Kashish II India's International Gay and Lesbian film Festival




समलेंगिक फिल्म उत्सव अब दुनिया भर में मनाये जा रहे हैं, इन उत्सवों में जो फ़िल्में दिखाई जाती हैं उनके थीम पुरुष अथवा महिला सम्लेंगिकों पर केन्द्रित  रहता है। अब से कुछ वर्ष पहले तक सम्लेंगिक संबंधों  के बारे में सार्वजानिक रूप से चर्चा करना लगभग वर्जित था. लेकिन हाल के वर्षों में सम्लेंगिक संबंधों  के प्रति  समाज का नजरिया बदला है। यह ठीक है कि आज भी समलेंगिक  संबंधों  को  सामान्य स्त्री-पुरुष सेक्स संबंधों जैसी मान्यता नहीं हो लेकिन कम से कम उसे अपराधिक  प्रवृति  के  रूप में देखने का सिलसिला जरा कम हुआ है।



यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि सम्लेंगिक फिल्म उत्सव लन्दन, फिलाडेल्फिया, लास एंजिल्स , बर्लिन, ब्रिसबेन, सिडनी, ब्रुसेल्स, जुरिख,  ओसाका  से लेकर केनरी आईलेंड  और बिलबो (स्पेन) जैसे स्थानों पर आयोजित किये जा रहे हैं और उन्हें कौतूहल की निगाह से नहीं देखा जा रहा है। इसी कड़ी मैं पिछले साल बम्बई में  'कशिश कुइर फिल्म फेस्टिवल' आयोजित किया गया था. उसे मिले प्रतिसाद को देखते हुए इस बार  भी 23-29 मई के बीच यह उत्सव  आयोजित किया गया, फिल्मे दिखने के लिए अलायंस दी फ्रेंचाइज  और सिनेमेक्स वरसोवा  को चुना गया. हैरानी की बात नहीं इस उत्सव में 22 देशों की 125 से भी अधिक फ़िल्में देखने के लिए केवल सम्लेंगिक ही नहीं वरन सामान्य दर्शक भी पहुंचे लेकिन उनके मन में इस आन्दोलन के प्रति समर्थन कम कोतुहल ज्यादा था। 


सेलिब्रिटी भी जुटीं , रेड कारपेट पर फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल,साईं परांजपे पूजा भट्ट , ओनिर, रंगमंच से अलेक पदमसी , अभिनेता रेणुका शहाने, सरिता जोशी, मौसमी चटर्जी ,कपिल शर्मा, समीर, नीलम सोनी, अचिंत कौर नज़र आये, दुनिया भर के कई नामचीन फिल्म निर्माता भी इस आन्दोलन के साथ अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करने के लिए आये। 
कशिश उत्सव के डायरेक्टर श्रीधर राघवन का कहना है कि दिल्ली उच्च न्यायालय धारा 377 के बारे में एतिहासिक फैसले के बाद देश के सम्लेंगिक सम्मान आन्दोलन को एक नई  दृष्टी मिली है, हमारा उत्सव इस चेतना को जन जन तक पहुचने की दिशा में एक विनम्र प्रयास है। इस से लोगों को सम्लेंगिकों के पक्ष और समस्याओं को और भी बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी। उत्सव के साथ बोम्बे दोस्त के अशोक राव कवी भी जुड़े हुए हैं जो एक अरसे से सम्लेंगिकों की समस्याओं को उठाते  आ रहे हैं।


कई सम्लेंगिक बाई सेक्सुअल भी होते हैं, ऐसे लोगों की अलग समस्याएँ हैं इस उत्सव में पहली बार इन्हें उठाने  वाली फ़िल्में प्रदर्शित की गयीं। दर्शकों की भीड़ में ज्यादातर सम्लेंगिक युवक और युवती शामिल थे जो अपने अजीओगरीब पहनावे और अन्य प्रतीकों के जरिये पहचान में आ रहे थे . मेरा  अपना  मानना है की कई बार समलेंगिक  प्रवृती कई बार बच्चों की सामाजिक  उपेक्षा, टूटते पारिवारिक रिश्तों का नतीजा होती है इसे पुनर्वास और सामाजिक सहानुभूतिपूर्ण नजरिये से काबू पाया जा सकता है, इस दिशा में कशिश एक अच्छी कोशिश है क्योंकि इस में दिखाई गई  फ़िल्में सम्लेंगिकों की दुनिया में  के लिए  दर्शक के लिए  खिड़की का काम करेंगी।  





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