Ghazal : मिरा वजूद पिघलता क्यों है
इन दिनों मैं अपनी यादों के दरीचे से निकाल निकाल कर चंद ग़ज़लें पेश कर रहा हूँ , हो सकता है कि ये आपको बहुत उम्दा न लगें लेकिन मेरे लिए ये भावनात्मक दस्तावेज से कम नहीं हैं, उसी दौर की एक और ग़ज़ल से रु-ब-रु करा देता हूँ .
सांस आज भी थमती सी है तेरे आगे
मिरा वजूद पिघलता क्यों है तेरे आगे
बाद मुद्दत के तेरे ख्याल से मिल पाया हूँ
और घिर आया है यादों का हजूम मेरे आगे
चूमता हूँ तो कभी आगोश में भर लेता हूँ
तेरा एहसास जो ठहरा सा है मेरे आगे
आज बारिश की झड़ी क्या खूब लगी है देखो
गम का समन्दर तो रोज बरसता है मेरे आगे
बूँद बारिश की वही एहसास दिला देती हैं
आँख से ढलके थे जो चंद मोती मेरे आगे
@ प्रदीप गुप्ता
सांस आज भी थमती सी है तेरे आगे
मिरा वजूद पिघलता क्यों है तेरे आगे
बाद मुद्दत के तेरे ख्याल से मिल पाया हूँ
और घिर आया है यादों का हजूम मेरे आगे
चूमता हूँ तो कभी आगोश में भर लेता हूँ
तेरा एहसास जो ठहरा सा है मेरे आगे
आज बारिश की झड़ी क्या खूब लगी है देखो
गम का समन्दर तो रोज बरसता है मेरे आगे
बूँद बारिश की वही एहसास दिला देती हैं
आँख से ढलके थे जो चंद मोती मेरे आगे
@ प्रदीप गुप्ता
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