Shanghai : Not Very New in Subject But very Engrossing and Close to Hard Political Reality
शंघाई फिल्म देखने के बाद ऐसा लगा कि हिंदी फ़िल्में अब वयस्क हो गयी हैं और किसी भी ज्वलंत समस्या पर फिल्म बनाने के लिए कला या यथार्थ किस्म की केटेगरी की जरूरत नहीं रही है, निर्माता बिना किसी खौफ के मेन स्ट्रीम दर्शको के लिए ऐसी फिल्म बना सकते हैं और वह चलेंगी भी.
फिल्म एक पालिटिकल ड्रामा है, राजनैतिक घात-प्रतिघात, बेईमान ब्युरोक्रेट, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की बिल्डरों के साथ साथ-गांठ फिल्म में पहली बार नहीं दिखाई गयी है, इस फिल्म में न तो बड़े स्टार हैं ना ही कोई ग्लैमर है, और तो और इसमें बैक-ग्राउंड संगीत भी नहीं है. इस सब के बावजूद कुछ ऐसा है जो दर्शक को अंत तक सीट से बांधे रखता है.
आपको याद होगा अब से कुछ साल पहले वास्सिलिस वासिल्कोस की फिल्म z आयी थी जो पूरी दुनिया भर में पसंद की गयी थी . शंघाई की प्रेरणा स्रोत यही फिल्म है .
आपको याद होगा अब से कुछ साल पहले वास्सिलिस वासिल्कोस की फिल्म z आयी थी जो पूरी दुनिया भर में पसंद की गयी थी . शंघाई की प्रेरणा स्रोत यही फिल्म है .
इंडिया शाइनिंग के नारे और अपने देश के बड़े शहरों में, खास तौर से बम्बई को शंघाई बनाने के नाम पर गरीबों की बस्ती उजाड़ने का सिलसिला साल पहले शुरू हुआ था . वहां पर शानदार माल, शापिंग काम्प्लेक्स, गगन चुम्बी इमारतें बनाये जाने थे. इस काले कारोबार में हर कोई शामिल था , फिल्म में दिखाया है कि किसी राज्य की मुख्यमंत्री (फिल्म में सुप्रिया पाठक तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जैसी दिखती है) और उसके चुनिन्दा व्युरोक्रेट बिल्डरों के साथ मिल कर इस कारोबार के लिए गरीबों के खिलाफ किसी भी सीमा तक गिर कर षडयंत्र कर सकते हैं. फिल्म में उसकी पार्टी का नाम भी सोच समझ कर रखा गया है, आई बी पी ( यानी इंडिया बने परदेश पार्टी) , सारा का सारा मंजर शिद्दत के साथ परदे पर उतारा गया है कि बस देखते ही बनता है . बस्ती के रहने बालों को उसका सही मुआवजा मिले और उन्हें बेघर होने का दंश न झेलना पड़े उसके लिए डा. अहमदी (बंगाली फिल्मों के जाने माने अभिनेता प्रसन्नजीत चटर्जी) क्षेत्र के लोगों को संगठित करते हैं, उनको पुलिस और लोगों के सामने दिन दहाड़े किस तरह रौंद दिया जाता है, इस घटना को एक्सपोज करने या में शामिल लोगों को किस तरह से मौत के घाट उतर दिया जाता है यह भी कोई नई बात नहीं लगती पर उसे ईमानदारी के साथ कैनवास पर उतारना दिबांकर सरीखे निदेशक के बस की ही बात लगती है .
एक बात और, क्षेत्रीय सिनेमा से जो प्रतिभा हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा में आ रही है उस से बालीवुड की न केवल विश्वसनीयता बढ़ेगी वरन देश के मनोरंजन का मुख्य स्रोत और भी समृद्ध होगा.
डा. अहमदी के जीवन मृत्यु से झूझते हुए और बाद में उनकी पत्नी को भी शंघाई से जुड़ते हुए देखना दर्शक के मन में एक हताशा सी पैदा करता है, दर्शक अपने मन में फिल्म देखने के बाद जो अबसाद और तल्खी ले कर बापस जाता है वही इस फिल्म की सफलता है. लेकिन देखा जाय तो इस फिल्म का सबसे बेहतरीन केरेक्टर कल्कि कोच्लिन ने जिया है, इमरान भी फोटोग्राफर के लगभग बगेर पड़े लिखे सहायक के रूप में खूब जमे है. अभय देओल जरा इमानदार व्युरोक्रेट के रूप में फिट हो गए हैं, पूरी की पूरी बेईमान व्यवस्था के बीच एक इमानदार सरकारी अधिकारी के अंतर्द्वंद को अभय ने जिया है. कहने को इस फिल्म में एक जबरदस्त आइटम सांग भी है लेकिन वो जबरदस्ती आरोपित या भरती किया नहीं लगता है.
यह फिल्म रौडी राठोर जैसी गर्मागर्म मसाला फिल्म के आसपास रिलीज हुए इस लिए जरा दर्शक उतने नहीं आये, पर समीक्षकों ने फिल्म को पांच में से चार या साढ़े चार सितारे दिए हैं, इसके लिए फिल्म पूरी तरह से खरी उतरती है. दिबांकर ने यह जो ईमानदार सिनेमा बनाने की कोशिश की है इसे और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है.


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