Exploring Mind of Football Marketeers
लैटिन अमेरिकी देश ब्रजील में फुटबॉल का महाकुम्भ फीफा हॉल ही में ख़त्म हुआ है , लेकिन जाते जाते कुछ अनुत्तररित प्रश्न भी छोड़ गया है . राष्ट्र एक दूसरे से युद्ध के मैदान में भी शायद कभी इस तरह से नहीं भिड़ते हैं जैसे कि फुटबॉल के मैदान में भिड़ते हुए दीखते हैं, उन देशों से आये हुए वहां के नागरिक इस दौरान मैदान में या फिर अपने ही ड्राइंग रूम में टी वी सेट के सामने सांस रोक कर ऐसे बैठे रहते हैं जैसे कि उनके अपने जीवन मरण का पल ही आ गया हो . यहाँ तक तो ठीक है लेकिन इसी के साथ एक समान्तर धारा भी चलती है , खिलाडियों की प्रेमिकाएं या फिएन्सी सूक्ष्म से वस्त्रों में मीडिया द्वारा कुछ इस तरह से हाइलाइट की जाती हैं कि जैसे इस के बिना खेल अधूरा ही हो .

कमोबेश यही स्थिति आई पी एल के मैचों के दौरान भी देखने को मिलती ही जब टी वी पर विशेषज्ञों की टोली में एक महिला भी दिखाई देती है जिसके चयन के पीछे उसका क्रिकेट ज्ञान कम, शक्ल सूरत और सेक्सी फिगर ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है, टी वी कैमरे बाल का पीछा कम करते हैं उनका फोकस चीयर लीडर्स के वक्ष पर अधिक रहता है .
ऐसा नहीं कि स्त्री और उसके शरीर शौष्ठव को महत्वपूर्ण मैचों के दौरान प्रदर्शित किये जाने के खिलाफ स्वर नहीं उभरे हों, मर्दों के खेलों के बहाने स्त्री के जिस्म के कंटूर उघाड़ने के खिलाफ छोटी छोटी ही सही आवाज उभरने लगी हैं .
इस बारे में हाल ही में बाब एंडरसन ने अपनी किताब why men watch football में लिखा है , ' फुटबॉल जेंडर के बारे में स्पष्ट तस्वीर पेश करने वाला खेल है . इसमें खिलाड़ी खेल के मैदान को युद्ध स्थल के रूप में लेते हैं. जिरहबख्तर से सज्जित हो कर वे अपने जिस्म का हथियार की तरह इस्तेमाल करके मैदान में ऐसे ही युद्धरत दीखते हैं जैसे कि कभी आदि काल में योद्धा हुआ करते थे. आज के युद्धक्षेत्र की साइडलाइन में चीयरलीडर्स अधनंगे कपड़ों में दीखते हैं . टेलीविजन पर कैमरा रणक्षेत्र में युद्धरत नौजवानों पर और साइडलाइन में उत्साह बढाती चीयरलीडरों बारी बारी से फोकस करता दिखता है . दरअसल बाजारवाद के इस दौर में सारा का सारा जोर बेचने पर है. यदि फ़ुटबाल को बतौर वर्ल्ड चैम्पियन प्रॉपर्टी के रूप में बेचना है तो जाहिर है उसमें थोड़ा महिला ग्लैमर जोड़ना ही पडेगा, आपने देखा होगा कि कवरेज में दिखने वाली फ़ुटबाल खिलाडियों की प्रेमिकाएं, सहचरी एक से एक सुन्दर, उनके वक्ष पर विशेष फोकस किया जाता था . अरे भाई बीड़ी और सिगरेट तक को बेचने के लिए उसके विज्ञापन में सुन्दर बाला जरूर रखी जाती है. ब्राजील फीफा में तो कैमरों के जरिये सुंदरियों के वक्ष को फ़ुटबाल के प्रतीक और नाभी से नीचे के अंग को गोल पोस्ट के प्रतीक में ढालने की कोशिश की जाती रही . यहाँ तक कि मशहूर गायिका शकीरा और जेनिफर लोपेज़ को उद्घाटन समारोह में कूल्हे और वक्ष हिलाते हुए महज सेक्स बिम्ब के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता रहा.

सवाल यह है कि दुनिया भर में फ़ैली हुई लाखों करोड़ों फुटबॉल प्रेमी महिलायें फ़ुटबाल की इस युक्तिरचना से कितनी संतुष्ट हैं या फिर कितना ठगा महसूस करती हैं. सच तो यह है कि वे इस पूरे माहौल में बतौर ट्रॉफी से ज्यादा और कुछ नहीं पाती हैं.
ऐसा नहीं कि महिला फुटबॉल का हर चार वर्षों के बाद विश्व कप मुकाबला न होता हो , लेकिन वह कब आता है और कब चला जाता है पता ही नहीं चलता है. ठीक यही स्थिति महिला क्रिकेट की भी है, उसकी सीरीज को प्रायोजक ही नहीं मिलते हैं. कारण साफ़ है महिलाओं की इन स्पर्धाओं में कोई मर्दांगनी जैसा अहसास नहीं होता है. कुछ कुछ स्थिति महिला टेनिस और बैडमिनटन में जरूर बदली है. नहीं तो फ़ुटबाल प्रतिस्पर्धाओं में मर्द दबदबा ही है और स्त्री ३६-२४-३६ के रूप में जुडी नजर आती है.

कमोबेश यही स्थिति आई पी एल के मैचों के दौरान भी देखने को मिलती ही जब टी वी पर विशेषज्ञों की टोली में एक महिला भी दिखाई देती है जिसके चयन के पीछे उसका क्रिकेट ज्ञान कम, शक्ल सूरत और सेक्सी फिगर ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है, टी वी कैमरे बाल का पीछा कम करते हैं उनका फोकस चीयर लीडर्स के वक्ष पर अधिक रहता है .
ऐसा नहीं कि स्त्री और उसके शरीर शौष्ठव को महत्वपूर्ण मैचों के दौरान प्रदर्शित किये जाने के खिलाफ स्वर नहीं उभरे हों, मर्दों के खेलों के बहाने स्त्री के जिस्म के कंटूर उघाड़ने के खिलाफ छोटी छोटी ही सही आवाज उभरने लगी हैं .
इस बारे में हाल ही में बाब एंडरसन ने अपनी किताब why men watch football में लिखा है , ' फुटबॉल जेंडर के बारे में स्पष्ट तस्वीर पेश करने वाला खेल है . इसमें खिलाड़ी खेल के मैदान को युद्ध स्थल के रूप में लेते हैं. जिरहबख्तर से सज्जित हो कर वे अपने जिस्म का हथियार की तरह इस्तेमाल करके मैदान में ऐसे ही युद्धरत दीखते हैं जैसे कि कभी आदि काल में योद्धा हुआ करते थे. आज के युद्धक्षेत्र की साइडलाइन में चीयरलीडर्स अधनंगे कपड़ों में दीखते हैं . टेलीविजन पर कैमरा रणक्षेत्र में युद्धरत नौजवानों पर और साइडलाइन में उत्साह बढाती चीयरलीडरों बारी बारी से फोकस करता दिखता है . दरअसल बाजारवाद के इस दौर में सारा का सारा जोर बेचने पर है. यदि फ़ुटबाल को बतौर वर्ल्ड चैम्पियन प्रॉपर्टी के रूप में बेचना है तो जाहिर है उसमें थोड़ा महिला ग्लैमर जोड़ना ही पडेगा, आपने देखा होगा कि कवरेज में दिखने वाली फ़ुटबाल खिलाडियों की प्रेमिकाएं, सहचरी एक से एक सुन्दर, उनके वक्ष पर विशेष फोकस किया जाता था . अरे भाई बीड़ी और सिगरेट तक को बेचने के लिए उसके विज्ञापन में सुन्दर बाला जरूर रखी जाती है. ब्राजील फीफा में तो कैमरों के जरिये सुंदरियों के वक्ष को फ़ुटबाल के प्रतीक और नाभी से नीचे के अंग को गोल पोस्ट के प्रतीक में ढालने की कोशिश की जाती रही . यहाँ तक कि मशहूर गायिका शकीरा और जेनिफर लोपेज़ को उद्घाटन समारोह में कूल्हे और वक्ष हिलाते हुए महज सेक्स बिम्ब के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता रहा.

सवाल यह है कि दुनिया भर में फ़ैली हुई लाखों करोड़ों फुटबॉल प्रेमी महिलायें फ़ुटबाल की इस युक्तिरचना से कितनी संतुष्ट हैं या फिर कितना ठगा महसूस करती हैं. सच तो यह है कि वे इस पूरे माहौल में बतौर ट्रॉफी से ज्यादा और कुछ नहीं पाती हैं.
ऐसा नहीं कि महिला फुटबॉल का हर चार वर्षों के बाद विश्व कप मुकाबला न होता हो , लेकिन वह कब आता है और कब चला जाता है पता ही नहीं चलता है. ठीक यही स्थिति महिला क्रिकेट की भी है, उसकी सीरीज को प्रायोजक ही नहीं मिलते हैं. कारण साफ़ है महिलाओं की इन स्पर्धाओं में कोई मर्दांगनी जैसा अहसास नहीं होता है. कुछ कुछ स्थिति महिला टेनिस और बैडमिनटन में जरूर बदली है. नहीं तो फ़ुटबाल प्रतिस्पर्धाओं में मर्द दबदबा ही है और स्त्री ३६-२४-३६ के रूप में जुडी नजर आती है.
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