चैनल के लोगों के साथ सार्थक किस्म की चर्चा परिचर्चा के रूप में आयोजित किया जाता । जानी मानी निर्माता निदेशक दीपा मेहता पूरे तीन  दिन रहीं , लेकिन वे तो फ्रेम्स-१७  के मुख्य प्रायोजक देश कनाडा की सांस्कृतिक एम्बेसडर के रूप में नजर आईं.   

एक महत्वपूर्ण सत्र का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा - सेंसरशिप के बारे में चर्चा काफी सार्थक रूप से हुई. सरकार ने वर्तमान सेंसरबोर्ड की चारों और से हुई आलोचना को ध्यान में रख कर श्याम बेनेगल की  अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था , बेनेगल ने समिति की महत्वपूर्ण अनुसंशाओं के बारे में बताया, समिति ने अपनी अनुसंशाओं में कहा था कि बोर्ड का काम यह देखना है कि फिल्म का विषय वास्तु और प्रस्तुतीकरण भारतीय संविधान के दायरे में है या नहीं, दूसरा यह कि बोर्ड फिल्म की विषय वस्तु  के अनुसार चार श्रेणियों यू १२ वर्ष , यू  १२ वर्ष ऊपर , वयस्क , वयस्क (चेतावनी के साथ ) प्रमाणन करे, उसे कैंची चलाने  का अधिकार नहीं होना चाहिए। लेकिन समिति का प्रतिवेदन सरकारी ठन्डे बस्ते में पड़ा है, ऐसी सार्थक चर्चा में सरकार के प्रतिनिधि का होना जरूरी था ताकि इस बारे में सरकार की मंशा पता लग सके. इसी लिए पैनल में अन्य सदस्य निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक विशेष भट्ट का कहना था कि उद्योग से जुड़े लोग सेंसर को लेकर चर्चा तो कई दशाब्द से कर रहे हैं लेकिन जब तक सरकारी स्तर पर गंभीरता नहीं होगी कोई नतीजा नहीं निकलेगा। 

फ्रेम्स-१७ में एक रोचक सत्र दूसरे दिन सुनने को मिला जिसमें टीवी सीरियल की मल्लिका  एकता कपूर टीवी कंटेंट की व्याकरण पर चर्चा में नजर आईं. बीस साल से  टीवी सीरियल में शीर्ष में रहने वाली एकता का मानना है कि भारत दक्षिण बम्बई से अलग है, उनपर लाख पारिवारिक संबंधों को अतिरेकित करने का इल्जाम लगे लेकिन उनका कहना है कि उनके सीरियलों में दिखाया जाने वाला माहौल  सच में घरों में देखने को मिलता है और वे वही दिखाती हैं जिसे पूरा परिवार साथ वैठ कर देख सके. डिस्कवरी चैनल के कारन बजाज भी मानते हैं कि  भारत में कहानी कहने का अंदाज पच्छिमी देशों से काफी फर्क है इसी  लिए उनके चैनल ने भी उसी अंदाज में स्थानीय कंटेंट विकसित किया है जो खासा लोकप्रिय हो रहा है. बी बी सी  के कंटेंट वी पी रयान शिओटानी का कहना था कि जबतक कहानी कहने में इमोशन का तड़का नहीं होगा लोगों को पसंद नहीं आएगा.  वहीँ गो न्यूज के पंकज पचौरी का कहना था कि न्यूज फार्मेट में आने वाले समय में काफी बदलाव आने  वाला  है, वे आम आदमी तक समाचार अंश ९० सेकेण्ड के फार्मेट में प्रस्तुत कर रहे हैं इसलिए उनका समाचार देश के दूर दराज में वैधे आम आदमी तक पहुँच पा रहा है। 

इम्तियाज़ अली  एक बड़ी सार्थक चर्चा के सूत्रधार बने , हाल के कुछ महीनों में नारी के सकारात्मक चरित्र चित्रण  को विषय वस्तु बना कर पिंक, सरबजीत, कहानी २ , नीरजा , दंगल और डियर जिंदगी जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुई  हैं ये बॉक्स आफिस पर भी सफल हुई हैं और इन्होंने महज प्रेम कथाओं के मिथक को भी तोड़ा है. इस चर्चा में एक्टर तनिष्ठा चटर्जी , ऋचा चढ़ा , वाणी त्रिपाठी , लेखक जूही चतुर्वेदी , म्यूजिक प्रोड्यूसर सोना महापात्र भी शामिल थीं।  इन सभी का मानना था कि संघर्ष करना पड़  रहा है लेकिन रास्ता  बन रहा है.

बेहतर यह होगा कि फ्रेम्स को आने वाले  समय में वापस सरकार और मनोरंजन उद्योग के बीच का पुल बनाया जाय, सरकार की ओर से जो प्रतिनिधि आएं वे यह मान कर सत्रों के बीच में रहें कि  चर्चा पर सार्थक फीडबैक सरकार को दिया जाय और मनोरंजन व्यवसाय को  कर देने वाले गाय मात्र न माना जाय, सरकारी तंत्र का प्रयास बासिज्म इस उद्योग के संवर्धन के लिए एक मित्र का रहे, फिक्की को पर्यायोजित चारच्चों पे काम सार्थक संवाद पर जोर देना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि  उद्योग से संवंधित शीर्ष लोग संवाद और चर्चा में सक्रीय रूप से नजर आएं. 

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